जयंती विशेषः गुलशेर खान शानी; पुस्तक अंश- ‘एक लड़की की डायरी’
‘एक लड़की की डायरी’ के बारे में खुद गुलशेर खान शानी ने कहा था, यह एक कमसिन और जवान लड़की की बहुत व्यक्तिगत और निजी डायरी है, जो मुझे अचानक मिल गई या ईमानदारी से कहूँ तो मैंने जानबूझ कर चुराई है. यह मैंने क्यों किया, इसका उत्तर शायद यह पूरी डायरी पढ़ने के बाद आपको अपने आप मिल जाए. मैंने सही किया या गलत, यह बात बहस की हो सकती है, लेकिन यकीन जानिए, लेखक के नाते मैं बिलकुल मजबूर हो गया था. मैंने इसमें अपनी तरफ’ से कुछ भी बढ़ाया या घटाया नहीं है. केवल लोगों के नाम बदल दिए हैं ताकि किसी को कोई शिकायत न हो और मान-अपमान के मुकदमों से मैं बचा रह सकूँ. डायरी की तारीखों और जगहों के नाम भी यही सोचकर हटा दिए गए हैं. यह इसलिए भी जरूरी था कि सारी डायरी एक लम्बी कहानी की तरह सीधे-सीधे पढ़ी जा सके.
पुस्तक अंशः एक लड़की की डायरी
-शानी
तभी रईस ने हाथ का चाकू़ प्लेट पर झन्न से पटक दिया. वह लहसुन की चार कलियाँ छीलने के बाद, इधर प्याज कतरने बैठी थी, आँखें मलती हुई बोली, ‘भाड़ में जाए ऐसी प्लेजर ट्रिप! घर से बाहर आकर भी अगर धुआँ, प्याज-लहसुन और खाने-खिलाने से छुटकारा न मिला तो बात ही क्या हुई!’
बरतन पर चाकू़ पटकने की आवाज से जरा दूर बैठी हुई मोना चौंकी. वह आग के सामने झुकी कूल्हे उठा-उठा कर फूँकें मार रही थी. वहीं से गर्दन फेरकर पहले वह मुस्कुराई, फिर छेड़ने के अन्दाज में दुष्टतापूर्वक बोली, ‘हाय हाय नाजो बीबी, फर्शे- मखमल से मेरे पाँव छिले जाते हैं. अय, उन कमबख्तों पर अल्लाह की मार, जो तुझ जैसी नाजु़क जान पर कहर तोड़ें. मैं मुँह न नोच लूँ उन नासपीटों का, जो….’
जब-जब छेड़ने की कोई बात होती, मोना ठेठ मुस्लिम बुढ़िया के अन्दाज में ऐसे प्यारे ढंग से बोलियाँ मारती कि कई बार सहना मुश्किल हो जाता.
आखिर्कार एक-दो बार आँखें मलकर रईस ने दुपट्टे का छोर माथे से हटा लिया और घूरती हुई आँखों से मोना की ओर देखने लगी. मुझे लगा, जानो रईस तिलमिला गई है. पर डूबी हुई आँखों सहित भी अचानक वह हँस पड़ी और फिर शिकायतनामा स्वर में नकिया कर बोली, ‘देखो न जी, अब यहाँ आकर भी अगर उसी तरह आँखें फोड़नी पड़ीं तो मतलब ही क्या हुआ आउटिंग का? माटीमिली यहाँ भी वही गुलामी, जिससे छूटने के लिए आबादी से भाग कर वीराने में आए थे. प्लेजर ट्रिप जिनकी होती है, उनकी होती है, अपने लिए तो…’
रईस का संकेत जिन लोगों के लिए था, मोना उसे समझती थी. आरिफ और मल्होत्रा साहब बड़ी देर पहले बन्दूकें लेकर निकल गए थे. अनीस बाजी अन्नू के साथ मन्दिरों और झरने की तस्वीरें खींचने चली गई थीं, अतः ग्रुप में हम तीन जने ही बचे रह गए थे- मोना, रईस और मैं. वैसे रईस भी आरिफ और मल्होत्रा साहब के साथ जाना चाहती थी, लेकिन आरिफ ने ही अपनी ओर से कोई उत्साह नहीं दिखाया. दरअसल, पहले उन दोनों के साथ मोना के जाने की बात थी. मल्होत्रा साहब को कोई आपत्ति भी न थी और आरिफ ने मोना से कई बार आग्रह भी किया था, ‘मिसेज मल्होत्रा, आप भी चलिए न. आखिर यहीं बैठी-बैठी क्या करेंगी?’
