कवि, आलोचक, रचनाकर्मी अशोक वाजपेयी जी इस वर्ष 16 जनवरी को अस्सी साल के हो गए। इस मौक़े पर आठ अगस्त 2021 को शानी फ़ाउंडेशन ने ‘अशोक वाजपेयी का रचना संसार’ विषय पर एक वेबिनार का आयोजन जिसमें कवि ध्रुव शुक्ल, आलोचक और कवयित्री सविता सिंह, चित्रकार मनीष पुष्कले औऱ आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने हिस्सा लिया। चर्चा का संचालन युवा कवि और रंगकर्मी व्योमेश शुक्ल ने किया।
व्योमेश शुक्ल- औपचारिक कला की शिक्षा से वंचित लेकिन अपनी जिज्ञासाओं में बहुत उस्साही किसी नौजवान रचनाकार के लिये भारत भवन जैसी संस्था का दरवाज़ा अस्सी के दशक की शुरुआत में खुला था… भारत भवन बहुलता का केंद्र बना..भारत भवन हम जैसे लोगों की उपस्थिति को मतलब देने के काम आया…तकनीकी वजह से बातचीत बीच में ठिठक गई थी लेकिन और हम सब दुबारा जुड़ सके हैं और मनीष जी को दुबारा आमंत्रित करता हूं।
मनीष पुष्कले- मैं यहां से बात शुरु करना चाहता हूं कि जिस तरह से हम भारत भवन को याद करते है और अशोक जी के संदर्भ में, उनकी दूसरी संस्थाओं को भी याद करें जैसे कि जब वह ललित कला अकादमी के चैयरमैन हुए तो एक बहुत बड़ी घटना घटी…ये पहली बार हुआ कि ‘वेनिस बिनाले’ में उन्होंने भारतीय पवैलियन को एनाउंस किया…एनाउंस क्या किया, उन्होंने शासन-प्रशासन से संघर्ष करते हुए उन्हें मनाया कि वहां आज तक भारतीय पवैलियन क्यों नहीं है और ये पवैलियन पहली बार जोकि चित्रकला की या दृश्यकलाओं की सबसे बड़ी एक्टिविटी या एक्ज़ीबीशन मानी जाती है, उसमें पहली बार भारत की भागीदारी हो सकी….उन्होंने रंजीत घोसखोटे को आमंत्रित किया उसे क्यूरेट करने के लिये और उसके बाद भारतीय कलाकारों के लिये एक बहुत बड़ा रास्ता ‘वेनिस बिनाले’ के ज़रिये खुला जिसका परिणाम और प्रभाव हम अभी भी देखते हैं…हालंकि इस बार हम फिर उसमें भारतीय पवैलियन पाने से चूक गये….ऐसे उपक्रमों के लिये आपको हर बार नये सिरे से संघर्ष करना पड़ता है…संघर्ष के रास्ते को चुनने वाले लोग धीरे धीरे छींछते जा रहे हैं, क्षीण होते जा रहे हैं…ख़त्म होते जा रहे हैं…अशोक जी उन लोगों में से हैं जो चित्रकारों के लिये खड़े हुए…एक और उदाहरण मैं देना चाहूगा कि गुगेनहाई म्यूज़ियम में 2014 गायतोंडे की एक बहुत बड़ी प्रदर्शनी हुई…ये पहला अवसर था जब गायतोंडे का इतना बड़ा रिट्रॉस्पेक्टिव शो विदेश में कहीं होने वाला था, अशोक जी ने ख़ुद मुझे बताया जब अरुण वडेरा ने उन्हें आमंत्रित किया कि आप इस एक्ज़ीबीशन को क्यूरेट कीजिये तो अशोक जी ने उस एक्ज़ीबीशन को क्यूरेट करने से मना कर दिया। उनका ये कहना था कि चित्रों के प्रति मेरी आसक्ति है लेकिन ये क्यूरेशन का मामला मेरा नहीं है…मैं इसको क्यूरेट नहीं करुंगा। मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि अगर किसी औऱ के सामने ये अवसर आया होता तो ये मौक़ा नहीं छोड़ता। ये जो दो उदाहरण हैं, मुझे लगता है कि चित्रकला की दुनियां में बहुत महत्वपूर्ण उदाहरण हैं…एक उदाहरण जिसमें वह ‘वेनिस बिनाले’ में एक प्रदर्शनी करने के लिये पूरे सिस्टम से लड़ते हैं और उसको करते हैं और दूसरा उदाहरण जिसमें उनके सामने एक प्रदर्शनी को आयोजित करने का अवसर है और वो उसे मना कर देते हैं…ये जो हां करने और ना करने के बीच में उनकी उपस्थिति है, ये अशोक जी को हमारी चित्रकाल की दुनियां बहुत अलग बनाती है।
हम सीधे-सीधे तौर पर ये भी नहीं कह सकते कि वो आर्ट क्रिटिक हैं जैसे कि आर्ट क्रिटिक होते हैं…हम जैसे ही उन्हें आर्ट क्रिटिक की दृष्टि से देखते हैं, तो वहां एक कवि भी होता है, हम जैसे ही उन्हें आर्ट क्रिटिक और कवि की दृष्टि से देखते हैं तो वहां एक तीसरा व्यक्ति भी होता है जो एक संस्था निर्माता भी है। हम जब इन सबसे अलग उनको देखते हैं तो वहां युवाओं से जुड़ा एक कवि भी है और दूसरी तरफ़ रज़ा जैसे एक वरिष्ठ चित्रकार और युवाओं के बीच एक कड़ी बन जाते हैं। अशोक जी का ये जो बहुआयामी व्यक्तित्व है वो साहित्य संसार में भी उतना घनत्व लिये हुए है जितना कि चित्रकला के संसार में। आज बहुत सारे ऐसे आर्ट क्रिटिक हैं जो अपने नैरेटिव को जिस तरह से पॉलिश करने की कोशिश करते हैं, उनमें मैं देख रहा हूं कि धीरे धीरे ये आ रहा है कि अन्य कलाओं को भी और अन्य परिसरों से भी संवादों को लिया जाय, कैसे उन्हें समृद्ध किया जाय। कहीं न कहीं इसकी भूमिका एक बड़े पैमाने पर अशोक जी ने बनाई है। अब अगर उस भूमिका को लेकर कुछ लोग प्रेरित होते हैं तो ये एक बड़ी बात है और बहुत बड़ी महत्वपूर्ण बात है।
व्योमेश जी एक दूसरी जो आपने पहले के वक्तव्य में 20वीं सदी की बात कही थी। मैं दो उदाहरण ज़रुर देना चाहूंगा….एक तरफ़ गुरु रवींद्रनाथ टैगोर और तो दूसरी तरफ़ अशोक जी….ये संबंध को स्थापित करने की मैं कोशिश इसलिये कर रहा हूं क्योंकि ये दोनों कवि हैं अलग अलग समय के और शताब्दी के एक बड़े अंतराल में ब्रेकेट की तरह खड़े हुए हैं….उसमें एक स्वयं चित्र बनाता है लेकिन एक वो है जो चित्र के प्रति अपनी आसक्ति रखता है लेकिन चित्रकार नहीं है…चित्रकारों के हितैषी हैं, वो चित्रकारों के संरक्षक हैं लेकिन स्वयं चित्र नहीं बनाते हैं। ये जो रिलेशन क्रिएट हो रहा है बिटविन ए राइटर एंड पेंटर…पश्चिम में तो ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं जहां डेलाक्वा, बॉद्लेयर, रोदां, रिल्के, रॉजर फ़्राय या वर्जीनिया वुल्फ़ या पिकासो और आइंस्टाइन…इस तरह के कई लोग पश्चिम से तो आते हैं लेकिन अशोक जी और रज़ा साहब के संदर्भ से हमारे यहां भी एक उदाहरण बनता है जो युवाओं के लिये प्रेरणा का कारण बनता है कि इस तरह से संबंध बन सकते हैं कि जब आप एक चित्रकार के साथ अपना नैरेटिव क्रिएट करते हैं और जो एक ज़रुरत भी है। कुल मिलाकार हम एक बड़े देश से आते हैं…असम में कुछ अलग तरह के लोग हैं…कुछ अलग तरह की कलाएं हैं…गुजरात में अलग हैं…अभी तक जो बंगाल और बड़ौदा के बीच जो नैरेटिव बना हुआ था चित्रकला के क्षेत्र में, उसके बीच में यहां भारत भवन की भूमिका बहुत अलग हो जाती है क्योंकि वह केंद्र बनता है और वो ऐसा केंद्र बनता है जहां से अमूर्तन फलता फूलता है। अशोक जी के बारे में कहा जाता है कि वह केंद्र में रहते हैं….वह केंद्र में इसलिये रहते हैं क्योंकि वह केंद्रो की निर्मति करते हैं और ये बड़ी बात है।
व्योमेश शुक्ल- आपने अंतर्दृष्टियों से भरापुरा वक्तव्य दिया। सारी बातें ख़ासकर 20वीं सदी के दो सिरों पर रवींद्रनाथ टैगोर और अशोक जी की उपस्थिति का बतौर कवि, बतौर कलाकार जो आपने रुपक प्रस्तावित किया है, मेरे ख़्याल से वो इस बातचीत के अंत तक बना रहेगा और उसको संबोधित करते हुए हमारे दूसरे वक्ता भी आगे बढ़ेंगे। ये बातचीत ओपन एंडेड है, हमको कुछ स्टेबलिश नहीं करना है। अशोक जी को लेकर बहुत सारी बातें पहले से ही स्टेबलिश हैं। वे बहुत सारे लोगों के मित्र और उनसे भी ज़्यादा लोगों के शत्रु हैं….ख़ासकर इस समय। ये चीज़ें, ये दुनियादारी, ये व्यावहारिकताएं मूल्यांकन में बाधाएं ही प्रस्तुत करती हैं, समारोह में भी अड़ंगा डालती हैं। लेकिन अशोक जी का जो कवि व्यक्तित्व है…बीते प्राय: 25 सालों से उस पर सतर्क और बहुत सावधान निगाह रखने वाले आलोचक, हमारे कवि और कविता के इनसाइडर पंकज चतुर्वेदी जी हमारे बीच हैं। उन्होंने अशोक जी के साथ संवाद करते हुए, उनसे सहमत, असहमत होते हुए उनकी कविताओं के साथ डायलॉग करते हुए बहुत कुछ किया है।
