शानी का आज न जन्मदिवस है और न ही उनकी पुण्यतिथि, पर पिछले कुछ दिनों से उनका ‘काला जल’ जैसा खूबसूरत उपन्यास और ‘युद्ध’ जैसी खूबसूरत कहानी, मध्यप्रदेश साहित्य परिषद को स्थापित करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका, मध्य प्रदेश साहित्य परिषद के शुरुआती दौर में ही एक महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका ‘साक्षात्कार’ निकालने का उनका साहसिक निर्णय, अनेक दुर्लभ साहित्यिक आयोजनों को मध्यप्रदेश के विभिन्न नगरों में सफलतापूर्वक आयोजित करने का उनका उपक्रम मुझे याद आ रहें हैं। शानी को भूला पाना मेरे लिए मुश्किल है।
निम्न मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज की त्रासदी, जीवन संघर्ष और स्वप्न को लेकर तथा जगदलपुर की पृष्ठभूमि को केंद्र में रख कर लिखा गया उनका अप्रतिम उपन्यास ‘काला जल’ हिंदी साहित्य की एक ऐसी बहुमूल्य कृति है, जिसके बिना हिंदी उपन्यास का इतिहास लिखा जाना कभी संभव नहीं होगा।
छत्तीसगढ़ राज्य का दुर्भाग्य है कि इस कालजयी उपन्यास ‘काला जल’ को राज्य के किसी भी विश्वविद्यालय ने हिंदी पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने की कभी कोई कोशिश ही नहीं की।
सरकार ने भी बीते 22 वर्षों में शानी को कभी याद करने की कोशिश नहीं की। अब जो अकादेमियां बनी हैं उन्हें अभी दिल्ली के तथाकथित कलाचार्यों से फुर्सत नहीं मिल पा रही है। शानी जैसे दुर्लभ और महान लेखक उनकी सूची में शायद शामिल भी नहीं है। फिलहाल उन्हें दोस्ती-यारी और रिश्तेदारों से फुर्सत नहीं है।
शानी ने जिस तरह मध्यप्रदेश साहित्य परिषद से ‘साक्षात्कार’ जैसी एक महत्वपूर्ण पत्रिका का संपादन किया ठीक उसी तरह उन्होंने साहित्य अकादेमी दिल्ली से ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ जैसी एक महत्वपूर्ण पत्रिका का संपादन प्रकाशन प्रारंभ किया और उसे देखते ही देखते देश भर में ‘साक्षात्कार’ जैसी एक महत्वपूर्ण पत्रिका बना दिया। शानी ही ऐसा संभव कर सकते थे। वे सचमुच प्रतिभाशाली रचनाकार थे। छत्तीसगढ़ में बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उनके जैसा विलक्षण साहित्यकार कम ही हुए हैं।
शानी से रायपुर में मेरी तीन चार बार मुलाकातें हुई हैं। तेज-तर्रार और बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहने वाले वे उन लोगों में से थे, जिन्हे किसी की परवाह नहीं, विष्णु खरे की तरह, इसलिए उनमें आपस में पटती भी बहुत थी। विष्णु खरे उनके निकट के मित्रों में से एक थे।
बहरहाल रायपुर में मैंने पहली बार उन्हें मध्यप्रदेश साहित्य परिषद द्वारा आयोजित कबीर समारोह में देखा था। जय स्तंभ स्थित नगर निगम के सभागृह में यह समारोह आयोजित किया गया था।
शारदा प्रसाद तिवारी उन दिनों वहां कमिश्नर के पद पर विराजमान थे। वे अद्भुत प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे जिनकी साहित्य और संस्कृति में गंभीर रुचि थी। तब रायपुर नगर निगम रायपुर में साहित्य और संस्कृति का केंद्र बिंदु हुआ करता था।
डॉ. नामवर सिंह, अज्ञेय, श्रीकांत वर्मा को वहीं मैंने पहले-पहल देखा और सुना था।
हां रायपुर में शानी द्वारा आयोजित कबीर समारोह में त्रिलोचन शास्त्री और हरिशंकर परसाई को मुझे पहली बार देखने और सुनने का सौभाग्य मिला। संभवत यह 1972 या 1973 की बात होगी। मैं स्वयं बीस या इक्कीस वर्ष का रहा होऊंगा।
इस समारोह के एक सत्र का संचालन शानी स्वयं कर रहे थे। उन्होंने त्रिलोचन शास्त्री के बोलने के बाद निरंजन महावर को बोलने के लिए आमंत्रित किया, तो निरंजन महावर ने शानी को घेरने के लिए कह दिया कि वामपंथी त्रिलोचन शास्त्री को उन्होंने पंडित त्रिलोचन शास्त्री कहकर संबोधित किया है। शानी ने तुरंत माइक अपनी ओर खींचते हुए कहा पंडित शब्द का प्रयोग विद्वान और ज्ञानी लोगों के लिए किया जाता है जैसे पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी मेरा आशय यही था बाकी निरंजन महावर जैसे लोग इसका जैसा चाहें अर्थ लगा सकते हैं।
पूरे सभागृह में सन्नाटा खींच गया था। निरंजन महावर झेंप गए थे।
बाद में मेरी दो मुलाकातें देशबंधु के लोकप्रिय पत्रकार हम सबके ‘दा’ पंडित राज नारायण मिश्र के साथ हुई। वही तुर्शी ,वही सब कुछ अस्वीकार करने का साहस, वही एक बेहद सजग और आत्मस्वाभिमानी लेखक का दंभ मैंने शानी में देखा था।
उन दिनों कमलेश्वर द्वारा संपादित ‘सारिका’ में ‘गर्दिश के दिन’ नामक एक स्तंभ प्रकाशित होता था । इस स्तंभ के लिए कमलेश्वर ने शानी को भी उनके जीवन और गर्दिश के दिनों को लेकर लिखवाया था । उस स्तंभ के मार्फत मैं शानी के जीवन के संघर्ष और उनके मुस्लिम होने के कारण एक बहुसंख्यक हिन्दू समाज में होने की पीड़ा को जो दुर्भाग्य से तब भी उतना ही संकीर्ण रहा है, उनकी बेचैनी और आक्रोश को समझ पाया था।
शानी जैसे लेखक हिंदी साहित्य और इस राज्य की अनमोल विरासत हैं। उन्हें खूब याद किया जाना चाहिए। जगदलपुर में उनकी स्मृति में कुछ बेहतर किया जाना चाहिए।
रमेश अनुपम
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