‘लीजिए, अब आरिफ मियाँ से सुनिए! भाईजान, आप लोग तो फाख्ते मारने जा रहे हैं. भला सुनूँ तो, मेरा वहाँ क्या काम होगा?’
‘क्यों, ऐसी भी क्या बात है?’ मल्होत्रा ने हँसकर कहा था, ‘जाना चाहो तो काम तुम्हारा भी निकल सकता है और कुछ नहीं तो फाख्ते ही उड़ाना.’
और हँसी-हँसी में यह बात खत्म हो गई थी, लेकिन मोना नहीं गई. एक दलील यह भी रख दी गई थी कि अनीस- अन्नू कैमरा लेकर निकल गए हैं और वे लोग बन्दूकें लेकर जा रहे हैं. सभी चले गए तो काम कौन करेगा और खाने-पीने का क्या होगा? रईस को मोना की बात बिलकुल अच्छी नहीं लगी थी. ‘आउटिंग’ के लिए तीरथगढ़ आकर चूल्हा फूँकने के मूड में वह बिलकुल नहीं थी. स्पष्टतः उसकी इच्छा थी कि वह भी मल्होत्रा साहब आदि के साथ हो ले अथवा ऐसे किसी भी बन्धन से मुक्त होकर वहाँ भटके लेकिन मोना ने स्वयं न जाकर जैसे उसकी राह भी बन्द कर दी थी.
जहाँ तक मेरा सवाल था, सारे ग्रुप में अकेली मैं ही छोटी, कमउम्र और कम-हैसियत थी, अतः मेरी इच्छा-अनिच्छा का उतना महत्त्व न था. बहुत सम्भव है कि मैं अपनी ओर से कुछ कहती, लेकिन बात कही-अनकही न होकर न रह जाए, इस डर से चुप रहना ही मुझे अधिक श्रेयस्कर लगा. यों अनीस बाजी को कन्धे पर कैमरा लटकाए और बेपरवाही से अन्नू के साथ जाते देखकर मुझे कम कोफ्त नहीं हुई थी. एक बार शायद इसीलिए जी भी हुआ कि पुकार कर अधिकार भरे स्वर में कहूँ, ‘अनीस बाजी, जरा जल्दी लौटना. लेकिन फिर अपने आप जबान पर ताला पड़ गया था.
वह हिचक किस बात की थी ? शायद अम्मी की नसीहत याद आ गई थी, शायद अपनी हैसियत का ध्यान हो आया था या शायद अपने ही मन के चोर के पकड़े जाने का भय!
‘मैं तो पहले ही कहती थी,’ रईस पाँव फैला कर बोली, ‘मगर मेरी कोई सुने तब न. हजार बार कहा था कि साथ में टिफिन लेकर चलो. पिकनिक और साइट-सीइंग दोनों का साथ-साथ निभाना मुश्किल है, पर यहाँ तो एक से एक बढ़कर हैं, कहने लगे…’
‘लाओ, रईस आपा,’ मैंने धीरे से हँसते हुए कहा, ‘मैं तो प्याज छील ही रही हूँ. काट-पीट भी लूँगी. अलबत्ता एक काम कर सकती हो तो जरूर कर दो.’
‘क्या ?’ रईस ने मेरी ओर यूँ घूरकर देखा, जैसे मैं उसका अपमान करने जा रही हूँ. थोड़ी देर पहले लहसुन छीलते-छीलते उसने यह कहकर छोड़ दिया था कि उसके नाखून दुखने लगे हैं और मैंने छिली हुई प्याज का बरतन उसकी ओर सरकाया था. तब भी उसने ऐसे ही देखा था. वह तो चाकू़ उठाकर चुपचाप कतरने लगना, शरमा-शरमी का काम था. कुछ तो इसलिए भी कि मोना चूल्हा जलाने के पीछे जी-जान से लगी थी और कुछ-न-कुछ उसे भी करना ही था.
‘लकड़ियाँ कम पड़ेंगी रईस आपा,’ अपने स्वर को सँभालकर बहुत विनम्रतापूर्वक मैं बोली, ‘अन्नू भाईजान से भी मैंने कहा था, लेकिन…’
‘तो क्या मैं लकड़ियाँ चुनने जाऊँ ?’
