मूल्यांकन

Shaani during an interview, Delhi

…भाषा-साहित्य और संस्कृति के इतिहास में अठारहवीं शताब्दी के मध्य में कुछ ऐसा घटित हुआ कि उसके चलते लगभग दो सौ वर्षों तक हिंदी में लिखने वाला कोई बड़ा मुसलमान साहित्यकार हुआ ही नहीं। इस दृष्टि से देखें तो शानी हिन्दी-आधुनिक खड़ी बोली हिन्दी के पहले बड़े मुसलमान साहित्यकार हैं जो लगभग दो सौ वर्षों के लम्बे अन्तराल के बाद पैदा हुए।

अजीब बात है कि उन्नीसवीं शताब्दी के हिन्दी नव-जागरण काल में भी कोई मुसलमान साहित्यकार हिन्दी में लिखने के लिए आगे नहीं आया और बीसवीं शताब्दी के राष्ट्रीय जागरण के काल में भी। ‘रानी केतकी की कहानी’ के लेखक सय्यद इंशा अल्ला खां को मैं भूल नहीं रहा, लेकिन इंशा मूलतः और मुख्यतः उर्दू के शायर थे। प्रेमचन्द के समकालीन जहूरबख्श की भी मुझे याद है लेकिन उन्हें साहित्यकार मानना कठिन होगा। राही मासूम रजा का नाम भी मेरे जेहन में है और यह भी जानता हूँ कि वे शानी से उम्र में बड़े थे; लेकिन वे हिन्दी में शानी के बाद आये, लगभग 1960 के आस-पास और वह भी उर्दू से हिन्दी में आये थे, जबकि शानी शुरू से ही हिन्दी-सिर्फ़ हिन्दी के लेखक थे।

-नामवर सिंह

…शानी ने एक आत्मपरक निबन्ध में लिखा है-‘‘काश मैं हिन्दू होता। यह हिन्दुत्व के प्रति आकर्षण के कारण नहीं, स्वातन्त्रयोत्तर भारत में मुस्लिम होने की पीड़ा की चीख है।’’ शानी की इस गर्वोक्ति को मैं जायज समझता हूँ कि ‘‘हिन्दी में मुस्लिम जीवन का सच्चा कथाकार मैं ही हूँ।’’ इस गर्वोक्ति को मैं ठीक ही नहीं समझता, मैं उक्ति का सम्मान करता हूँ। परसाई ने निराला और उग्र की गर्वोक्तियों के बारे में कहा कि उनकी गर्वोक्तियाँ गर्वोक्तियाँ नहीं। यह उनका मोहक फक्कड़पन है। अपने अहंकार को बहुत गलाकर ही ऐसा मोहक फक्कड़पन नसीब होता है। यह भी यातना को सहने की क्षमता से ही सम्भव है।

मुस्लिम जीवन के चित्रा राही मासूम रज़ा ने भी खींचे हैं। आप इसे मेरी नासमझी कहें लेकिन मुझे राही के कथा-साहित्य में स्वातन्त्रयोत्तर भारत के मुसलमान की पीड़ा नहीं मिलती। राही अपने पात्रों की स्थिति में मजा लेते मालूम पड़ते हैं। शानी इस मामले में यशपाल की ‘पर्दा’ कहानी की जो इतनी तारीफ करते हैं, वह यूँ ही नहीं। शानी की अनेक कहानियाँ-‘जली हुई रस्सी’, ‘नंगे’ कहीं-न-कहीं ‘पर्दा’ की जाति में हैं।

स्वातन्त्रयोत्तर मुस्लिम जीवन को शानी उस जीवन के अन्तर्विरोधों के साथ देखते हैं। उनकी कहानियों और खासतौर पर मुस्लिम जीवन पर लिखी गयी उनकी कहानियों को देखकर मुझे हैरत होती है कि उन्हें प्रगतिशील साहित्यकार क्यों नहीं घोषित किया गया या यूँ कि खुद वामपन्थी साहित्यकारों के संगठनों से अलग-थलग क्यों रहे?

