विनोद दास
यह वह समय था जब दिल्ली के सांस्कृतिक ह्रदय मंडी हाउस स्थित रवीन्द्र भवन के साहित्य अकादमी परिसर में हिन्दी साहित्य की दो विभूतियाँ साहित्य की दो आँखों की तरह एक दूसरे के पड़ोस में बैठती थीं। एक थे हमारे समय के सबसे विवादास्पद और प्रखर कवि -अनुवादक विष्णु खरे और दूसरे कस्बाई जिंदगी और मुस्लिम समाज की विडंबनाओं के मर्मस्पर्शी कथाकार गुलशेर खान “शानी”. दोनों जन अविभाजित मध्यप्रदेश के पिछड़े इलाकों से थे. एक छिंदवाड़ा से,दूसरे जगदलपुर से . दोनों के बीच मैत्री का तंतु शायद इन कस्बों की मिलती -जुलती धूल-मिट्टी और पसीने की गंध रहा होगा.
वह कौन सी दोपहर थी, ठीक से याद नहीं, पर वह कुछ वैसी ही थी जैसे हर सरकारी दफ़्तर में होती है. जब मैंने शानी जी का कक्ष खोला तो वह अपनी मेज़ पर लंच कर रहे थे. मैं उलटे पाँव लौट आया. इस बीच पानी लेने गया उनका चपरासी बेधड़क उनके कक्ष में चला गया. जब वह पानी उनके कक्ष में रखकर लौटा तो गलियारे में रखी कुर्सी की ओर इशारा करके मुझे इंतज़ार करने को कहा. उस सूखी गर्म दोपहर में मैं उनके बुलावे की बाट जोहने लगा. कुछ देर बाद शानी दरवाज़े से बाहर नमूदार हुए और हमें भीतर आने की दावत दी.
चौड़ा माथा, दरम्याना क़द ,सांवला रंग, गुप्तचर की तरह भेदती आँखों पर चढ़ा मोटा चश्मा. घुंघराले काले बाल. चेहरे पर आत्मविश्वास का तेज. पहली नज़र में मेरे लिए यह शानी थे. साफ़, मंजी हुई संयत मुस्कान के साथ उन्होंने हाथ मिलाया. उनकी गदोलियों में स्वागत की गर्माहट थी. इससे पेश्तर कि मैं कुछ कह पाता मेरे कानों में सुनायी दिया. ”कहिए ! क्या काम है ? ” यह सवाल मुझे उन दिनों ऐसी अंधेरी घाटी में पहुंचा देता था जिसके आगे मैं ठिठक जाता था. मुझ जैसे एक अज्ञात कुलशील नवांकुर लेखक के लिए इसका उत्तर देना वाकई धुंध में कुछ खोजने जैसा होता. फिर इसकी परिणति एक अजीब असहाय मुस्कराहट में होती. अक्सर मैं सोचता हूँ कि ऐसी हालत उन तमाम तरुणों के लिए ज़्यादा बड़ी होती होगी जिनके झोले में छपाने के लिए न तो कोई अपनी रचना होती है और न ही इसके लिए कोई तृष्णा, मगर वह एक पत्रिका के ऐसे संपादक की कुर्सी के सामने मुसलसल मौजूद होता है जिसके लेखन के प्रेम में गिरफ़्तार होकर वह उससे मिलना चाहता है. वैसे एक संपादक की अपने पेशे की यह विवशता होती है कि वह अपने पास आनेवाले हर व्यक्ति को एक ऐसे लेखक की तरह बरतता है जैसे वह उसके पास अपनी रचनाओं को छपाने के लिए आकुल – व्याकुल होकर आया हो।
शानी तो फिर जाने माने संपादक थे. मध्य प्रदेश साहित्य परिषद की पत्रिका “साक्षात्कार” के संस्थापक संपादक के रूप में उनकी कीर्ति की सुंगंध साहित्यिक हलके में फ़ैल चुकी थी. मध्य प्रदेश कला परिषद से इस्तीफ़ा देकर दिल्ली आये थे. उन दिनों नवभारत टाइम्स अखबार के संपादक अज्ञेय थे. अज्ञेय जी के साथ जब वह नवभारत टाइम्स दैनिक समाचार पत्र के रविवारीय परिशिष्ट रविवार्ता का संपादन कर ही रहे थे, तभी केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने अपनी हिन्दी पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य को निकालने का निर्णय लिया और उसके संपादन का दायित्व शानी के अनुभवी हाथों में सौप दिया.