पंकज चतुर्वेदी- अभी मनीष जी जो कह रहे थे कि अशोक जी कवि हैं, आर्ट क्रिटिक हैं और संस्था निर्माता हैं और हम लोगों के लिये तो आलोचक भी हैं, तो एक बहुआयामी और संशलिष्ट व्यक्तित्व है उनका हिंदी के लिये और हिंदी के लिये बहुत आत्मीय और अधिक लोकप्रिय होता हुआ व्यक्तित्व है….अपने सार्वजनिक साहित्य और सांस्कृतिक जीवन के पूर्वार्ध में वह मेरिट को लेकर बहुत सजग थे और बाद में 10-15 वर्षों में सबकी आवाज़ों को सुनने की लोकतांत्रिकता उनके व्यक्तित्व में आई है…मैंने एक बार उनसे कहा भी था कि उन्होंने मेरिट की बजाय सर्वजन्य हिताय सर्वजन्य सुखाय एक साहित्यिक-सांस्कृतिक उपक्रम चला रहे है जो अच्छी बात है इससे उनका लोकप्रियता बढ़ी है।
मुझे एक इंटरव्यू याद आ रहा था जो पूर्वग्रह के लिये उन्होने मंगलेश डबराल के साथ रघुवीर सहाय का लिया था। उस समय रघुवीर सहाय अपनी कविता या रचनात्मकता यात्रा के शीर्ष पर थे और ‘हंसो हंसो जल्दी हंसों’ नामक उनका संग्रह प्रकाशित हो चुका था……ये उसके ठीक बाद का वो इंटरव्यू है…इसके बाद वे भोपाल आए थे और इन लोगों ने उस अग्रज कवि का एक यादगार साक्षात्कार लिया था….उसमें वो सवाल करते हैं शायद अशोक जी ही करते हैं कि आपका ‘सीढ़ियों पर धूप’ संग्रह था, उसमें जीवन के कुछ सजल चित्र थे, केंद्रियता थी….सुख के बिंदू थे….वग़ैरह वग़ैरह…..लेकिन ये जो ‘हंसो हंसो जल्दी हंसो’ में केवल दहशत है, यातना है तो आपकी कविता में ये परिवर्तन आया। उसका उस समय रघुवीर सहाय ने जो जवाब दिया था कि जब आप काम करना शुरु करते हैं तो उसके कुछ वर्षों बाद आपको एहसास होता है कि कुछ ताक़तें हैं जो आपको वो काम करने नहीं दे रहीं हैं जो आप करना चाहते हैं, उन ताक़तों ने आपको घेर रखा है…उन्हें प्रतिगामी ताक़तें कह सकते हैं या कोई भी नाम दे सकते हैं लेकिन वो आपको आपका काम नहीं करने दे रही हैं….आपके रास्तो को उन्होंने रोक लिया है…आपको मेहसूस होता कि आप चारों ओर से घिर गये हैं और एक विफलता का एहसास…ट्रेजडी का एहसास…एक दहशत का होना स्वाभाविक है…और फिर वह कहते हैं कि अगर आपको दहशत मेहसूस नहीं होती, विफलता मेहसूस नहीं होती तो इसके तीन ही मतलब हैं…पहला आपको ज़िंदगी का पर्याप्त तर्जुबा प्राप्त नहीं है, दूसरा ये कि जीवन से आपको अभी भी बहुत उम्मीदें हैं और तीसरा मतलब ये है कि आप बहुत ताक़तवर आदमी हैं इसलिये आपको विफलता और दहशत का एहसास नहीं हो पा रहा है।
अब आप कविता देखिये अशोक जी की जो उन्होंने इधर लिखी है पिछले 10-15 वर्षों में, अलग अलग उदाहरण क्या दूं. उसमें एक एहसास भी है और वो बार बार कहते भी हैं कि जो सपना हमने देखा था, जिस समाज का, संस्कृति का, साहित्य का, कविता का भी…और कविता के लिये समाज में हमने जो वातावरण बनाना चाहा था, वो उनकी कविता को पढ़ते हुए लगता है कि वो सपनों का शिराजा बिखर गया है…वहां आपको विफलता का अवसाद मिलेगा और इसको वो स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं करते, हिचकते नहीं है और स्वीकार करते हैं कि जो समाज हम बनाने चले थे वो बना नहीं पाए…वो सपना बिखर गया है और ये बात उन्होंने तैरह साल पहले उज्जैन में उन पर केंद्रित एक सेमीनार में कही थी जिसमें मैं भी गया था…उसमें कहा था होने का अवसाद ग़ालिब की तरह…मैं इसमें अपनी तरफ से थोड़ा सा संशोधन करते हुए मानता हूं कि जैसे अशोक जी होने का अवसाद देखते हैं और उसे कारणों से स्वायत्त करते हैं तो इससे मैं सहमत नहीं हूं, मेरा मानना है कि ये एक सपने के विफल होने का अवसाद है नंबर एक और दूसरी बात ये है कि वो जीवनासक्ति के कवि हैं..आप उनके पूरे रचनात्मक सफ़र को देखें तो मेरा तो मानना है कि हर कविता एक प्रेम कविता है, केवल वो कविताएं प्रेम कविताएं नहीं हैं जो प्रेम कविता के नाम से विज्ञापित हैं बल्कि वो कविताएं भी जो सीधे सीधे प्रेम पर नहीं लिखी गईं हैं, वो कविताएं भी मेरे लिये प्रेम कविताएं हैं क्योंकि वे कविता मात्र जो है वो इस सृष्टि से बुनियादी लगाव के बग़ैर संभव नहीं है।
अशोक जी इस संसार से, इस सृष्टि से, इस जीवन से संसक्त के कवि हैं और उनके यहां जो विशाद है वो प्रेम की असंभवता का विशाद है…उसके अनगिनत शैड़्स उनकी कविताओं में मिलेंगे कि वो प्रेम जोकि जीवन की सार्थकता ,है जैसा कि वो मानते हैं और जिसके बिना जीवन व्यर्थ है, तो स्वाभाविक है कि एक तरफ़ उनकी कविता प्रेम की असंभवता और विशाद की कविता है और दूसरी तरफ़ जिस संस्कृति का सपना देखा गया था, जिस समाज के संस्कृति के, समाज के, कविता के निर्माण का सपना देखा गया था, आज को जो हालात हैं, आज जो फ़ासिस्ट हुक़ूमत है और समाज की जो परिस्थितियां हैं उनके बीचों बीच आकर वो सपना टूट गया है, बिखर गया है। भारतीय कविता की जो परंपरा है उसमें मैं उनकी कविता को रखकर देखता रहा हू और मैं आपको सामने एक छोटा सा उदाहरण रखूंगा…सूरदास का एक पद है जिसमें कृष्ण ब्रज से चले गए हैं और गोपियां उनको याद कर रहीं हैं और एक पंक्ति है उसमें जिसके कारण मुझे वो महान कविता लगती है…’बिरध बहत जमना’…कृष्ण चले गए हैं और जितने भी क्रिया-व्यापार हैं सृष्टि के, वो निरर्थक हैं, उनका कोई मतलब नहीं है…आप देखिये कि ये ग्रेटनेस है कविता की कि यमुना नदी व्यर्थ में बह रही है, उस प्रेम के अभाव में ये सारी सृष्टि और क्रिया-व्यापार अपनी गरिमा और सार्थकता को गवां चुके हैं। ये कथ्य है अशोक जी की कविताओं का, ये भारतीय कविता की परंपरा में…ये बात मैं हवा में नहीं कह रहा हूं…उनकी एक कविता की कुछ पंक्तियां रख रहा हूं- कविता का अंतिम हिस्सा है- ‘जब निराशा आएगी बैठने और वो भी बिना बात या काम बैठी रहेगी पास उस दिन, उस दिन जब तुम नहीं आओगे तो क्या वो दिन आएगा मेरी आयु में…अदृश्य पर अचूक पक्षी की तरह प्रतीक्षा फिर भी मंडराएगी आसपास सब कुछ होगा और दिनों की ही तरह बस दिन ही नहीं होगा उस दिन जब तुम नहीं आओगे…..’ यानी ये ज़िंदगी ही नहीं होगी, मैं कह रहा था कि ये प्रेम के असंभवता, विषाद की उनकी कविता है लेकिन मैं कोई शीर्षक नहीं देना चाहता जैसा कि नामवर सिंह जी ने कहा था कि वे देह औऱ गेह के कवि हैं। तो ये जो सूत्र है या इस तरह का शीर्षक देना ये एक तरह का रिडक्टिव रिमार्क है और आज का शीर्षक ही है अशोक वाजपेयी का रचना संसार।
वो लंबे समय से लिख रहे हैं, व्यापाक और विविध क़िस्म का उनका रचनाकर्म है जो इतना विशाल हो गया है कि कोई सूत्र या शीर्षक अशोक जी के साथ अन्याय ही करेगा, उनका संसार उसमें समा नहीं पाएगा, उनका संसार बहुत बड़ा है, उसके कई पहलू हैं मैंने तो सिर्फ़ एक पहलू की तरफ़ आपका ध्यान आकृष्ट किया। शायद ये दुख अशोक जी को है कि उन्हें अलक्षित कर दिया गया। उनकी एक किताब का नाम ही है कवि कह गया है। आप जानते ही होंगे कि निराला की कविता से लिया गया है-स्नेह निर्झर बह गया है, मैं अलिक्षित हूं यही कवि कह गया है। कहीं न कहीं अशोक जी को इसकी पीढ़ा है कि उनका काम जो है वो अलक्षित है या उतना लक्षित नहीं है जितना कि उसको हो सकना चाहिये था। वो जीवनासक्ति के कवि हैं और होने के कवि हैं। न होने के विरुद्ध अशोक जी होने के कवि हैं…होने में बहुत आस्था के कवि हैं। उस दिन जब तुम नहीं आओगे कविता के नैपथ्य में आपको एक संगीत सुनाई पड़ेगा।