-विश्वनाथ त्रिापाठी

…उपन्यास लिखने के दौरान शानी का यह हाल कि आज उसके साथ ‘मिर्जा करामत बेग’ घूम रहे हैं तो कल ‘दारोगिन बी’, आज ‘फूफा’ ने सपने में आकर दर्शन दिये हैं, तो कल ‘मोहसिन’ के साथ गुलेल लेकर चिडि़यों के शिकार का शग“ल रहा। ग“रज“ यह कि ‘काला जल’ का प्रत्येक पात्रा शानी के साथ रह-जी चुका है और इस सबको देखकर मुझे जो कोफ्त और हैरत हुई, उसको भी मैं ही जानता हूँ। जब भी देखो, शानी एक तनाव और व्यग्रता में, एक हौलदिली और हाय-हाय में, जैसे सिर पर पहाड़ आ गिरा हो। ‘यार ये बिट्टन बहोत बोर कर रही है’ या ‘क्रान्तिकारी नायडू तुम्हें जम नहीं रहा, कोई रास्ता बताओ’ या

‘मोहसिन के विचारों को मेरे अपने विचार तो न समझ लिया जायेगा।’ सुबह पहुँच रहा हूँ तो उपन्यास के अध्याय सुन रहा हूँ; दुपहर मिले हैं तो पात्रों की स्थिति पर बहस हो रही है; रात पहुँचा हूँ तो कोई अनुच्छेद शानी को परेशान किये है। क’लम रख, चश्मा उतार, एक हथेली पर चेहरा टिकाए, दो-दो तीन-तीन बार लिखे हुए को जोर-जोर से पढ़ कर तौला जा रहा है।

कभी शाम घूमने निकले हैं तो हम दोनों के बीच एक अदृश्य व्यक्ति भी साथ-साथ चल रहा है और उसके होने न होने के औचित्य पर बहस हो रही है या पास से कोई बुजुर्ग निकला है तो मुझे यह बताया जा रहा है कि यह ‘काला जल’ का फलाँ चरित्रा है, या वह जगह दिखायी जा रही है जहाँ मोहसिन मियाँ गुलेल लेकर चिडि़यों का शिकार खेलने जाते हैं।

यों शानी का हर पात्रा आस-पास के वातावरण का जीता-जागता चरित्रा होता है और न तो कथ्य और न ही पात्रों के लिए वह बहुत दूर जाता है। उसकी कहानियों का (और उपन्यासों का भी) हर पात्रा कहीं-न-कहीं घूमता-फिरता है। वह आसानी से पहचाना जा सकता है और शानी भी रचना के दौरान उन्हीं के साथ जीता जाता है। उस समय भी शानी का अपना कोई अलग जीवन नहीं रह गया था। दिन के आवश्यक कार्यों को छोड़ कर हमारे बीच चर्चा का केवल एक ही विषय था ‘काला जल’। छोटी फूफी, मिर्जा करामत बेग, दारोगिन बी, मोहसिन आदि के व्यक्तित्व और उपन्यास की एकाधिक स्थितियों के विषय में इतने विस्तार और गम्भीरता से हमारी बातें होतीं कि वह जीवन की सबसे बड़ी समस्या हो।

-धनंजय वर्मा

…शानी को यकीन था कि सच्चा रचनाकार अपना कथ्य अधिकतर अपने परिवेश और अपने वर्ग से ही प्राप्त करता है। वे मुस्लिम थे। यह कोई इत्तिफाक’ नहीं कि उनकी अधिसंख्य रचनाएँ बँटवारे के बाद के हिन्दुस्तानी-भाषी उत्तरी भारत के मुस्लिम समाज के भय, यातना और विडम्बनाओं की कहानियाँ हैं। इस दृष्टि से वे भारत के उन चन्द रचनाकारों में शुमार किये जायेंगे जिन्होंने इस उपमहाद्वीप के बीसवीं सदी के कथा-साहित्य को एक निहायत नयी जमीन दी। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि वे आधुनिक हिन्दी के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मुस्लिम लेखक हैं और राही मासूम रजा, बदीउज्जमाँ, असगर वजाहत, मंजूर एहतेशाम तथा अब्दुल बिस्मिल्लाह आदि की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा अनिवार्य परम्परा के प्रथम पुरुष हैं।

साहित्य में यह मांग जायज है कि वह जिस वृहत्तर समाज में लिखा जा रहा है, उसके सभी वर्गों और पहलुओं को अभिव्यक्ति दे। लेकिन सिर्फ इसीलिए कोई साहित्य साहित्य नहीं मान लिया जायेगा कि वह उस समाज के दलितों, उपेक्षितों या अल्पसंख्यकों पर लिखा गया है। साहित्य की एक निर्मम विडम्बना यह है कि एक ओर तो उसे समाज की कसौटी पर कसा जाता है और दूसरी ओर, तथा अन्ततः, कला की कसौटी पर। किसी वर्ग-विशेष पर खराब ढंग से लिखी गयी कहानियाँ भी किसी समाजशास्त्री के लिए उपयोगी हो सकती हैं, साहित्यिक मूल्यांकन उन्हें दुर्भाग्यपूर्ण ही मानेगा। इसलिए शानी और उन जैसे वर्ग-विशेषों से आनेवाले सारे समर्थ लेखक, किसी भी कि’स्म की खास रियायतों, सुविधाओं, मेहरबानी तथा ‘पैट्रोनाइजिग’ से नफरत करते हैं। वे अपने वर्ग के यथार्थ को, उसमें अपनी व्यक्तिगत, नागरिक तथा बौद्धिक उपस्थिति और सृजनशीलता की भूमिका को उजागर करते हैं, खुद उन्हें समझने के लिए भी, उनकी नुमाइश या फरोख्त के लिए नहीं।