“बस आपसे मिलने आया हूँ “, एक झपाके से शानी से बिना आँख मिलाये कहा और राहत की गहरी सांस ली. फिर उनसे उनके उपन्यास “काला जल” की बात हमने छेड़ दी. मैने उनसे काला जल उपन्यास के शिल्प की प्रशंसा की कि किस तरह कथा नायक बब्बन शब- ए- बरात पर फ़ातिहा पढ़ते हुए अपने परिजनों को याद करता है. यही नहीं, सल्लो आपा के साहसिक चित्राकंन का भी उनसे जिक्र किया जो पुरुषों का वेश धारण करके मोहसिन से मिलती है और धड़ल्ले से सिगरेट फूंकती है. शानी के चेहरे पर गर्व और खुशी के अनगिनत रंग बिखर गये. किसी भी रचनाकार के दिल के करीब पहुँचने का यह सबसे शार्ट कट रास्ता होता है कि आप उनकी रचनाओं की चर्चा करें. हर रचनाकार के दिल को अपनी रचना की बात उसी तरह छूती है जैसे अपने बच्चे की नटखट शरारतों को सुनकर माँ मन ही मन मुदित होती है.
शानी के लेखन के प्रति आकर्षण का एक बड़ा कारण यह भी था कि कई बरस बाराबंकी के मुस्लिम बहुल मोहल्ले पीरबटावन में रहने के बावजूद मुझे मुस्लिंम जीवन के बारे में उतना भी नहीं पता था जितना किसी खिड़की से पड़ोस के घर झाँकने से उनके जीवन के बारे में भी पता चल जाता है. यह कितनी बड़ी विडम्बना थी कि मैं उनकी ज़िन्दगी के अतरे-कोनों को किस्सों-अफवाहों से जानता था जबकि वे सब जिंदा हाड़मांस की तरह मेरे आसपास सांस ले रहे थे. उससे बड़ी यह विडम्बना की बात यह थी कि हिंदी में मुस्लिम जिन्दगी के प्रामाणिक अनुभवों को चंद मुस्लिम कथाकार ही रूपायित कर रहे थे. इनमें शानी, राही मासूम रज़ा, बदीज्ज्मा, मेहरुनिस्सा परवेज़ प्रमुख थे. शानी के उपन्यास “काला जल” और राही मासूम रज़ा के उपन्यास “आधा गाँव” में तो मुस्लिम समाज के अनुभवों को सघन सांद्रता से व्यक्त किया गया था जबकि बदीउज़्ज़मां के काफ्काई अंदाज़ में लिखे उपन्यास एक चूहे की मौत में दफ्तर की लाल फीताशाही को चूहे के रूपक के जरिये दर्शाया गया था. कथाकार मंज़ूर एहतेशाम, असगर वज़ाहत और अब्दुल बिस्मिल्लाह दृश्य पर तब तक प्रमुखता से आये नहीं थे.
बदीउज़्ज़मां साहब मेरे पिताजी के दफ़्तर केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो में वरिष्ठ अधिकारी थे. पिता जी के साथ कई बार घर भी आ चुके थे. बेहद शालीन और नम्र. दुबले-पतले सुकड़े से. वह खुद भी एक मासूम चूहे से लगते थे. उनका उपन्यास “छाको की वापसी” तब तक प्रकाशित हो चुका था और उन्होंने उसे पढ़ने के लिए मुझे दिया भी था. मुस्लिम समाज का ताना बाना बदीउज़्ज़मां ने अपने उपन्यास “छाको की वापसी” के कथा विन्यास में जिस महीन रेशे से गूंथा है, उससे उनकी संवेदना और सोच का नया धरातल उजागर होता है.उस समय तक उनके उपन्यास “ एक चूहे की मौत ” की तुलना में “छाको की वापसी” की चर्चा हिंदी संसार में कम थी जबकि वह उनकी अपनी अनुभवों की ज़मीन थी और आज़ादी के बाद के भारतीय मुस्लिम समाज को समझने का एक जरूरी दस्तावेज़ भी. बदीउज़्ज़मां का उपन्यास “ छल प्रपंच ” भी शिल्प और कथ्य की दृष्टि से अनोखा उपन्यास है जिसके बारे में हिन्दी में गहरी चुप्पी रही है. सच तो यह है कि कथाकार बदीउज़्ज़मां के साथ हिन्दी कथा आलोचना ने उचित न्याय नहीं किया.