मैं चुप ही रही. मन में कहा कि और किस काम के लायक रह गई हो! सच्ची बात तो यह है कि बार-बार वह मुहावरा याद आ रहा था, जो अम्मी अकसर कहा करती थीं, ‘मैं रानी, तू रानी, कौन भरेगा पानी?’
शायद कहने के तत्काल बाद रईस को अपनी बात के बेतुकेपन का एहसास हुआ हो, आवाज को नर्म बनाकर उसने पूछा, ‘कहाँ से आएँगी लकड़ियाँ?’
‘और कहाँ से आ सकती हैं?’ मैंने भरसक प्रयत्न यही किया कि शब्दों में जरा भी तल्खी या व्यंग्य न आए, ‘यह इतना सारा जंगल जो फैला है…’
‘हाय!’ अपनी एक-एक इंच चौड़ी आँखें फैलाकर रईस ने ठोड़ी पर उँगली रख ली और उसी नखरीले अन्दाज में बोली, ‘इन जंगलों में मैं अकेली जाऊँगी, वो?’
मैं कुछ कहती या न कहती कि चूल्हे के पास तमक कर आती हुई मोना ने मुझसे कहा, ‘ऐ, है बानू! हरामी, तू तो ज़्यादती ही करने लगी. अरे, ऐसी नाजु़क नान प्याज के पान को जंगल भेजना चाहती है! ऐ, तेरे कुँवारेपन में आग लगे, कुछ तो दिल-दिमाग से काम लिया कर. हम लोगों का क्या! खाई-पिई जान हैं, शेर-बाघ पकड़ भी ले तो कोई अफसोस नहीं, लेकिन रईस… अल्लाह, उसके अधूरे अरमानों का क्या होगा?’
मैं समझती हूँ, मोना का मजाक इस बार रईस को जरूर खल गया होगा. संभालने के बावजूद उसका चेहरा उतरा-उतरा लगने लगा और वह तुनक-भुनक कर रह गई.
‘रईसे आला!’ मोना फिर भी उसी मूड में थी. वह पास जाकर बैठ गई, उसके एक कन्धे पर दोनों हथेलियों का भार देकर अपनी ओर झुकाया और शरारत भरी हल्की-सी मुस्कुराहट के साथ ऐसे पुकारा, जैसे वह कहीं दूर चली गई हो, ‘ओ रईसे आला!’
मोना को मैं अधिक अरसे से नहीं जानती. कठिनाई से छः माह ही बीते होंगे, जब अनीस बाजी से मेल-जोल हुआ था और मल्होत्रा साहब के साथ वह घर आने-जाने लगी थी. ईमान की बात तो यह है कि एक ही भेंट में इस औरत ने मुझे जीत लिया था. जैसे उसे देखने के बाद ही मैंने पहली बार जाना था कि इन्सान में जिन्दगी और खुशदिली किस हद तक हो सकती है. तब से सैंकड़ों बार उसे हर रंग में देखा है, लेकिन याद ही नहीं आता कि उसे कभी और मूड में पाया हो.
‘बानू!’
अचानक मोना की आवाज से मेरे हाथ का चाकू़ एकाएक हिल गया. लज्जा-सी महसूस हुई कि उसने मुझे चौंकते हुए देख न लिया हो. धीरे-से अपनी सहमती आँखें उठार्इं और बिना किसी आश्चर्य के देखा कि रईस बिलकुल बदले हुए मिजाज में मोना के साथ खड़ी है.
‘जरा उधर भी ख्याल रखना भाई,’ मोना ने चूल्हे में गुँगवाती आग की ओर संकेत कर कहा, ‘हम लोग तुम्हारा हुक्म तामील कर आएँ.’
कहकर दोनों पास-पास सटती हुई झाड़ी की ओर निकल गर्इं तो सहसा मुझे मोना की बात का ध्यान आया.
हुक्म की तामील यानी जंगल से लकड़ियाँ चुन लाने का मनहूस काम.
मैं मुस्कुराई. मजाक में ही सही, इस तरह की बातें सुनने में कितनी अच्छी लगती हैं! नाहक भी एक क्षण के लिए छोटेपन का एहसास जाता रहता है और लगता है, जैसे अचानक जी में किसी ने हल्की-सी कंकड़ फेंक दी है और भीतर-भीतर मुस्कुराहट का एक छोटा दायरा बड़ा होता तथा फैलता जा रहा है…खुदाबन्द, मुझे इस औरत की तरह बातें करना कब आएगा?