जिन कविताओं में वो पूरी तौर से सफल होते हैं कविता की रचना में, वो एक सिम्फ़नी की तरह होती है, ऐसा लगता है कि एक सांगीतिक रचना है जो अपनी संपूर्णता में संभव हो सकी। जैसे वो कविता है ‘उस दिन जब तुम नहीं आओगे’ या ‘वो कैसे कहेगी हां, हां कहेंगे उसके अनुरक्त नेत्र, उसके उदग्र-उत्सुक कुचाग्र, उसकी देह की चकित धूप, उसके आर्द्र अधर कहेंगे-हां, वह कैसे कहेगी-हां?’….कविता जब पूरी होती है तो लगता है कि एक वृत्त पूरा हुआ है, एक सिंफ़िनी पूरी हुई है, एक….की रचना ने अपनी पूर्णता को प्राप्त किया है… आप कह सकते हैं कि मैं केवल प्रशंसा कर रहा हूं लेकिन अगर आप आलोचना सुनना चाहें या….संपूर्ण रुप में देखना ही आलोचना है…लेकिन अगर मेरी तरफ़ से कोई निगेटिव रिमार्क सुनना चाहें तो इतना ज़रुर लगता है कि वह कविता लिखने की शाश्वत आपाधापी में रहते हैं…तो जहां वह जल्दबाज़ी नहीं करते हैं वहां वह कविता को एक सिंफ़िनी की तरह रच ले जाते हैं…अब जैसे ‘बहुरि अकेला’ सिरीज़ की एक दूसरी कविता का एक अंश है- ‘जो नहीं है उसके कई नाम हैं, लोप, अनुपस्थिति, अंत, समापन, मृत्यु, अवसान पर’ सभी जो नहीं हैं उनके नाम हैं। जिसके नाम अभी लिये पर सभी उसके होने को याद करते हुए कोई भी नहीं जो उसके न होने को व्यक्त करे, न होना भाषा या कविता में संभव ही नहीं है, सबसे बाहर क़दम रखना, भाषा से भी बाहर जाना। अशोक वाजपेयी जो कह रहे हैं कि न होना भाषा या कविता में संभव ही नहीं है और जितने न होने के नाम हैं वो सभी होने को याद कर रहे हैं, कोई भी ऐसा नाम नहीं है जो उसके न होने को व्यक्त कर सके तो न होना भाषा या कविता में संभव ही नहीं है। ये जो भावभूमि है एक बार फिर से सबसे क़रीब अगर किसी कवि के ले जाती है तो वो कबीर हैं और कबीर से बहुत गहन संसक्ति के कवि हैं अशोक वाजपेयी। इनका नया कविता संग्रह ‘कहीं कोई दरवाज़ा।‘ ये संग्रह प्रकाशित हुआ है 2013 में। इसमें भी एक कविता है छोटी सी…वो कबीर से बहुत गहन प्रतिश्रुति है बल्कि आप निरंतर लक्ष्य कर सकते हैं अशोक जी के रचना संसार में। उसके प्रमाण के रुप में ये कविता है-
वहीं पृथ्वी है जो हमें उत्तराधिकार में मिली थी और जिसे हम छोड़ जाएंगे
वो आकाश है जो हम पर जन्म से ही छाया है और हमारे बाद भी ऐसा ही छाया रहेगा
वही हवा है जो हमारे बचपन से चली थी औऱ हमारी मृत्यु के पार भी बहेगी
सब कुछ वही है, वही रहेगा फिर हम हीं क्यों बीत जाएंगे, हम हीं क्यों कहीं नहीं बच पाएंगे
प्रश्न के शिल्प में दरअसल कविता उत्तर दे रही है। हम ही क्यों बीत जाएंगे, हम ही क्यों नहीं बच पाएंगे। कविता दरअसल कह रही है कि हम भी रहेंगे, हमारे न होने के बाद भी हम होंगे….न होने के बाद भी होने की जो इसरार है उसके कवि हैं अशोक जी और इसीलिये वह कहते हैं कि न होना संभव ही नहीं है…न होना भाषा या कविता में संभव ही नहीं है। इसी संदर्भ में मुझे कबीर की याद आती है जब वह कहते हैं कि हमारा पुनर्जन्म नहीं होगा तो उसका आशय मेरे लिये ये ध्वनित होता है कि हम यहां से जाएंगे ही नहीं तो दोबारा आने का क्या प्रश्न है…
बहुरि हम काहे आवहिगे
जब चुकै पंच धातु की रचना ऐसे भरम चुकावहिगे
हम यहीं रहेंगे इसी सृष्टि में। कहीं नही वही जो संग्रह है अशोक जी का, उसकी दो तीन पंक्तियों से मेरी बात सत्यापित होती है। कविता अगर आप एक्ज़ेक्टली कोट नहीं कर पाते तो उसके साथ अन्याय हो जाता है-
जब हम वापस आएंगे तो पहचाने न जाएंगे
हो सकता है हम लौंटे पक्षी की तरह और तुम्हारी बगिया की किसी नीम पर बसेरा करें
फिर जब तुम्हारे बरामदे के पंखे के ऊपर घोंसला बनाएं तो तुम्हीं हमें बार बार…..
बहुत ख़ूबसूरत पंक्तियां हैं, दुर्लभ क़िस्म की एंद्रियता है अशोक जी के यहां और कहीं कहीं बहुत सौंदर्य नज़र आता है उनके बिंबों में। कविता का ये हिस्सा देखिये-
हो सकता है, हम आएं
पलाश के पेड़ पर नई छाल की तरह
जिसे फूलों की रक्तिम चकाचौध में
तुम लक्ष्य भी नहीं कर पाओगे
हम रुप बदलकर आएंगे
तुम बिना रुप बदले भी बदल जाओगे
हालंकि घर, बगिया, पक्षी, चिड़िया, हरियाली, फूल, पेड़ वहीं रहेंगे
हमारी पहचान हमेशा के लिये गड्डमड्ड कर जाएगा
वह अंत जिसके बाद हम वापस आएंगे और पहचाने न जाएंगे
हम रहेंगे, हमारा रुप बदल जाएगा, हम न होने के बाद भी हमेशा होंगे, अशोक वाजपेयी इसी होने के कवि हैं।
व्योमेश शुक्ल- अनेक मूल्यवान स्थापनाएं, बेशक़ स्थापना के शिल्प में नहीं, पंकज चतुर्वेदी के वक्तव्य में थी। उन्होंने कटाक्ष का भी मौक़ा नहीं चूका अशोक जी के साथ छेड़छाड़ का। वरिष्ठ हैं लेकिन उनको छेड़ने में भी कितना सुख है….वो जो सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की बात अपने भाषण के शुरु में ही कही, याद आता है कि अजातशत्रुता भी अशोक जी का पक्ष नहीं रही है। उन्होंने अजातशत्रु होने का कोई सचेत प्रयास नहीं किया है लेकिन अपनी आलोचना से लगातार दुश्मन बनाएं हैं। सबको शामिल कर लेने का जो प्रोजेक्ट शुरु हुआ तभी से उन्होंने आलोचना लिखना भी कम किया है। उनकी कविता तरह तरह से चैलेंज करती रही है।
सविता सिंह- अशोक जी के अस्सी साल यूं ही पूरे नहीं हुए हैं। लिखते हुए, झगड़ते हुए, अपना काम करते हुए… जीवन के प्रति उत्कट लालसा जो कहते हैं, उसको अपने अंदर, अपने ज़हन में रख करके अशोक जी ने काम किया है। मुझे लगता है कि उन्होंने अपने क्रिटिक्स की बहुत ज़्यादा परवाह नहीं की है, नहीं तो जिस तरह से वो लिखते रहे हैं उस तरह से वह लिख नहीं पाते क्योंकि आलोचना किसी कवि या लेखक को कुछ हद तक ही प्रभावित कर सकती है, उसकी पूरी दिशा को नहीं बदल सकती। यह पहली बात है और दूसरी बात ये है कि अशोक जी पर बोलते हुए मैंने बहुत तीखी बातें कहीं थीं। जब उनके समग्र का लोकार्पण हुआ था तब उनकी प्रेम कविताओं पर तीखी बातें कहीं थी क्योंकि मैं स्त्रीवादी कवयित्री हूं…इस संसार में बहुत प्यारे प्यारे लोग भी हैं जैसे आप लोग।
इस संसार में स्त्री का जीना दुख का सामना लगातार करना है, इससे उसे छुटकारा नहीं मिलता। मैंने हमेशा कहा है कि किसी एक व्यक्ति को दोष नहीं दे सकते, एक पूरा तंत्र है जिसमें सौंदर्य बोध, प्रेम का बोध, घृणा का बोध, ये सब उसमें बहुत संतुलित और तारतम्य में सृजित है। अशोक जी की कविताओं पर मैं बोली भी हूं और मैंने एक बहुत क्रिटिकल पीस भी लिखा है जो मैं अशोक जी के साथ शैयर नहीं कर पाई क्योंकि मुझे ये लगा कि मेरे अंदर अभी एक फ़ैमिनिस्ट रेज है, एक ग़स्सा है, एक क्रोध है जो सैद्धांतिक है कोई इंडीविजुअल नहीं है। मुझे ख़ुद इन चीज़ों को जांचना है। अशोक जी एक बड़े कवि हैं और जिस तरह से मैंने उनकी आलोचना की तो किसी ने मुझे बताया कि उनका चेहरा लाल हो गया था लेकिन बाद में जब IIC में उनसे मुलाक़ात हुई, ये बात मैं उनके बड़प्पन को लेकर कह रही हूं, तो मैंने उनसे कहा कि अशोक जी उन दिन दो बात हुई थी वो आलोचनात्मक थी और ये सैद्धांतिक है, इसका मैं कुछ कर नहीं सकती, मेरे फ़्रेमवर्क में ये चीज़ें हैं और जब कोई चीज़ या रचना उसमें आती है, उस परिमिति में, तो उसका जो होना है वही होता है, मैं उसमें कुछ ख़ास नहीं कर सकती। उन्होंने कहा नहीं, मुझे तो ऐसी तीखी आलोचना पसंद है, आप इसकी चिंता न करें, आप काम करती रहें। तो जैसा कि वो अपना काम करते रहे हैं, मुझे भी यही बात सिखाई कि आप अपना काम करती रहें।
माटी पत्रिका निकल रही थी अशोक जी के 80वें जन्मदिन के उपलक्ष्य में ही, और मैं आपको बता नहीं सकती कि मैं तीन दिन तक जूझती रही कि कोई पीस मुक़्क़मल करके दे दूं। अंत में मैंने जो कुछ लिखा वो मेरे लिये एक ऐसा तीखा पीस था कि उसको नहीं जाने दिया जा सकता था। पहला कारण जो मैंने अशोक जी को बताया भी था, हम जिस समय में रह रहे हैं, उस समय में भी अपनो पर बहुत ईमानदार प्रतिक्रिया देते हैं, उसका फ़ायदा दूसरे अपने फूहड़पन में न उठाएं। अगर अशोक जी की प्रेम कविताओं के लिये मैं उनकी आलोचना करती हूं तो ऐसा कवि न मान ले कि जो झूठा कवि है, जो प्रेम नहीं करता है वग़ैरह वग़ैरह….आलोचना में नहीं कहा जा सकता। जो कॉंसेप्ट है प्रेम का उस पर बात हो, लेकिन हम जानते हैं कि क्या हो सकता है। अशोक जी के साथ ऐसा हुआ भी है बल्कि जो फ़्रेमवर्क मैंने बनाया उसमें अशोक जी को बहुत कोशिश की है, इस लेख में भी है और बोलते वक़्त भी कहा कि ये जो पुरना सैद्धांतिक ढर्रा था कि अशोक जी देह और गेह के कवि हैं और…..लोग क्रांति के कवि हैं। मुझे नहीं लगता कि अशोक जी उसमें आते हैं। दूसरी चीज़ ये कि जो लोग ये कहते हैं कि ये कलावादी हैं, उन्हें इतिहास का पता नहीं है कि कलावाद कैसे और कब आया वेस्ट में, उसका अपना एक क्रांतिकारी मोड़ था जहां पर वो आया, बाद में जब कम्युनिस्टों ने अपने सोशलिज़्म रियलिज़्म को लेकर इस बिंदू को जब आलोचना के घेरे में रखा तो यहां पर उसे उसी तरह से ले लिया गया….