गुलशेर खाँ शानी के उपन्यास ‘काला जल’ पर…

Kala Jal

Kala Jal by Shaani

शानी का उपन्यास, ‘काला जल’ मुस्लिम समुदाय के जीवन पर प्रमाणिक और कई मायने में बड़े कमाल का दस्तावेज़ है। पहला कमाल तो ख़ुद इसका शीर्षक है। वो चाहते तो इसको ‘काला पानी’ कह सकते थे क्यूंकि पूरे उत्तर भारत में ‘पानी’ लफ़्ज़ ‘जल’ से ज्यादा प्रचलित है। पर उन्हें ‘काला जल’ चुना। शायद इसलिए कि काला पानी एक सज़ा को कहतें हैं और जीवन कोई सज़ा नहीं। उन्होंने दबे कुचले हुए लोगों के जीवन में व्याप्त सड़ांध को दिखाने के उद्देशय से शायद ये शीर्षक चुना होगा। और दूसरा कमाल ये कि जब ये छपा, तो किसी संघी या किसी लीगी की नज़र से बच गया वार्ना कोई संघी इसे ‘लव जिहाद’ के नाम पर या कोई लीगी इसे मज़हब के आडम्बर को उजागर करने के नाम पर फ़तवा जारी करके इसको लोगों तक पहुंचने नहीं देता।

शानी के इस उपन्यास में दो नायक हैं : एक ख़ुद शानी; जो मुस्लिम समाज की बड़ी बेहरमी से चीर फ़ाड़ करते चलते हैं और दूसरा बब्बन;जो इंसान की कुंठाओं के साथ न जीता है, न मरता है। दोनों नायक साथ-साथ चलते हुए आख़िर में एक होकर ऐसा सच रचते हैं जो शानी को प्रेमचंद के समकक्ष खड़ा कर देता है। शानी का सच प्रेमचंद के सच के समान कड़वा नहीं है पर एक गहरी वेदना के साथ दिल में चुभता है। और ये हक़ीक़त कि दबे कुचले हुए लोग, चाहे किसी भी धर्म या मज़हब से जुड़े हैं, एक जैसे मुखोटे पहने हुए हैं और एक जैसा दर्द लेकर जीते हैं, बयाँ करता है।

वो जब लिखते हैं , “लोग पागल नहीं तो क्या हैं जिन्हें हर ऊँची बिल्डिंग ,नई कार या किसी सुन्दर महिला की मैत्री में बेईमानी दिखाई देती है”, तो इंसान के कुछ न कर पाने का ढोंग उनके शब्दों में पढ़ते ही बनता है।

शानी ने जिस बेबाकी से मुस्लिम समाज का वर्णन किया है मैँ सोचता हूँ उतना बिरले ही किसी मुस्लिम राइटर ने किया होगा। वो जब मुहर्रम पर मातम मनाने आये लोगों का सच लिखते हैं; “इंद्रा के किनारे हम सब लोग पिकनिक करने आये थे”, तो धार्मिक क्रियाओं के पीछे छुपे आडम्बर को तोड़ते हुए नज़र आते हैं। और तो और, जिस कोरी ईमानदारी से उन्होंने ‘बिट्टो’ के ‘इस्लामबी’ या ‘बी -दरोगान’ होकर भी ताउम्र ‘बिट्टो’ रह जाना और लोगों द्वारा उसे क़ुबूल किया जाना लिखा है,वो इस बात का प्रमाण है, कि धर्म एक मजबूरी से ज़्यादा कुछ भी नहीं। वो रुश्दी या नसरीन की तरह इस्लाम पर प्रहार नहीं करते। वो उस आडम्बर को छीलते हुए नज़र आते हैं जो हर मज़हब में इंसान को ज़हनी और भौतिक तरक़्क़ी से रोकता है।

और आख़िर में वो पूरी ईमानदारी से मुस्लिम समुदाय में एक तबके की आज़ादी के वक़्त हिन्दुस्तान में रहने या पकिस्तान जाने की उहापोह बयाँ करते हैं। शानी एक सरल लेखक थे जो मुसलमानों का इस तरह से अपने ही देश में पिछड़ जाना बयाँ करते हैं। वो ऐसा होने पर इस देश से सवाल नहीं पूछते पर बदक़िस्मती से इसका जवाब पिछले ६९ सालों से हर सरकार ने अपनी अपनी सहूलियत के हिसाब से दिया है पर ये सवाल आज भी पूरी शिद्दत से अपना सही जवाब ढूँढ रहा है।

‘काला जल’ एक ऐसी ही चीर फ़ाड़ है जो समाज के नासूर को दिखता है और शानी की उस नासूर को ख़त्म करने की बेचैनी इसमें पूरी ईमानदारी से ज़ाहिर होती है।

ये लेख अनुराग भारद्वाज ने जयपुर किताब ब्लॉग में 30 मई 2016 को पोस्ट किया था.

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