‘जहाँपनाह जंगल ‘ के दरख्तों की शिनाख़्त करता जगदलपुर के आदिवासी इलाक़े से निकला एक लेखक दिल्ली आते ही अपने ख़ुद की ख़ुद्दारी की बदौलत दिल्ली को उलझन में डाल देता है। ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर के उसूल पर जमा यह शख्स गुलशेर खां शानी ही हैं। शानी जी जब दिल्ली आते हैं उसके पहले उनका साहित्य, उनकी पत्रकारिता दिल्ली की मेज़ो पर ज़ेरे बहस हो चुकी थी। लेकिन दिल्ली यह नही समझ पा रहा था कि यह शख्स जो बेलौस ठहाका लगता है और मुह में चुरुट डाले जिस किसी पर नज़र डालता है, उसे यह यह वहम होने लगता है कि कहीं शानी हमारी असलियत तो नही खोलने जा रहा, गो यह शानी जी की अपनी अलग के अदा रही।
शानी जी से हमारी मुलाकात विष्णु खरे जी के मार्फ़त हुई और जब शानी जी से परिवार मयूर विहार रहने आ गए तो हम उस परिवार के मेम्बर बन गए। शानी जी का घर दस्तरख़ान में तब्दील हो गया और आये दिन उस दस्तरखान पर लोग जमने लगे। साहित्यकार, पत्रकार ,रंगमंच ,सिनेमा गरज यह कि हर बिरादरी के लिए दस्तरखान खुला रहा।
काला जल के लेखक शानी जी का एक स्केच हमने बनाया था शायद फ़ीरोज़ के पास हो। (अगर इसे पढ़ रहे हो फ़ीरोज़ तो उसे यहां लगा देना )
शानी जी गए जरूर लेकिन बहुत सारी चीजें यहीं छोड़ गए हैं उसमें से एक कलम भी है।
आपके लोग आपको भूलेंगे नही शानी जी।
चंचल
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