साम्प्रदायिकता के सवाल पर असल में हम बहुत देर से विचार कर रहे हैं। हमारे यहाँ और कुछ और देशों में भी यह समस्या बहुत पहले से अस्तित्व में है। दंगे तो बहुत पहले से हो रहे हैं.कभी मेरठ में, अलीगढ़ में, कभी अहमदाबाद में, भिवंडी में.ऐसा नहीं है कि दंगे अभी होने शुरू हुए हैं। सिर्फ जगहें बदलती रही हैं.दंगे जारी हैं।
पिछले डेढ़ साल से साम्प्रदायिकता की चिन्ता का कारण, जो अचानक की जाने लगी है, कहीं यह तो नहीं है कि अब यह खतरा बहुसंख्यक समाज को भी लपेटे में ले रहा है यह बहुत दिलचस्प और महत्त्वपूर्ण बात है, इस पर गौर जरूरी है। अभी तक कुचले हुए, दबे हुए अपराधबोध से ग्रस्त अल्पसंख्यक एक कोने में पड़े थे.उनके प्रति एक तटस्थ किस्म का उदासीन भाव अपना लिया गया।
पिछले कुछ बरसों में इस देश में एक दूसरी कौम के अल्पसंख्यक लोग कुछ दूसरे कारणों से अचानक हमलावर हो गए। उन्होंने इस समस्या को खतरनाक स्थिति तक पहुँचा दिया। उन्होंने हमारे समाज के समूचे ताने-बाने को नष्ट कर दिया। निश्चय ही मैं इससे सहमत नहीं हूँ। लेकिन जब तक अल्पसंख्यक समुदाय यातना झेलता रहा, इतनी गम्भीरता से इस सवाल पर नहीं सोचा गया। हमसे भूल शायद यहीं हुई।
किसी को भी अपना बाप या अपनी कौम या धर्म चुनने का अधिकार नहीं होता। मुझे भी नहीं था। मैं अपने अनुभव से यह कह सकता हूँ कि अल्पसंख्यक समुदाय में जन्म लेना इस देश में अभिशाप की तरह है। मेरे पिछले पच्चीस बरसों का जीवन निरन्तर प्रताड़ित होते रहने का इतिहास है। मुझे नौकरी से निकाल दिया गया.दूसरे दर्जे का नागरिक बनने पर मजबूर कर दिया गया.यहाँ तक कि साहित्यिक हलकों में भी मुझे दोयम दर्जे की हैसियत ही बख्शी गई। यह अलग बात है कि साहित्यिक फैसले सिर्फ कुछ लोगों की व्यक्तिगत इच्छा से नहीं हुआ करते।
मैं भले ही शानी हूँ लेकिन मैं, गुलशेर खान हूँ,यह बात हर रोज मुझे याद दिलाई जाती है। अल्पसंख्यकों के मन में एक दुविधा, एक ग्रन्थि स्थायी रूप से डाल दी जाती है। मुझे आश्चर्य होता है कि जो जाति पिछले सात सौ बरसों से इस देश में रह रही है, उसके बारे में, दूसरे लोग कितना कम जानते हैं, जानने की कोशिश करते हैं। आज भी इतिहास की किताबों में यही पढ़ाया जाता है कि यह हमलावर और क्रूर जाति है, जिसने अत्याचार किए और मन्दिर तुड़वाए। इसके बारे में किसे सोचने की फुरसत है दो कौमों के बीच की सांस्कृतिक खाई को पाटने की कभी भी ईमानदार कोशिश नहीं हुई। जो सांस्कृतिक अलगाव था.उसे अंग्रेजों ने और चौड़ा किया।
मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि आज भी हमें इस समाज में एक चौथाई ही स्वीकार किया जाता है। यह मामूली बात नहीं है कि हम जिन्हें सर-आँखों पर लेते हैं, उन्हीं के घरों में हमारे जूठे बरतन घास की पूलियों से जलाए जाते हैं। यह बात मैं अपने तजुर्बे से कह रहा हूँ। हमारे प्रगतिशील मित्रों के घरों की भी यही हालत है।
यह भी एक अपमानजनक अहसास ही है कि सिर्फ अल्पसंख्यकों से ही राष्ट्रीयता का सबूत माँगा जाता है। मेरे पास तो एक विकल्प था.पाकिस्तान जाने का। मैं नहीं गया। मैं यह भी जानता हूँ कि हिन्दुस्तान से पाकिस्तान गए मुसलमान भी दुखी हैं। मैं नहीं गया तो किसी पर अहसान नहीं किया। यह हमारी अपनी धरती है। इस धरती में हमारी सात पुश्तों की हड्डियाँ गढ़ी हुई हैं.हम एक-दूसरे की ‘नाजुक’ जगहों को बचाने की कोशिश करते रहे हैं, इससे भी मुक्त होना पड़ेगा। हम कब तक कूड़े को कालीन के नीचे छिपाए रखेंगे। हमें जोखिम उठाकर यहाँ तक कि साम्प्रदायिक होने का खतरा उठाकर भी अपने दिल की बात कहनी चाहिए। उससे ही शायद हमारे दिलों के बोझ हल्के होंगे।
‘नवभारत टाइम्स’ 15 अगस्त, 1987
6 Responses
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March 10th, 2021 at 5:07 am
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March 11th, 2021 at 5:24 am
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March 29th, 2021 at 3:49 pm
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March 30th, 2021 at 9:22 pm
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April 1st, 2021 at 5:53 pm
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