स्वाभिमान, ज़िंदादिली और रचनात्मक तेजस्विता का दूसरा नाम है शानी यानी गुलशेर ख़ान। शानी का जन्म 16 मई 1933 को जगदलपुर बस्तर में हुआ। कहने को बस्तर उस समय एक रियासत थी लेकिन आवागमन की सुविधाओं से वंचित होने के कारण ये जगह शानी की रचनाशीलता के लिए अनुकूल नहीं थी और उन्हें ‘बैक वाटर्स’ में रहन का एहसास बराबर बना रहता था। ऐसे वातावरण में गुलशेर ख़ान से शानी के रुप में उनका व्यक्तित्वांतरण अपने आप में एक मिसाली हैसियत रखता है। तमाम ना साज़गार हालात के बावजूद उन्होने जगदलपुर में लेखन को संभव बनाया और अपनी कथा-रचनाओं में यहां के परिवेश को जीवंत कर दिया।
उनकी पेशतर श्रेष्ठ कहानियों, अपने शाहकार “कालाजल” और बेमिसाल कृति ‘शालवनों का द्वीप’ की ज़मीनें जगदलपुर में ही मौजूद हैं। शानी की तालीमी तरबियत एक स्थानीय मदरसे से शुरु हुई। यहां से जल्द ही जी ऊब गया। फिर मुख्यधारा की औपचारिक शिक्षा की तरफ ध्यान गया और आठवी कक्षा में पढ़ते हुए और बग़ैर किसी मार्ग दर्शन के कहानी लिखना शुरु कर दिया। बाद में लाला जगदलरपुरी ने उन्हें प्रोत्साहित किया। साहित्यिक अभिरुचि के ये आलम था कि मैट्रिक में पढ़ते हुए ‘ज्ञानदीप’ नामक एक हस्तलिखित पत्रिका भी उन्होंने जारी कर दी थी। पारिवारिक बिखराव के कारण मैट्रिक के बाद ही उन्हें म्यूनिसपिलिटी में नौकरी करनी पड़ी। जब जगदलपुर में मध्यप्रदेश सूचना विभाग का दफ़्तर खुला तो यहां सरकारी नौकरी में आ गये।
अब तक उनकी कहांनियां पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी थी। लेकिन 1957 के ‘कहानी’ पत्रिका के विशेषांक में एक कहानी के प्रकाशित होते ही नई कहानी के रचनाकारों के साथ उनका नाम सम्मानपूर्वक लिया जाने लगा। मध्यप्रदेश सूचना विभाग की नौकरी में उनका तबादला जगदलपुर से ग्वालियर हुआ। वहां सांप्रदायिक फ़िज़ा के कारण ग्वालियर उन्हें रास नहीं आया। भोपाल तबादले पर आ गये। 1972 में म.प्र. साहित्य परिषद के सचिव नियुक्त हुए। परिषद की ओर से ‘साक्षात्कार’ पत्रिका का
प्रकाशन शुरु किया। सांप्रदायिक शक्तियां परिषद में किए गए उनके रचनात्मक कार्यों को बर्दाश्त नहीं कर पाईं। लिहाज़ा 1978 में परिषद छोड़कर दिल्ली की राह ली। यहां कुछ समय नवभारत टाइम्स के रविवार्ता का संपादन किया। केंद्रिय साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ के संपादक बने। यहीं से 1991 में उनकी सेवा निवृत्ति हुई।
1993-94 में उन्होंने ‘कहानी’ पत्रिका के पुन: प्रकाशन के प्रवेशांक का संपादन किया। कैंसर और गुर्दे जैसी बीमारियों के रहते हुए शानी में अदभुत जिजीविषा बनी रही। आख़िरकार इन बीमारियों से जूझते हुए हिंदी का यह अद्वितीय कथाकार 10 फ़रवरी 1995 को सदा-सदा के लिए हमसे जुदा हो गया।