झाड़ी में समाने से पहले, जब तक एक चट्टान का निकला हुआ कोना आड़े नहीं आ गया, मैं उन दोनों को देखती रह गई. पीछे से हर औरत का शरीर कितना आकर्षक और सुन्दर दिखाई देता है! न रंग बाधक होता है और न नक्श, बस एक कटाव की कशिश होती है, जो शायद काले केशों के इर्द-गिर्द अदृश्य-सी समाई हर पीछे रह जाने वाली आँख को खींचती चलती है.
कम-से-कम मोना को देखकर मुझे यही लगता है. कुछ नहीं, एक औसत कद का, साँवला-साँवला सा रोशनी वाला चेहरा, जिसमें केवल नोक ही नोक दिखाई पड़ती है. सामने से यदि वह सुन्दर थी तो पीछे से गजब होने का एहसास होता था. सोचती हूँ कि ऐसी देह मिलने के बाद शायद चेहरे का महत्त्व गौण हो जाता होगा. साँवले तथा चिकने माँस की तराशी हुई-सी पिछली गरदन, जो हल्के-हल्के रोमों में दीखती है, कसाव के कारण पीठ की उभरी हुई माँसपेशियाँ और…
जब वे दोनों छुप गर्इं तो कुछ देर बाद मैंने फिर से चाकू़ उठाया. एक पूरी प्याज भी न कतरी गई होगी कि उसके भभके आँखों में समाने लगे. उसे छोड़-छाड़ कर मैं छिलके उतारने बैठी तो घड़ी भर बाद ऊब पैदा हो गई. हारकर अन्त में उठी और चाहा कि मोना का कहा भी रख लूँ, पर खड़ी होते ही अचानक अकेलेपन के एहसास ने बुरी तरह जकड़ लिया.
जैसे पहली बार मुझे ध्यान आया कि हम लोग तीरथगढ़ प्रपात के नीचे ऊपरी धरातल से लगभग डेढ़ सौ फीट गहरे उतर आए हैं.
वहाँ मैं किस कदर अकेली और असहाय थी! चारों ओर बीसियों फीट ऊँची, बेहद ऊँची और काली चट्टानों का वह भयावह गोल घेरा और उन पथरीले जबड़ों से घिरी, कुएँ के तल में पड़े एक नन्हें से जीव की तरह निपट नाकारा और व्यर्थ होती मैं! तीरथगढ़ प्रपात का सारा दृश्य-सौन्दर्य, जो कुछ देर पहले सचेतन था, अचानक जड़ और निर्मम लगने लगा. हर चट्टान की ऊपरी कलगियों से नीचे की ओर झूलती असंख्य लम्बी-लम्बी जड़ें और बीच-बीच में बेतरतीबी से उग आए पेड़ों की लटकती-झूमती डालियाँ. दूर-दूर तक न कोई आदमी, न आदमजाद. यहाँ से वहाँ तक पाँव पसार कर लेटी हुई दोपहरी की घड़ी भर बाद की धूप, उसमें चमकते हुए प्रपात की उजली-उजली-सी कौंध और एक-दो भटके-थके कौओं के स्वर में अनवरत गूँजी जाती प्रपात की आवाज!
उस सारे वातावरण का ऐसा आतंक मुझ पर छा गया कि मैं रो न पड़ी, यही गनीमत समझी. लग रहा था जैसे अनीस बाजी, मल्होत्रा साहब और रईस आदि सब मुझे एक अन्धे गार में उतारकर चले गए हैं और अभाग्य का गिद्ध अपने डैने फैलाए अकेले मुझ पर मँडरा रहा है. जाने वह किस क्षण उतर आए…जाने कौन-सा पल क्या लेकर मेरे सामने ठिठक जाए!
मैं जोर से चीखना चाहती थी, लेकिन आवाज हलक में ही फँसकर रह गई. अपनी आँखें मैंने कसकर मूँद लीं और कुछ दूर के मन्दिर वाले टीले पर बेतहाशा दौड़ती चली गई. फिर थोड़ी देर बाद पाया कि मैं बुरी तरह हाँफ रही हूँ. टीले पर जरूर पहुँच गई हूँ, सामने का पुराना मन्दिर भी खड़ा है, लेकिन इस कोशिश में पाँवों, कोहनियों और शरीर की दुर्गति हो गई है, ढेरों फाँस और छोटे- छोटे काँटे कपड़ों में जगह-बेजगह चुभ रहे थे.