कहने का मतलब ये है कि एक क़िस्म की अज्ञानता…..एक ख़ास क़िस्म का प्रयास रहा कि जिस तरह की कविताएं लिख रहे थे उसके लिये आलोचनात्मक तैयारी, आलोचनात्मक फ़्रेमवर्क नहीं था तो जो एवेलेबल था उसी पर लागू कर दिया गया। तीसरी बात जो मैंने कही वो ये कि अगर मैं अशोक जी को आलोचनात्मक ढंग से, इस झंझट से, इस द्वंद, इस झगड़े से उबार भी दूं तब भी अशोक जी स्त्रीवादी आलोचना के घेरे में आते हैं। जो निजता, जो निजी स्पेस..व्यक्तिवाद, व्यक्तिवादी समझ के भीतर जो स्पेस क्रिएट किया गया वेस्ट में 17वी 18वी शताब्दी में, उसको भी ज्यों का त्यों नहीं लिया जाना चाहिये जो अशोक जी लेते रहे। उन्होंने बढ़ चढ़कर इसके फ़ेवर में आलोचनाएं भी लिखी…अब तक जो आरोप लग रहे थे उसको भी उन्होंने एक्सेप्ट किया….इस निजता को इस निजी स्पेस को फिर टोटोला और फिर से उभारा और पता चला कि जो निजि स्पेस है, जो निजता है वो भी पुरुष वर्चस्व की एक अभिव्यक्ति है…ये जो उदारवाद के भीतर जो विमर्श चला कि जो हमारा पूरा स्पेस है..पोलिटिकल, इकोनॉमिकल सामाजिक, आर्थिक जो भी स्पेस है वो दो भागो में बंटा हुआ है जिस हम कहते हैं एक जिसे हम कहते है निजी यानी कि प्राइव्हेट और दूसरा पब्लिक यानी सार्वजनिक। सार्वजनिक जो स्पेस है पुरुष के लिये है और निजी स्पेस है वो स्त्रियों के लिये है लेकिन आप पाएंगे कि जो कवि हैं, पेंटर हैं राइटर्स है जो……उनको रचने के लिये एकांत चाहिये क्योंकि पब्लिक स्पेस में पॉसिबल नहीं है…ये स्पेस भी उन्होने ली और इसको कोई भी एक्ज़ामिन नहीं कर सका।
जब मुझ जैसे लोग इस पर बात करने चले तो पाया कि स्त्री वो नहीं है जिसको पुरुष अपना कहते हैं। स्त्रियों को पाना बहुत मुश्किल है। इसीलिये मैंने अशोक जी की कविताओं के बारे में कहा कि दरअसल अशोक जी स्त्री को प्रेम नहीं बल्कि अपने प्रेम को प्रेम करते हैं क्योंकि प्रेम की जो उनकी अवधारणा है वो सिर्फ़ अपने प्रेम के बारे में बात कर रहे होते हैं। फ़्रॉयड की तरह अगर मैं कहूं तो जब भी स्त्री के बारे में बात करने की बात आई तो उसकी आंतरिक दुनियां से उनका अपरिचय ही मिला मुझको। उसके शरीर का बड़ा बख़ान है…….. क्या पुरुष इतना ही चाहता है स्त्री से? अगर वो इतना ही चाहता है तो वो इसका एक परसेंट भी नहीं पा सकता।
इसलिये मैं अपनी कविताओं में नीले संसार की रचना करती हूं, आओ इस नीले संसार को देखो। यहां एक परखनली है, स्त्री लगातार अपने साथ एक एक्पीरीमेंट कर रही है क्योंकि उसे समझने वाला कोई नहीं है। स्त्रियों को भी स्त्रियों से बांट दिया गया है थ्रू मैरिज। स्त्री भी अगर एक जगह रहे एक दूसरे को समझे, एक दूसरी की संवेदना को समझे वो भी उसके लिये एक राहत है लेकिन वो भी बंटी हुई है, इस वर्ण में, इस जाति में इस धर्म में…….
पंकज चतुर्वेदी- माफ़ कीजिये अगर आप इजाज़त दें तो मैं शैक्सपियर की एक पंक्ति कोट करना चाहूंगा…जो बाते आपने अशोक जी के बारे में कहीं हैं तो क्या ये पंक्तियां आपके ज़हन में थीं?…..वह एक कैरेक्टर के बारे में कहते हैं कि he loves to be in love.
सविता सिंह- उस वक़्त मैंने ये नहीं सोचा, मैं तो बस बोल रही थी। मैं बिना किसी इंटेशन के किसी को आहत किये बोलना चाहती हूं…लेकिन जो बातें स्वत: आती हैं विश्लेक्षण के दौरान, उसको मैं नहीं रोक सकती…
पंकज चतुर्वेदी- नामवर का अज्ञान इसे ज़रा एलोब्रेट कीजिये…
सविता सिंह- अज्ञान यही है कि आपने अशोक वाजपेयी जी को क्यों कहा देह और गेह का कवि…मुझे तो नहीं लगता कि देह इस हद तक है…उन्होंने भी मान लिया ये एक त्वचा है जिस पर आपकी निगाह टिकी हुई है….पूरा आंतरिक संसार इतना सुंदर, इतना कॉप्लेक्स….इसीलिये स्त्रियां कहती हैं कि ठीक है अगर तुम मुझे नहीं पा सकते तो नदियों के पास जाओ, पहाड़े के पास जाओ, जंगलों में जाओ, कुछ सुनों तब तुम मेरे क़रीब आओगे….पूरा फ़ैमिनिज़्म इससे भरा पड़ा है। आप ने अशोक वाजपेयी जी को लेकर जो सृष्टि के बारे में बात की तो मैं ये कहना चाहती हूं कि मैं आपसे भी थोड़ा असहमत हूं क्योंकि सृष्टि कोई अलग से चीज़ थोड़ी है, पूरी सृष्टि स्त्री ही है, कोई ऐसी चीज़ है जो प्रकृति करती है वो स्त्री नहीं करती? प्रजनन से लेकर, ममत्व से लेकर, प्रेम से लेकर…आप जो भी इस यूनिवर्स में देखना चाहते हैं वो सब स्त्री में मौजूद है। आपको सृष्टि ही दी गई है रचना करके, वो अब कुछ नहीं चलाती, उसने सब करके दे दिया है आपको…लो अब मेरे साथ संबंध बनाओ, मेरे साथ संबंध बनाने के लिये स्त्री के साथ संबंध बनाने के लिये सचमुच प्रेम करो। अगर आप ऐसा नहीं कर सके तो आप सृष्टि सृष्टि करते रहिये, दुखी होते रहिये, सुखी होते रहिये, इंतज़ार करते करते मर जाइये, स्त्री अब इस बात से पिघलने वाली नहीं है क्योंकि वह चाहती है उससे प्रेम किया जाय, उसको सृष्टि समझकर प्रेम करो। वही सब कुछ देती है, आपको जीवन देती है, आपको दूध देती है, आपको चलना, बोलना, हंसना सब सिखाती है। कोई ऐसी चीज़है जो सृष्टि करती हो और स्त्री न करती हो? ये जो लगाव है इसमें बदलाव आना ही चाहिये, ख़ासकर मैं कवियों से कहना चाहूंगी कि ये परिवर्तन उनके अंतर्मन में, ये नयी शिक्षा, ये न उन्नति अगर आये तो कविता का स्वरुप बदल जाय।
दूसरी चीज़ कि मैं ये भी जानती हूं कि अशोक जी भरसक कोशिश करते रहे हैं कि बदलें, इसके लिये मैं उनकी बहुत प्रशंसा करती हूं। मैं ये कह सकती हूं कि पहले लेखन का जो दौर रहा है जिसमें शहर एक संभावना और बाक़ी चार पांच संग्रह हैं, बाद के जो संग्रह आए हैं आप देखेंगे कि जैसे नदी अपने को मोड़ लेती है….स्वत: एक बहुत प्राकृतिक ढंग से उनके अंदर एक अपने को फिर से जांचने, अपने को फिर से प्लेस करने की ज़रुरत मेहसूस होती है। मैं एक कविता पढ़ना चाहती हूं….अशोक जी में सचमुच उन्नति हुई है। वह अपने पहले संग्रह की तरफ़ जाते हैं। हमने पहले कभी नहीं देखा कि कोई अपने पहले संग्रह की तरफ़ रिविज़िट करे और उस पर एक कविता लिखे। इससे बड़ा और कोई प्रमाण नहीं हो सकता। अपने पहले संग्रह की पैंतीसवीं वर्षगांठ, 35 साल बाद एक कवि अपने पहले कविता संग्रह की तरफ़ जाता है, वहां के सारे परिदृश्य को देखता है, मां के लिये प्रेम, स्त्री के लिये प्रेम या देह के लिये प्रेम जो भी है, अपने पिता, घरबार। आप पाएंगे कि पहले संग्रह में उनके यहां गोधुली बहुत आती थी लेकिन बाद की कविताओं में गोधुली का भी अर्थ बदला हुआ है यानी प्रकृति को भी, सृष्टि को भी वह बदले हुए नज़रिये से देखना चाहते हैं, कोशिश कर रहे हैं। यो तो कम से कम हुआ ही है। इसलिये मैं अशोक जी पर बोल भी रही हूं। जो आदमी परिवर्तन नहीं करना चाहे, जिसके अंदर अफने विचारों को लेकर कठमुल्लापन हो वो भी एक मैस्कुलिन ट्रेट है, ऑर्थोडॉक्स, इसके ख़िलाफ़ फ़ैमिनिज़्म लगातार संघर्ष करती रही है। एक मुलायम स्वभाव होना, स्वीकार करना कि कहीं कोई ग़लती हुई है, दूसरे मोड़ पर मुड़ गये, पीछे आ जाओ। ये विचारों की दुनियां में बहुत महत्वपूर्ण चीज़े हैं। कविता है-
वह अब भी युवा और हराभरा है
जबकि मैं अधेड़ हो चुका:
उसमें जो शहर अब भी संभावना था
वह इतना बदल गया है
कि कई बार मुझे पहचान में नहीं आता—
उसका तालाब सिकुड़ गया है
लोगों का त्यौहार अब वैसा नहीं होता
रिमझिरिया का मेला लगता तो है
लेकिन अब शहर उसके पार फैलकर मानो उसे लील चुका है
बहुत से लोग अब नहीं रहे
दिदिया, काका, दादा, अम्मा,बाबा
और इस पराये विदेशी शहर में कई बार
मुझे संदेह होता है कि मैं भी वह कहां रहा
शहर अब कहीं नहीं बचा सिवाय उस कविता में, -बसे भूगोल में से
उसकी सच्चाई अब कहीं और नहीं है
सिर्फ़ शब्दों की सच्चाई में बची है
.मैं चकित और कृतज्ञ हूँ
सचाई के बदल जाने से नहीं
शब्दों के फिर भी सच बने रहने से.