-विष्णु खरे

…शानी अपनी और आस-पास की जिन्दगी से झगड़ते, उससे लगातार बेचैन रहनेवाले व्यक्ति थे। उन्हें अपनी अल्पसंख्यकता का गहरा-तीखा अहसास था, पर उसके किसी राजनैतिक आशय में नहीं, बल्कि अपने निपट मानवीय अर्थ में। वे बस्तर जैसे आदिवासी अंचल से भोपाल और फिर भोपाल से दिल्ली आये थे। इस अहसास से उन्हें कभी मुक्ति नहीं मिल सकी कि वे अन्ततः हर जगह से हकाले गये-उन्हें हर बार जबरन कुछ छोड़ना पड़ा। हमारे समाज में आदिवासियों का एक हाशिया है। उस हाशिए से उठकर वे तथाकथित मुख्यधारा में आये, पर वहाँ भी मुसलमान होने के कारण उनकी नियति हाशिए पर की ही बनी रही; नियति नहीं स्थिति। इसी स्थिति ने उन्हें बेचैनी का, बेबाकी और निर्ममता का एक ऐसा मुकाम दिया, जहाँ से वह अपने आस-पास की और खुद अपनी अँधेरी-उजली सच्चाई को साफ-साफ देख सकें। शानी का साहित्य कुल मिलाकर हाशिए से देखी पायी सच्चाई के बेलाग और संत्रास्त बखान का साहित्य है। वह बचकर निकलने की हिकमत का नहीं है। जो जगह मिली है उसी को पहचानकर, उसी में रच-बसकर अपने सच को खोजने और जताने का ढंग है। उसमें बचाव नहीं है, बल्कि एक तरह की बाध्यता का भाव है : उसमें हाशिया जितना मुख्यधारा को देख-परख रहा है, उतनी ही चीर-फाड़ खुद अपनी भी कर रहा है।

शानी को अपने हाशिए की स्थिति मंजूर नहीं थी और वे ऐसा होने के विरुद्ध अपनों से और दूसरों से एक अनथक लड़ाई में जि“न्दगी भर मुब्तिला रहे। पर उनमें अपने हाशिए पर होने की बात को पहचानने की हिम्मत थी। हाशिए पर होने भर से उनकी हिस्सेदारी कम नहीं हो जाती थी।

-अशोक वाजपेयी

…अगर शानी न होता तो हम आत्ममुग्धों, संस्कृति-धर्म की स्व-घोषित इकहरी महानताओं के शंखों-घोंघों में कैद जगद्गुरुओं को झकझोर कर कौन दिखाता कि बहुसंख्यकों के बीच अकेले और असुरक्षित होना क्या होता है? क्या होता है पाकिस्तान, बंगलादेश और कुवैत में हिन्दू होकर रहना? तस्लीमा नसरीन की मानवीय पक्षधरता के सामने हमारी अहंकारी धार्मिक ‘साबार ऊपर मानुष’ की किताबी चीत्कार कितनी बौनी और टुच्ची है। और अगर शानी न होता तो अफ्रीकी, नीग्रो संघर्षों के पक्ष में आठ-आठ आँसू बहानेवाले हिन्दी बुद्धिजीवियों की आँखों में उंगली डालकर जेम्स बाल्डविन, रिचर्ड राइट या अलैक्स हेले की काली आवाज“ में कौन यह बताता कि ‘‘इस मुल्क या भाषा में जो भी श्रेष्ठ और गर्व करने लायक’ है उसे बनाने, सँवारने में हमारा भी खून-पसीना बहा है…न हम दूसरे दर्जे के नागरिक हैं, न अलग नसल…’’ हो सकता है शानी कुछ ज्+यादा ही ‘लाउड’ हो, मगर वह ‘फेक’ तो नहीं ही था….हाँ, जटिल और क्लिष्ट जरूर था जो इन अस्वाभाविक स्थितियों में हर कोई हो जाता है…।

-राजेन्द्र यादव