चाहकर भी मुझे अपने हाथ-पाँव हिलाने का साहस नहीं हुआ. मैं जहाँ पहुँची थी, वहीं ढेर होकर रह गई. फिर कितनी देर उस स्थिति में पड़ी रही, यह स्मरण नहीं है. जब नीचे से मोना और रईस की बातें करने और हँसने की आहट मिली, तब शायद चेतना लौटी और जब तक मोना ने मेरे नाम गालियाँ देनी शुरू न कर दीं, मैं वहाँ से नहीं उठी.
पर उठने के साथ ही जैसे एक चमत्कार हो गया.
देखा कि मुझसे थोड़ी दूर के फासले पर मन्दिर तथा पेड़ के ढलते साये में जो लोग बेपरवाही से समाए हुए हैं, वे अनीस बाजी और अन्नू ही हैं.
कई क्षण खड़ी-खड़ी मैं उन दोनों को देखती रही. मुझ पर क्या प्रतिक्रिया हुई, यह शायद मैं भी नहीं जानती. इतना ही जाना कि मेरा जी जोर-जोर से धड़कने लगा है, हलक में मछली का काँटा जैसा कुछ लगातार चुभ रहा है. गाल तमतमा आए हैं और कनपटी की नसें तड़-तड़ बज रही हैं.
बिना कोई शोर-आहट किए मैं चुपचाप वहाँ से उतर आई, हालाँकि नीचे उतरने तक मेरी टाँगें काँपती रहीं और अपनी कनपटियों का बजना मुझे बराबर महसूस होता रहा.
‘कहाँ चली गई थी बन्नो रानी?’ मोना ने अपने उसी अन्दाज में मेरा स्वागत किया.
‘कहीं नहीं,’ मैं धीरे-से मुस्करा कर बोली, ‘यूँ ही जरा…’
आगे का संकेत स्पष्ट था, अतः मेरा ख्याल था कि मोना चुप हो जाएगी. दरअसल अपने डर जाने की बात कहते हुए मुझे ओछेपन का एहसास हो रहा था. मैंने वहीं से तय कर लिया था कि कोई बहाना बताकर असली बात छिपा जाऊँगी, पर मेरा अनुमान गलत निकला. प्यार से डाँटते हुए मोना ने गाली दी, ‘आग तो मिट्टी हो रही है हरामी! और यह खाने-पीने का सामान फैलाकर क्या कौओं की दावत कर रही है?’
सचमुच मेरी थोड़ी देर की गै़रहाजिरी ने खाने-पीने के कई सामानों का सत्यानाश कर दिया था. अगर मोना और रईस थोड़ी देर और न पहुँचतीं तो शायद खाना बनाने की सम्भावना ही जाती रहती. मैं अपराधी नजरों से चुपचाप बिखरे हुए प्याज और लहसुन के टुकड़ों को देखने लगी.
‘और हम लोग अगर थोड़ी देर न आते तो?’ सहसा रईस चिल्लाई, ‘तूने तो जूते खाने की ही नौबत ला दी थी. यह सब क्या अपने खसम के जिम्मे छोड़ गई थी?’
झिड़की मोना ने भी दी थी, लेकिन दोनों के लहजे़ में कितना अन्तर था! मुझे रईस की बात कतई अच्छी नहीं लगी. वैसे भी मन-ही-मन मैं अपनी थोड़ी देर पहले की स्थिति के लिए रईस को ही दोषी समझ रही थी. उसके खसम वाले ताने से और भी गु़स्सा आया, पर तिलमिलाहट को पीकर मैं धीरे से मुस्कुराती हुई बोली, ‘वह तो अभी तक नहीं है रईस आपा!’
‘नहीं है, तो बना ले.’
‘किसे बनाऊँ?’ मैंने भी उसी टोन में जवाब दिया, ‘शायद उसका वक्त अभी नहीं आया आपा!’
‘क्या उसी की मुराद लेकर मन्दिर गई थी?’ मोना हँसने लगी.
‘हाँ,’ मैं भी हँसकर बोली, ‘मगर मन्दिर के पट पर ताला पड़ा है. भगवान नहीं मिले.’
मजाक करने वाले ही मजाक सहते हैं. मैंने देखा कि मोना उस बात पर बहुत उन्मुक्त होकर हँसी, जबकि रईस के चेहरे पर खिझलाहट का भाव साफ तैर आया था.
‘आओ मोना,’ एक क्षण ठहरकर रईस बोली, ‘मरना तो हमें-तुम्हें ही है.’
और छोटी-बड़ी लकड़ियाँ तथा बाँस के टुकड़े समेटकर वह ठण्डी आग की ओर बढ़ी.
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