वे कविता को लेकर आश्वस्त हैं बाक़ी सब बदलता जा रहा है और हर बदलती चीज़ पर कवि की नज़र है। कवि ये कह सकता था कि मैं ये फूल खिला सकता हूं, इतना दंभ था उसमें कि उसके प्रेम को स्वीकार किया जाएगा। कवि कहता है कि प्रेम जो है वो अब बहुत कठिन चीज़ है-
प्रेम आसान नहीं है
इसमें इतनी निराशाएं होती रहीं हैं
फिर भी….वही आग है, वही लौ है, वही अर्थ की दहलीज़ है
निश्चित तौर पर प्रेम शाश्वत है, उसे मनुष्य किसी तरह से पकड़े हुए है। उसके बग़ैर उसके संसार का क्या होगा, कोई नहीं जानता। किस अंधकार में जाना पड़ेगा, किस पाताल में जाना पड़ेगा, कोई नहीं जानता। मैं अंतिम कविता पढ़ती हूं ये बताने के लिये कि अशोक जी की सामाजिकता और उनका प्रोग्रेसिव तेवर, उनके अंदर जो अपने समय को लेकर है। ये कह सकते हैं कि अशोक जी अपने समय से टकरा गये, इस समय से जो बहुत ही कठिन है। इसमें सिर्फ़ साहस ही नहीं चाहिये। आपके अंदर क्षमता होनी चाहिये परिवर्तन को समझने की, समाज को समझने की, इतिहास का बोध होना चाहिये। हमारे यहां पहली बार तो ये स्थिति नहीं आई है, दुनियां में फासीवाद आ चुका है, बड़े बड़े लोगों ने लिखा है उस पर लेकिन वे सभी लोग साहसी नहीं थे, कई मारे भी गये। वे सभी लोग मानवीय चिंता और मानवीयता से भरे हुए लोग थे और प्रगतिशीलता के लिये ये मानवीयता बहुत ज़रुरी है। पूरा का पूरा संसार आपकी समझ में आ जाये तभी आप इस तरह का क़दम उठा सकते हैं। मृत्यु भी जीवन से छोटी हो जाती है। अशोक वाजपेयी जो एक कवि-नागरिक हैं। पहले भी प्रजातंत्र को लेकर, लोकतंत्र को लेकर उनके अंदर बहुत मोह दिखा था। मैंने पाइंट आउट किया था कि ये कवि अपने तमाम सुधारवादी चेतना के साथ, एस्थेटिक के साथ जिसमें स्त्री के शरीर का…….लेकिन वो भले ही नदियों को प्रेम न करता हो, स्त्रियों को न करता हो लेकिन लोकतंत्र को प्रेम करता है। ये भी बहुत बड़ी बात है। इसमें अंतिम कविता है क्षमा करो-
क्षमा करो स्वच्छ लोकतंत्र के निर्मल नागरिको,
तुम्हारे स्वच्छता अभियान में तुम्हारे साथ नहीं हूँ
और अपनी आत्मा की असह्य अपवित्रता और गंदगी में
ऊभ-चूभ हो रहा हूँ।
मुझे पता है कि मैं तुम्हारी गिनती में नहीं हूँ :
मच्छर मारने का धुआँ नगरपालिकाएँ बिना चूके
फैलाती रहती हैं।
क्षमा करो नागरिको
कि निरपराध को मारने की तुम्हारी अद्भुत वीरता में
मैं अपनी कायरता के कारण शामिल नहीं हूँ।
क्षमा करो लोकतंत्र के मुखर पहरेदारो,
कि तुम्हारे वाग्वैभव, असत्य के गौरवगान में
मैं अपनी कायर बेसुरी आवाज़ से सुर लगाकर
उसको दूषित न करने की चालाकी बरत रहा हूँ :
मेरी चुप्पी मानीख़ेज़ भले हो, बेअसर है!
क्षमा करो भले बिराजे देवताओ,
तुम्हारे आस-पास बढ़ते कचरे के ढेर में
मैं एक अधकचरा कवि अपना कचरा नहीं मिला पा रहा हूँ :
बेसुरी प्रार्थनाओं और बेरहमी से तोड़े गए फूलों से घिरे होने के कारण
तुम ऊँचा सुनने लगे हो
और हम जैसे अपनी अछूती बात तुम तक पहुँचा सकने की जुगत
और अवसर गँवा चुके हैं।
क्षमा करो
इससे पहले कि क्षमा माँगने और करने का सिलसिला भी ख़त्म कर दिया जाए!
मैं समझती हूं कि अशोक वाजपेयी में जो ये परिवर्तन आया है उसको भी बहुत गंभीरता से, इसमें चालाकी नहीं है, उनकी मानवीयता की जो गहरी परते हैं, वहां जाकर उनको समझने और उनकी प्रशंसा करने की ज़रुरत है और उस पर आगे काम करने की ज़रुरत है।
ध्रुव शुक्ल- मैं बहुत पहले से अपनी किशोरावस्था से अशोक जी की कविता से परिचित रहा हूं। ‘शहर एक संभावना’ संग्रह जब आया था तब मेरी उम्र 15-16 साल रही होगी और तब से मैं अशोक जी की कविताएं पढ़ रहा हूं। मैं ये स्थापना बार बार करता रहा हूं कि इस समय हिंदी में अशोक जी से बड़ा कोई सांसारिक कवि है ही नहीं। संसार को मैं उस यथार्थवाद के फ़्रेम में रखकर नहीं कह रहा हूं जिसमें संसार को व्यर्थ में बांध लिया जाता है किसी राजनीतिक दृष्टिकोण में। वह मोह, माया, ममता से भरे कवि हैं, मैं उस संसार की बात कर रहा हूं। इस अर्थ में वह एक बड़े सांसारिक कवि हैं। उनके बारे में कई कई बार कहता रहा हूं, उन पर एक किताब भी बनाई है। उनके कला आंदोलन पर, उनकी कविताओं पर बहुत कुछ लिखता रहा हूं। लेकिन आज मैंने सोचा कि अशोक जी अपनी कविता के अलावा कविता पर ही छोटे-छोटे वैचारिक आलाप लते रहे हैं। अभी उनकी एक किताब आई है कविता-‘क्या, कहां क्यों’ और उसमें उनके इस तरह के छोटे-छोटे आलाप प्रकाशित हुए हैं। मैंने सोचा कि उन आलापों के सहारे मैं अपने वक्तव्य की एक बंदिश बनाऊं और उनके कहे हुए…..को सत्यापित करने की कोशिश करुं क्योंकि प्रमाणिक तो वही है जो उनका कहा हुआ है, वो उनकी दुनियां से आया है और जितना दुनियां से आया है उतनी ही उनकी दुनियां भी है। हम उनसे और अधिक दुनियां की उम्मीद ही क्यों करें। सविता जी का ज्ञान बहुत गहराई से अशोक जी की कविताओं पर गया है, पंकज का भी। मेरी दृष्टि में अशोक वाजपेयी जी का जो चित्त है उसमें जो एकाग्रता है, उसमें उस तरह का कोई विभाजन नहीं है। वह कहते हैं कि संवेदना, बुद्धि, विचार और भावना के बीच कोई फ़ांक नहीं होनी चाहिये। आपको याद होगा कि मुक्तिबोध याद दिलाते थे, उनका एक बहुत प्रसिद्ध पद है कि ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान में एक संतुलन होना चाहिये। अकेले ज्ञनत्मक संवेदन से कुछ नहीं होता कवि की दुनियां में, उसे संवेदनात्मक ज्ञान भी चाहिये। यानी एक तरह की भक्ति चाहिये, शब्द भक्ति चाहिये और अशोक जी शब्दों के भक्त कवि तो हैं ही। वे बार बार हमें शब्द पर ले आते हैं, बार बार शब्द की याद दिलाते हैं। शब्द के बिना उनका काम नहीं चलता जैसा कि हमारा भी नहीं चलता। उनकी कविताओं में एक ऐसी आध्यात्मिकता है जो आत्म और अनात्म के विवेक को लगातार करती रहती है और यह विवेक ही उनका काव्य विवेक भी बनता रहता है। उनकी प्रकृति के अनुरुप कभी तीव्र हो जाता है और कभी मंद। जैसा कि पंकज कह रहे थे कि जब वह हड़बड़ी में कविता बना देते हैं तो कुछ खटकता है, ऐसा मुझे भी खटकता है। लेकिन कुल मिलाकर उनका काव्य विवेक अनात्म के बीच अध्यात्म में रंगा हुआ है।
उनकी कविताओं में ज़्यादातर उस्थितियां हैं और वो ही उपस्थितियां उनकी कविताओं को सर्वाधिक सत्यापित भी करती रहती हैं। उनकी तमाम कविताओं को उठाकर देख लीजिये, उनकी कविताओं में आपको अद्वितीय संगीतकार मिलेंगे, चित्रकार मिलेंगे, कवि मिलेंगे, घर मिलेंगे, पड़ौस मिलेगा और इसके अलावा अनेक अनुपस्थितियां भी मिलेंगी। वह हमेशा कहते रहे हैं और एकाध जगह लिखा भी है कि मैं रचने के साहस की बिरादरी का आदमी हूं। जहां जहां रचा जा रहा है, जहां रचने का साहस है, मैं उस बिरादरी का होना चाहता हूं, मैं उस बिरादरी का होना चाहता हूं, वही मेरी पाठशाला है। वो इस बिरादरी को बड़ा करते रहे और इस हद तक करते रहे कि उन्हें बहुत से विरुद्धार्थियों का सामंजस्य भी करना पड़ा।
अभी मैंने उनकी किताब की भूमिका लिखी थी तो शमशेर की एक कविता याद आई ‘अमन का राग’। मैंने उनकी पंक्ति के सहारे कहना चाहा कि अशोक वाजपेयी साहित्य और कलाओं की दुनियां के जगमग पॉवर हाउस के कुशल ऑपरेटर हैं। वो ऑपरेट करते हैं चीज़ों को और उनसे अधिक बड़ा संस्कृतिकर्मी और संयोजक होना इस समय तो दुर्लभ है, वो अकेले हैं जिस पर ध्यानाकर्षण मनीष पुष्कले ने भी किया। वो भाषा पर बहुत विचार करने वाले कवि हैं। वह कहते हैं कि भाषा का घेरा बहुत बड़ा है। वह हर क्षण हमें घेरे रहती है और कविता भाषा से पल्ला झाड़कर नहीं पाई जा सकती, वह उसका संयोजन करके पाई जा सकती है। कवि कुछ नहीं करता, भाषा की दुनियां में वह उसका संयोजन करता है। इस अर्थ में भी वह अपनी कविता के बड़े संयोजक सिद्ध होते हैं। उनकी कविताओं में आप कई तरह की संयोजकताएं देखेंगे। बहुत सारी संयोजकताएं वह गढ़ते रहते हैं। और उन्हीं से बिंब भी आते हैं, उसी से उनकी भाव भूमि उठती है जिसमें हम आलोड़ित होते रहते हैं। वे अपने से पहले रची गई कविताओं को इस तरह देखते आए हैं कि उनकी कविताए पहले हो गये कवियों की उनकी कविताओं का क्रिटीक बनें। और ये हर समय में होता है कि पहले की जो कविताएं हैं बाद के उन्नतप्राण कवि उनका क्रटीक बनते हैं और मैं ये प्रस्ताव करता हूं कि अशोक जी ने जो बात की है वो बहुत मूल्यवान है। क्यों न कोई शोध करने वाला कवि-लेखक उनकी इस स्थापना के प्रकाश में उनकी ही कविताओं पर शोध करे कि अशोक वाजपेयी की कविताएं किस तरह पूर्वज कवियो की कविताओं का क्रटीक बनती हैं जोकि बनती हैं। वो कालीदास से संवाद करते हैं, देवकवि से संवाद करते हैं, सूरदास से संवाद करते हैं। वे अपने अग्रजों में अज्ञेय, शमशेर और रघुवीर सहाय का नाम लेते हैं और कहते हैं कि कविता का जो वैभव है और परंपरा से तार जोड़ने की जो काव्य विधियां हैं वह उन्होंने अज्ञेय से सीखीं। उन्होंने रघुवीर सहाय से गध्यात्मकता में जो कविता का उलझाव है उस पक्ष को समझा है। और मुक्तिबेध से बिखराव में कविता कैसे पैदा होती है, ये भी समझा है। शमशेर में संवेदना की सूक्षमता को परखा है। वे इन चार कवियों को बहुत महत्व देने वाले कवि हैं और बहुत क्रिटिकली इन्हें देखते आए हैं।