हिंदी परिदृश्य में राही मासूम रज़ा के आधा गाँव की तुलना में काला जल की नोटिस कम ली गयी है, इसका ज़िक्र करने पर शानी भरे बादल से गंभीर हो गये. इस सिलसिले में उनका मंतव्य हमसे कुछ अलग था. उनका मानना था कि वह उपन्यास शिया-शैयदों के जमींदारों के गाँव की कथा है जबकि काला जल में एक परिवार के माध्यम से एक मध्यवर्गीय मुस्लिम की अभिशप्त जिन्दगी को उकेरा गया है.
बहरहाल उस दिन शानी से मुलाक़ात प्रीतिकर रही. उनको भी राहत रही होगी कि इतनी लंबी बातचीत के बाद उनकी मेज़ पर चुपके से छपने के लिए कोई रचना रखकर मिमियाते हुए उनसे किसी ने यह नहीं कहा कि ” इसे देख लीजियगा.” हालांकि उन्होंने रस्मी लफ्ज़ों में कहा था,” मिलते रहिएगा.”
तब मुझे क्या मालूम था कि उनसे अगली मुलाकात जल्दी ही होगी. दरअसल उन दिनों हिन्दी की लोकप्रिय कथा पत्रिका सारिका का कार्यालय मुंबई से दिल्ली आ गया था और उसके संपादक कन्हैया लाल नंदन बन चुके थे. नंदन जी मूलतः गीतकार थे. कथा साहित्य से उनका कोई प्रत्यक्ष नाता नहीं था. लेकिन धर्मयुग में काम करने का उन्हें अनुभव था और सारिका के गौरवपूर्ण इतिहास से वे भली भांति परिचित थे .उनकी कोशिश थी कि सारिका का एक स्तर बना रहे. उन्होंने विदेशी कथाकारों पर कई महत्वपूर्ण अंक निकाले थे. काफ्का पर केन्द्रित अंक के लिए “पिता के नाम चिट्ठी” का अनुवाद करने का काम मुझे भी उप संपादक सुरेश उनियाल ने सौंपा था. सारिका को लोकप्रिय बनाने की दृष्टि से नंदन जी ने सारिका में कुछ विशिष्ट कथाकारों के साक्षात्कारों की श्रृंखला भी शुरू की थी . नंदन जी से हमने इसी श्रृंखला के लिए शानी जी के इंटरव्यू करने की अनुमति माँगी और सुखद यह रहा कि उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया.
शानी जी हमारी दूसरी मुलाक़ात संक्षिप्त और प्रयोजनमूलक थी. इंटरव्यू देने के लिए वह बाखुशी राजी हो गये. जहाँ तक मुझे स्मरण है,उनका दिल्ली में यह पहला इंटरव्यू था. उन्होंने शनिवार की शाम अपने घर आने का निमंत्रण दिया.
हम जब पहुंचे, साफ़ धुले कुर्ते- पैजामे में शानी जी ने अपनी भेदती आँखों और चमकती मुस्कान के साथ स्वागत किया. फिर माफ़ी मांगते हुए उन्होंने बताया कि उनकी यह अभी पक्की रिहायश नहीं है, इसलिए अभी सोफ़ा आदि तमाम सामान नहीं खोला है. ज़मीन पर बैठने की व्यवस्था थी. हम बैठकर उनसे बातचीत की भूमिका बाँध ही रहे थे कि उनके चेहरे पर एक अजीब सी लहर उठी. वह सहसा बोले कि बातचीत कुछ रुककर करते हैं.चलो ! पहले बाज़ार हो आते हैं. उनका स्कूटर एक वाइन शॉप पर रुका. दुकान से लौटने के बाद उन्होंने अखबार में बोतल लपेटकर मुझे पकड़ा दी .