वे कहते रहे कि वह एक ईश्वर विहीन अध्यात्म में अपने को लोकेट करते रहे हैं। वो अक़्सर कहते कि उन्हें आस्था का वरदान मिला नहीं है। ये भी कहते रहे हैं कि मैं पूर्वजों को देवताओं का स्थानापन्य बनाने वाला कवि हूं। वहां पूर्वज देवताओं के स्थानापन्न बनकर आते हैं। उनकी एक कविता है हम पूर्वजों की अस्थियों में रहते हैं, हम उठाते हैं कोई शब्द तो किसी बीती हुई सदी का विन्यास विचलित होता है। उनकी कविता पुरखों की परछी की धूप के ताप में रची जाने वाली कविता है। पहले एक कविता सीड़ियों पर धूप में बैठी हुई थी जो रघुवीर सहाय की कविता थी, ये पुरखों की परछी से विच्छिन्न ही रही। वो हमेशा मृत्यु और समय के बीच एक कवि के रुप में कविता की जगह खोजते हैं। उनकी कविता रति और मृत्यु के अनुष्ठान करती है। सविता जी अभी कह रही थीं कि किशोर वाजपेयी जी की कविता में स्त्री की उपस्थित पर उन्हें कुछ आपत्ति हैं लेकिन मुझे लगता है कि वो रति और मृत्यु के साम्य को रचने वाली कविता है। सविता जी इस पर ध्यान देंगी, मुझे अच्छा लगेगा। वो ये भी कहते हैं कि मेरी कविता रति और मृत्यु को मैलेपन से बाचाने वाली कविता है। अशोक वाजपेयी एक कवि के रुप में मृत्यु को मैला करने वाले कवि नहीं हैं और रति को भी मैला करने वाले कवि नहीं है। रति के प्रति उनके मन में बहुत प्रणति का भाव है, प्रणय के साथ। वो अनुभव करते हैं कि कविता प्राय: बीतने का अंकन है जो बीतता है उसे कविता अंकित करती है। वो अनुपस्थिति को दिया गया उपस्थिति का प्रतिरोध है। तो ये खेल भी उनकी कविताओं में लगातार उपस्थिति और अनुपस्थिति का चलता रहता है। उन्होंने तो इस पर एक कविता संग्रह ही बनाया है। राबर्तो हुआरोज से मैं मिला था जब वह भोपाल आए थे, अशोक वाजपेयी ने विश्व कविता समारोह किया था। हुआरोज की एक आदत थी कि वह हमेशा अपनी पत्नी का हाथ पकड़े रहते थे, वह अकेले नहीं चलते थे। बड़े सौम्य थे दोनों। हम लोगों ने दुभाषिए के माध्यम से उनसे पूछा कि आप क्यों ये करते हैं। और उनका जवाब था- हमें पूरे साथ का अनुभव तभी होता है जब हम हाथ पकड़े रहते हैं। अशोक जी की कविता में ये जो प्रकृति और पुरुष का खेल चलता है, ये पूरे साथ को निभाने का खेल चल रहा है। अशोक जी पूरे साथ के लिये परेशान आदमी हैं। वो अपने संस्कृति के क्षेत्र में भी पूरे साथ के लिये परेशान हैं जैसा कि मनीष कह रहे थे कि वो अब निराश हैं। अपने लोगों को इकट्ठा करने के बाद उन्हें पूरा साथ नहीं मिला, वह अकेलापन मेहसूस करते हैं और अपने अकेलेपन को तरह तरह की गतिविधियों से और सार्वजनिकताओं से पूरने की कोशिश करते हैं। लेकिन मैं हमेशा उनके चेहरे पर पढ़ता हूं कि इससे अकेलापन पूरा नहीं जाता। कृष्णबलदेव वैद मुझसे कहते थे कि अशोक के चेहरे पर एक तरह का गुमसुमपन रहता है, अपने में खोया हुआ सा, व्यक्तित्व अपने में खोया हुआ सा जो मुक्तिबोध कहते थे। एक सिंफ़नी की तरह कोई संगीत, कोई रंग, कोई शब्द उके मन में गूंजते रहते हैं।
अशोक वाजपेयी चौबीसों घंटे कविता की अदालत में खड़े हुए कवि लगते हैं। उन्होंने कहा कि मृत्यु भी देखने का एक ढंग है, वह अपने होने, बीतने और पूरा होने को देखना है। अशोक जी की कविताओं में होना, बीतना और पूरा होने की आवाजाही दिखेगी। कबीर को ठीक याद किया पंकज ने। अशोक जी बार बार कहते हैं कि हम मटमैलेपन पर वापस आएंगे। उनके कविता संग्रह कही नहीं वहीं में इस तरह की कई कविताएं हैं कि हम कहीं नहीं जाएंगे, हम इसी मटमैलेपन पर वापस आएंगे। रज़ा ने उनकी एक कविता पंक्ति पर चित्र बनाया था कि ये जो छोटी सी दुनियां हमें मिली है यही सहज है, यही सुंदर है। उसी अर्थ में मैं उन्हें सांसकारिक कवि कहना चाहता हूं। कविता के बारे में उनका एक और प्रतिमान है कि कविता कवि के समाप्त हो जाने वाला जीवन नहीं है, वो समाप्त न होने वाला उत्तरजीवन भी है। ये सब कवियों की समस्या भी रही है। कुछ होंगे जो उसकी कविता को पढ़ेंगे, उसको शायद चुनौती भी देंगे। हर युग का बड़ा कवि इसका सामना करता है कि बाद में ये उत्तरजीवन होगा जो मेरी कविता का सामना करेगा, कोई समान धर्म होगा जो इसको देखेगा, इन शब्दों की गर्माहट को मेहसूस करेगा वग़ैरह वग़ैरह। उनके पहले संग्रह की एक कविता सुनाता हूं। इसका शीर्षक है उषाओं के गर्भ में। ये कविता 1960 की है, यह कवि के रुप में अशोक जी का प्रारंभिक काल था। इसमें एक वैदिक स्मृति बसी हुई है। आप अगर ऋगवेद का स्मरण करें। प्रकृति के प्रति जो वैदिक ऋषियों का समर्पण है वो उसके तो इको फ़ैमिनिज़्म नहीं कहा जाएगा, वह तो ऋत की प्रज्ञा कही जाएगी। ईको फ़ैमिनिज़्म तो अभी चला हुआ शब्द हैं। दिक़्कत ये हो गई है सविता जी कि हम अपने विमर्श की भाषा में बात नहीं करते, हम मॉर्डनिज़्म, रियलिज़्म और रोमेंटेसिज़्म, रेडिकलिज़्म, इन सब शब्दों को छोड़ नहीं पाते। हमें ईको फ़ैमिनिज़्म इस्तेमाल करना पड़ता है। वेद में जो ऋत का नियम है जिससे ऋतुकाल बनता है, सृष्टि चलती है, जिसमें सारी ऋतुएं बीतती हैं। अशोक जी की कविताओं में बहुत ऋतुएं बीतती हैं, कई तरह………। स्त्री की देह का भी ऋतुकाल है और उनकी कविताओं में सृष्टि का भी ऋतुकाल है। गहरे अर्थ में हमारे आधुनिक समय में अशोक जी ऋत की प्रज्ञा के भी कवि हैं। वो उस देहरी को छूते हैं। उनकी कविता प्रकृति में ही रचीबसी है। ऐसा मुझे लगता है। वो कविता मैं आपको सुनाता हूं-
उषाओं के गर्भ में भटकती मेरी आवाज़ है
और असंख्य छायाभासों के पीछे कहीं
आकाश सी सोयी हुई तू है
कि कांपता सिहरता लयों का सुनसान
जो शायद मैं होता
कि झिलमिल उत्सुक उजालों का बहाव
जो शायद तू होती
आ
कि आ जिसकी प्रतीक्षा में मैं हूं
तू है
उसे सचमुच जन्म दे
आ इन खुलती आभाओं के पीछे कहीं से आ
और मेरी भटकती आवाज़ को थाम
एक नीरव तारे-सा स्थिर कर दे
आ
उषाओं के गर्भ में भटकती
मेरी अंधेरी आवाज़ है-
ये जो उषाओं के गर्भ में भटकती अनादि अव्यक्त सृष्टि थी, अशोक जी अपने प्रारंभिक काल में उसको आवाज़ दे रहे हैं। ये प्रेम कविता भी है, ये प्रिया के लिये भी एक कविता है लेकिन ये सृष्टि प्रिया के लिये भी एक कविता है। एक अंधेरी भटकती हुई कोई आवाज़ है और कोई कवि प्रज्ञा दूर उषाओं के गर्भ में उसको खोज रही है।
अशोक जी ने कविता पर छोटे-छोटे आलाप लेते हुए जिसे मैं वैचारिक आलाप कहता हूं, कवि शिक्षा का भी बड़ा काम किया है। वह संस्कृतिकर्मी रहे हैं, कई संस्थाएं चलाते रहे हैं, तो उनके मन में ये बात रही है कि आज हम अपनी भाषा में कुछ ऐसा विमर्श कर सकें, सूक्त न सही सूक्तियां रच सकें जिससे कवि शिक्षा का काम हो,ये दायित्व उन्होंने अपने ऊपर लिया। मैं उनकी कुछ स्थापनाएं सुनाता हूं। वे शिक्षक कवि के रुप में भी हमारे सामने आते हैं। जैसे हम अज्ञेय को टीचर पोएट कहते थे वैसे ही आज हम अशोक जी को भी टीचर पोएट कह सकते हैं। वो बहुत कुछ हमें सिखाते हैं। वह कहते हैं कि कविता से जीवन बड़ा है। पूरा जीवन शायद कविता को कभी उपलब्ध नहीं होता, जीवन कवितातीत होता है। वह ये भी कहते हैं कि शब्द उतने ही सच हैं जितने कि फूल, पत्तियां, चिड़ियां या पत्थर, आंखों या हाथों का स्पर्श। वह कहते हैं कि कविता भाषा, अनुभव, स्मृति, कल्पना रहस्य, आश्चर्य आदि सबसे रची जाती है। वे कहते हैं कविता राजनीति, परिवर्तन, विचारधारा, आस्था, प्रतिबद्धता आदि के मुक़ाबले कहीं अधिक अनिवार्य और अदम्य रुप से नैतिक कर्म है। अनुभव भाषा से स्वतंत्र नहीं है, भाषा का विन्यास जानने की प्रक्रिया है। जाने हुए को भाषा में ढालना कवता नहीं है। भाषा में जानने की कोशिश में कविता रची जाती है। वह ये भी कहते हैं कि कविता जीवन और भाषा दोनों का उपहार है। वो दोनों के बिना संभव नहीं है। उन्हें लगता है कि हम कविता अपने जीवनानुभवों से नहीं दूसरे के काव्यानुभवों से
भी लिखते हैं। वह ये भी कहते हैं कि छोटे से सच को भी बेकार नहीं जाना चाहिये। वह यह बात बार बार दोहराते हैं। आप उनके अनेकों व्याख्यानों में सुन लीजिये वह छोटे छोटे सचों को बेकार न जाने देने वाले कवि हैं क्योंकि बड़े सचों के लिये बड़ी विचारधाराएं, प्रतिबद्धतताएं, राजनीति, आदर्श गढ़े गए जिसको मुक्तिबोध धिक्कारते हैं कि अब तक क्या किया, जीवन क्या जीया, आदर्श खा गये, कुछ नहीं बचा, मर गया देश ज़िंदा रह गये तुम, बताओ किस किस के लिये तुम दौड़ गये, करुणा के दृश्यों से हाय मुंह मोड़ गये। अशोक वाजपेयी करुणा के दृश्यों से मुंह मोड़ने वाले कवि नहीं हैं क्योंकि वह कविता को राजनीति से अलग रखने वाले कवि हैं। वे ये भी कहते हैं कि कविता में शब्द पूर्वज शब्दों को गहरी नींद से जगाते हैं, किसी को नये शब्द का, किसी नये शब्द के जन्म से उल्लसित होते हैं। वो तो यहां तक कहते हैं कि कविता आत्मा और संबंधों की लॉ बुक जैसी है। कवि उसमें कुछ दर्ज करता है। ये अपने में एक प्रतिमान है कि आत्मा और संबंधो की लॉ बुक जैसी भी होती है कविता। उनके ये आलाप एक शिक्षा पद्धति जैसे हैं। ये किताब जिसकी मैंने शुरु में चर्चा की कविता क्या कब और क्यों, तो आप याद करेंगे कि कविता क्या है, जिस पर रामचंद्र शुक्ल ने तो ख़ूब विचार किया, कविता कहां होती है….हमारे काव्य शास्त्र में भी ख़ूब विचार हुआ। वह लक्षणा में होती है, व्यंजना में होती है…….वग़ैरह वग़ैरह…..। अशोक वाजपेयी अपने कवि समय में ये सवाल बहुत ज़ोर शोर से उठाते हैं कि ये ससुरी होती ही क्यों है?