चाय के साथ विस्तार से बातचीत हुई. एक लेखक को हम दो दृष्टियों से देखते हैं एक जो सामने होता है. चलता- फिरता, बोलता- बतियाता. दूसरा वह जो हम उसकी रचनाओं से अपनी कल्पना में सृजित करते हैं. उस दिन शानी के दूसरे रूप से मुलाक़ात हो रही थी. उनकी बातों में कहीं भी उलझनों की सिलवटें नहीं थीं. उनकी कहानी “युद्ध” और” एक कमरे का घर” पर लगे साम्प्रदायिकता के आरोप के सवाल पर एक लतीफ़ सी झुंझलाहट उनके चेहरे पर कौंध गयी. उन्होंने कहा, “अगर दस पांच पीढ़ियों से हमारा परिवार हिन्दुस्तान में रह रहा है तो मैं उतना ही राष्ट्रीय हूँ जितने की आप. फिर क्या जरूरी है कि आप तभी मुझे अपनाएंगे जब मैं आपके कानों में राष्ट्रीयता का झुनझुना बजाऊं. यदि मैं साम्प्रदायिक हूँ तो आप मुझसे ज़्यादा साम्प्रदायिक हैं जिन्होंने मुझे साम्प्रदायिक बनाया है.”
शानी जी के इस वक्तव्य के साथ तमतमाये हुए उनके चेहरे की आंच हम महसूस कर रहे थे.सारिका में इस वक्तव्य को ही मुख्य शीर्षक देकर छापा गया. छोटी पत्रिकाओं में मेरी कहानी और लेख छप चुके थे लेकिन किसी बड़ी पत्रिका में यह हमारी पहली दस्तक थी. कहना न होगा कि यह इंटरव्यू बेहद चर्चित रहा.
इसकी तस्दीक तब हुई जब मैं कुछ दिनों बाद हंस प्रकाशन की कोई किताब लेने उसके दफ़्तर गया.राजेन्द्र यादव जी को जब मैंने अपना नाम बताया तो वह झट बोल पड़े.” क्या तुम वही हो जिसने शानी से इंटरव्यू लिया था. तुम्हारा इंटरव्यू शानदार था.” उन्होंने फिर तत्कालीन हिंदी कहानी परिदृश्य पर विस्तार से चर्चा की. चाय पिलाई और चलते समय अपनी आलोचना पुस्तक हस्ताक्षर करके उपहार में भी दी. शानी के इंटरव्यू का यह बोनस था.
दिल्ली से पटना चले जाने के बाद शानी जी से मिलने का सिलसिला कम हो गया. एक बार दिल्ली गया तो वह उसी गर्मजोशी से मिले.मैंने उनसे पूछा कि आपका लिखना काफी कम हो गया है तो उनका उत्तर था कि लिखने के लिए जीवनानुभव चाहिए. दिल्ली में इसके अवसर कम हैं. दफ्तर आने-जाने में ही सारा समय सर्फ़ हो जाता है. लोगों से मिलना जुलना कम होता है. सामाजिकता के अभाव में लिखने का कच्चा माल नहीं मिलता. हालांकि कुछ अरसे बाद उनका कहानी संग्रह “जहाँपनाह जंगल” आया. उन दिनों प्रयाग शुक्ल जी नवभारत टाइम्स का परिशिष्ट “रविवार्ता” देख रहे थे. उन्होंने समीक्षा के लिए वह किताब मुझे सौंप दी. पटना प्रवास के कारण समीक्षा पर उनकी राय पता नहीं चली. वैसे भी अखबारी समीक्षा ज़्यादातर किताब के प्रकाशन की सूचना होती है, उसकी राय का कोई ख़ास मतलब नहीं होता.
सूखी दोपहर में साहित्य अकादमी के कक्ष में शानी जी से मिलना, उनके घर में जमीन पर बिछे गद्दे पर बैठकर उस शाम सारिका के लिए की गई बातचीत, गर्मजोशी से उनका हाथ मिलाना, मोटे चश्में के फ्रेम से उनकी भेदती हुई आँखें आदि ऐसे अनेक बिंब है जिनसे मैं उनका अक्स अक्सर बनाता हूँ लेकिन असफल रहता हूँ. मुझे स्वीकार करने में कोई झिझक नहीं है कि मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि किसी व्यक्ति खासतौर से किसी लेखक को शब्दों से मूर्त कर सकूं, वह तो फिर लासानी शानी थे.
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