पंकज चतुर्वेदी- ध्रुव जी ये जो कविता क्या है शीर्षक से कविता के नये प्रतिमान के शीर्षक से नामवर सिंह ने भी लिखा है।
ध्रुव शुक्ल- मैं कुछ और कह रहा हूं। मैं ये कह रहा हूं कि कविता क्या है इस पर पहले से विचार होता आया है। कविता कहां होती है इस पर भी काव्य शास्त्र में विचार हुआ है। लेकिन कविता क्यों होती है, अशोक जी के कविता को लेकर जो सारे विचार हैं वो बार बार कविता के क्यों होने को उकेरते हैं। आख़िर कविता लिखने की ज़रुरत क्या है? ये जो उनकी व्याकुलता है कविता को लेकर, ये हम सबके लिये कुछ सिखाती है और इसी व्याकुलता से अशोक जी अपनी कविता लिखते हैं।
पंकज चतुर्वेदी- ध्रुव जी ने बहुत अच्छा वक्तव्य दिया और मैं एक श्रोता के रुप में एक बात कहना चाहता हूं कि उन्होने जो ये ऋत प्रज्ञा वाली बात कही उस पर सविता जी ईको फ़ैमिनिज़्म के संदर्भ में कुछ कहें।
सविता सिंह- मैंने अशोक जी की कविताओं को सिलसिलेवार ढंग से क़रीब ढेड़ साल पहले पढ़ना शुरु किया। तो निश्चित तौर पर अशोक जी का ज्ञान और अनुभव मुझसे ज़्यादा है जहां तक उनकी कविताओं का मामला है या उनके संसार का। ईको फ़ैमिनिज़्म का जो मसला है, ये एक ऐसी विचारधारा है वो प्रकृति का जो आर्थिक शोषण होता रहा है और स्त्री के श्रम का जो शोषण होता रहा है उस संज्ञान से, उस तीक्ष्ण अनुभव से ये आंदोलन पैदा हुआ। इतना लावण्य, इतने लास्य हम नहीं बर्दाश्त कर सकते। उसके श्रम की स्थिति देखो, वो कितना प्रेम करने लायक़ बच जाती है वो देखो, उस तक प्रेम लाने वाला कवि किस हद तक उसे प्रेम से उबार सकता है, उसको जांचना होगा।
पंकज चतुर्वेदी- नहीं उबार सकता न, यही तो अशोक जी बार बार कहते हैं।
सविता सिंह- नहीं उबार सकता तो इसीलिये कि वो जो पुराना विमर्श है वो विमर्श जिस भाषा में मैं बात कर रही हूं, जिस सैद्धांतिक पक्ष पर मैं बात कर रही हूं, उसमें उसका सिर्फ़ एकेडेमिक महत्व है। उसका सैद्धांतिक महत्व इसलिये नहीं है कि स्त्रीवाद ख़ुद ही मुश्किल से ढेड़ सौ साल पुराना जिसमें स्त्री को अपनी चेतना, अपनी देह के प्रति व्यवहार……..इसमें प्रतिरोध है। मैं आपको ये बताना चाहती हूं कि ये ज़रुरी है, आपको लिये भी शायद कि आप इसको पढ़े, इसे जानें,…….कौरोलिन मर्चेंट की किताब है डेथ ऑफ़ नैचर। हम इतना क़रीब हैं अपनी मृत्यु के नहीं प्रकृति की मृत्यु के क़रीब। इससे भयावह और स्थिति क्या हो सकती है। जब प्रकृति मर जाएगी, क्या सृष्टि बचेगी, क्या स्त्री बचेगी, पुरुष बचेगा या कविता बचेगी? ये कन्सर्न वहां से आता है। किसी विद्वता से किसी स्त्री को जीतना बहुत मुश्किल है।
ध्रुव शुक्ल- मैं एक सवाल उठाऊंगा आपके सामने। व्याख्याकार ईश्वरकृष्ण ने बहुत अच्छी बात कही कि वास्तविकता तो प्रकृति ही है। मैं अक़्सर अपनी पत्नी से कहता हूं कि यथार्थ तो तुम ही हो, मैं तो प्रतीक मात्र हूं, मेरी धूल कब तक झड़ाती रहती हो। हमेशा सृष्टि में पुरुष काल्पनिक रहा है। वो वास्तविकता को स्वीकार नहीं कर पाता। स्त्री को स्वीकार करना पडेगा वही वास्तविकता है। सांख्य योग दर्शन में पुरुष काल्पनिक है, स्त्री को समझने के लिये पुरुष कल्पित कर दिया गया है। यो जो अनादि माया है, अनादि प्रकृति है ये पुरुष को कल्पित किये बिना नहीं समझी जा सकती। इसीलिये ईश्वर कल्पित है। हमारे छहों दर्शन ईश्वर के अस्तित्व को कहां मानते हैं। थोड़ा सा न्याय दर्शन संकोश वश ईश्वर की तरफ़ झुकता है कि हां कोई सत्ता होगी। सांख्य दर्शन जिससे सारे दर्शन प्रभावित हैं। वो तो ईश्वर को मानते ही नहीं हैं।
सविता सिंह- मैं तो एक ही बात कहूंगी कि आप स्त्री को सृष्टि के स्वभाव की तरह समझें। आप उसकी वास्तविकता को समझें और जानें कि उसके क्या हो गया है। क्यों हम इस ख़तरे में हैं, क्यों पूरी सृष्टि नष्ट होने को है इसी नासमझी की वजह से। अगर स्त्री को समझने के लिये खिड़कियां और दरवाज़े नहीं है तो मुश्किल ही है।
पंकज चतुर्वेदी- देखिये ऐसा है कि, मुझे माफ़ कीजियेगा….मैं ये कह रहा हूं कि ये जो प्रकृति, स्त्री और उसके बीच किसी मुश्किल के भी कवि हैं अशोक वाजपेयी। अशोक जी की एक कविता है छोटी सी जो मैं आज सुबह पढ़ रहा था। वो चार पंक्तियों की कविता है। आपके सामने विचार के लिये रख रहा हूं-
जैसे ओस भिगाती है हरी घास के हर तिनके को
वैसे क्या मेरा प्रेम मुद्रित कर सकता है उसके एक एक रोम को
ये दोनों एक दूसरे से स्वाययत्त स्थितियां नहीं है स्त्री और प्रकृति की और वो प्रकृति का जो स्वभाव है उससे कहीं न कहीं जुड़ न पाने का एक क्लेश दिखाई पड़ता है इस कविता मैं। इतने सरल समीकरण की अगर वो कविता है तो कहें तो वो मुश्किल की भी कविता है।
सविता सिंह- इस संग्रह में अशोक जी की एक कविता है जिसमें वह कहते हैं कि हम पृथ्वी को उठाते हैं।
मनीष पुष्कले- एक जगह वह यह भी कह रहे हैं कि उसमें जो अव्यय है उसी को छूने की चेष्टा करता हूं, ये क्या है?
सविता सिंह- इसे बचाने की बहुत सी बातें हैं। वह प्रेम के पास दोबार जाते हैं, अपनी ही कविताओं में दोबारा जाते हैं। एक जगह कहते हैं कि प्रेम ही संभावना है, सत्य से बड़ी चीज़ है प्रेम। यानी कि जो रिलेशनशिप है हमारी, जो संबंध है, हम संबंधों को जांचे, उन्हें ठीक करें। जो स्त्री स्वभाव को नहीं समझेगा वो उसको प्रेम नहीं कर सकता। स्त्री को अगर समाज में प्रेम नहीं है सिर्फ़ उसका शोषण है तो ये नष्ट होना ही है। एक लिमिट तो आ ही जाती है।
ध्रुव शुक्ल- मैं एक बात और जोड़ता हूं। हम दर्शन में प्रकृतियों के जिन पांच विषयों की चर्चा करते हैं वो अशोक जी की कविताओं में भरे पड़े हुए हैं, रुप, रंग, गंध, स्पर्श और आकाश और शब्द। प्रकृति इन पांच विषयों से भरी हुई प्रेम है। बहुत गहरी देह है स्त्री की। रुप है, रस है, शब्द है, स्पर्श है, गंध है इसीलिये स्त्री पृथ्वी की भी प्रतिनिधि कही जाती है, क्षमा का मूल्य भी स्त्री में, पृथ्वी में कल्पित किया गया है। क्यों किया गया है? उसके अंदर हठ और धीरज एक साथ होते है। हठ और धैर्य का जो बल उसेक पास होता है, आप अपने आत्मभाव की सेंध उसमें लगा ही नहीं सकते, आप विफल हो जाते हैं। इसीलिये स्त्री के स्वभाव को हठपूर्वक नहीं जाना जा सकता। हमारे दर्शन कहते हैं कि हम अपने हठ से स्वभाव को नहीं जान सकते, उसके लिये सहज हो जाना पड़ेगा। हठ से नहीं पाया जा सकता क्योंकि प्रकृति वही करेगी जो करना चाहती है, आप जो चाहते हैं वो वह नहीं करेगी और यहीं द्वंद पैदा होता है।
सविता सिंह- तो बड़ा काम करती है न। वो आपके हठ से कहां टिक पाएगी, वो जानती है उसका काम क्या है, स्वभाव क्या है।
ध्रुव शुक्ल- हमारे यहां अनादि प्रकति पर जितना विचार हुआ है उतना ईश्वर पर नहीं हुआ है। उस अर्थ में तो हम शताब्दियों से फ़ैमिनिस्ट हैं, फ़ैमिनिज़्म तो बहुत बाद में आया। हम लोग क़रीब साढ़े सात हज़ार साल से फ़ैमिनिस्ट हैं।
सविता सिंह- लेकिन हम अपने सिद्धांतो को भूल चुके हैं।
ध्रुव शुक्ल- हम अपनी परंपरा को इतना भूल चुके हैं कि अभी आपने एक शब्द इस्तमाल किया न कि हमारे लिये ये अब एकेडिमिक विषय हो गया। अपनी परंपरा को एकेडिमिक मान बैठे हैं वो एक बड़ी समस्या है, क्यों मान बैठे हैं?
सविता सिंह- हम उसको बहुत हद तक जीते नहीं है।
ध्रुव शुक्ल- स्वरार्थ में जटिलता होती है, परमार्थ तो बहुत सरल है। इस समय विचार, कर्म, राज्य व्यवस्थाए, सभ्यताएं, सब स्वार्थी जटिलताओं में फंस गये हैं। अगर वो परमार्थ की तरफ़ ज़रा जाना शुरु कर दें तो प्रकृति उनके क़रीब अपने आप आ जाएगी।
सविता सिंह- मुझे लगता है कि स्त्री इसके बावजूद अपने स्वभाव को जी रही है नहीं तो चीज़े नष्ट हो ही जाती।
ध्रुव शुक्ल- स्त्री ही बचाये हुए है सृष्टि को। जिस दिन स्त्री नहीं बचेगी उस दिन सृष्टि नष्ट हो जाएगी।
पंकज चतुर्वेदी- आप दोनों ही दरअसल एक ही बात कह रहे हैं। मुझे ख़ुशी है आप दोनों अंतत: एकमत हो गये हैं, कहां इनका फ़ैमिनिज़्म और कहां ऋत की प्रज्ञा लेकिन फिर भी आप लोग एक ही मंज़िल पर पहुंचे, ये सुखद आश्चर्य है।
सविता सिंह-गहरे अर्थ में हम दोनों एक ही ज़मीन पर हैं।
पंकत चतुर्वेदी- आप दोनों कवि हैं, व्योमेश भी कवि हैं। मैं एक छोटा सा सवालकरना चाहता हूं कि आपने इस बात का बार बार इसरार किया कि भाषा के माध्यम से सच का अनुसंधान, भाषा में कविता सच को अविष्कृत करती है, भाषा की केंद्रीयता है, भाषा पर निर्भरता है, अशोक जी उद्धरित करते हुए आप बार बार ये कह रहे थे। मेरा छोटा सा सवाल है आपसे कि भाषा के अलावा कविता की रचना में मौन की भी तो भूमिका होती है?
सविता सिंह- एकेडिम ढंग से भी इसे कह सकते हैं कि भाषा में ही मौन है, भाषा के बाहर मौन नहीं है।
ध्रुव शुक्ल- मौन अगर एक शब्द है तो वो भाषा के अंतर्गत है। जैसे अशोक जी परेशान होते हैं कि न होना अगर एक शब्द है तो भाषा के अंतर्गत है, वो भाषा के बाहर नहीं है।
पंकज चतुर्वेदी- भाषा का अगर घटाटोप होगा तो बेचारा मौन तो मारा जाएगा।
ध्रुव शुक्ल- मैं आपको अज्ञेय की एक कविता याद दिलाता हूं-
मैं, मौन-मुखर, सब छंदों में
उस एक अनिर्वच, छंद-मुक्त को गाता हूं।
पंकज चतुर्वेदी- आपने बहुत अच्छी कविता उद्धरित की लेकिन भाषा बुनियादी चीज़ नहीं है मौन है बुनियादी चीज़।
ग़ालिब का एक बहुत मशहूर शेर है-
नश्व-ओ-नुमा है अस्ल से ‘ग़ालिब’ फ़ुरूअ’ को
ख़ामोशी ही से निकले है जो बात चाहिए
सविता सिंह- दरअसल मौन के बग़ैर अर्थ भी पैदा नहीं किये जा सकते। …..जो स्पेस है वो मौन है।
पंकज चतुर्वेदी- आप लोग कवि हैं, यही तो मैं जानना चाहता हूं कि मौन भाषा के अंतर्गत है या भाषा के अंतर्गत मौन है।
ध्रुव शुक्ल- मौन एक ऐसा स्वीकार्य है जहां हम बोलते बोलते चुप होना चाहते हैं। हम कहते कहते जिस बिंदु पर चुप होते हैं वहां मौन की स्वीकृति हम ही देते हैं।
पंकज चतुर्वेदी- बोलना ज़्यादा इंपॉर्टेंट है या मौन रहना?
ध्रुव शुक्ल- कवि के लिये दोनों।
पंकज शुक्ल- एक इंटरव्यू में मैंने विनोद कुमार शुक्ल से कहा कि आप इतना चुप क्यों रहते हैं तो उन्होंने कहा कि चुप रहना एक तपस्या है। नरेंद्र मोदी तो बहुत बोल रहे हैं, वो तो वाचाल हैं।
ध्रुव शुक्ल- वो तपस्वी नहीं हैं न
पंकज चतुर्वेदी- उनकी जो वाचलता है वो लगातार भाषा का विस्फोट है, वो किस काम का है?
ध्रुव शुक्ल- असल में जो व्यर्थ ही यशस्वी हो जाते हैं वो तपस्वी नहीं हो पाते।
मनीष पुष्कले- रज़ा के चित्रों के संबंध में मैं ये कहना चाहूंगा कि जो रंगों के बीच में छूटा हुआ सफेद है वोभी मौन है।
सविता सिंह- वो नथिंगनैस है, वहां कुछ नहीं है, न भाषा, न जीवन
पंकज चतुर्वेदी- मैं आपसे गुजारिश करुंगा कि इस पर आप विचार कीजियेगा अभी न सही। ख़ामोशी से ही निकले वो बात चाहिये।
सविता सिंह- पंकज आप ख़ामोशी को लिटरैली ले रहे हैं।
ध्रुव शुक्ल- पंकज जो बात कह रहे हैं वो समझ रहा हूं, हो सकता उसका उत्तर उन्हें अभी नहीं सूझ रहा हो, बाद में खोजेंगे।
पंकज चतुर्वेदी- नहीं, मैं लिटरैली नहीं ले रहा हूं। वो कह रहे हैं महाशून्य का शिविर जो कविता न्होंने कोट की है, उससे मेरी बात जुड़ जाती है। मौन बहुत बुनियादी चीज़ है। मैं केवल अभी इतना ही इसरार कर रहा हूं।
सविता सिंह- बहुत सारे लोगों ने कहा है कि आप उस चीज़ को उस मौन को सिर्फ़ मेहसूस कर सकते हैं। वो एक तरह की एक जगह है जिसको परिभाषित नहीं कर सकते।
पंकज चतुर्वेदी- वो जगह है इसीलिये तो ग़ालिब कहते हैं कि आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में।
सविता सिंह- वो एक पूरी दुनियां है जो भाषा से बनती है, वैसा स्पेस तो नहीं है। इसलिये इस बारे में कुछ न ही कहना बेहतर है। जितने बड़े फ़िलॉसफ़र हुए हैं उन्होंने यही कहा है कि there is no world like this. और सबसे आसान तो ये हुआ कि हमारे दर्शन में लोगों ने ये कहा कि आप ब्रह्म को समझने चले तो ख़ुद ही ब्रह्म हो गये than you won’t speak ….आपने तो उसी स्वभाव को स्वीकार कर लिया।
पंकज चतुर्वेदी- मैं जो कह रहा हूं वो ये कि वो जो होना है उसी न होने से निकलकर आता है। वो भाषा उसी मौन के गर्भ से निकलकर आती है।
सविता सिंह-लेकिन उसके बारे में हम कुछ भी कह नहीं सकते हैं। फिर हमें भाषा में ही आना पड़ेगा कहने के लिये।
पंकज चतुर्वेदी- कह भले न सकते हों लेकिन कवि को तो काम करना है उस मौन के साथ।
सविता सिंह- निश्चित तौर से। हम मूड क्रिएट करते हैं, बिंब क्रिएट करते हैं उसी मौन का सहारा लेकर।
पंकज चतुर्वेदी- आप लगातार काम करते हैं केवल भाषा के साथ नहीं मौन के साथ भी।
सविता सिंह- बहुत सारे लोग नहीं भी करते हैं।
पंकज चतुर्वेदी- नहीं करते होंगे लेकिन ये कहना कि भाषा पर एकांत की निर्भरता है ये मेरे लिये थोड़ी असुविधाजनक है।
सविता सिंह- जैसा कि ध्रुव जी ने कहा, अशोक जी सांसारिकता के कवि हैं। जिस रियेलिटी की ये बात कर रहे हैं, वो पहले से ही रची हुई चीज़ है। उस पर लाखों, करौड़ों बार बातचीत हो चुकी है। वो शब्दों में है, वो लैंग्वेज में है, वे उसके कवि हैं।
पंकज चतुर्वेदी- वो हैं लेकिन फिर वो चुप क्यों हो जाते हैं कि ये कहकर कि वो -कैसे कहेगी हां।
सविता सिंह- इस पर मैं क्या बताऊं। कभी और इस पर चर्चा करेंगे। वो बंधन है प्रतिसत्ता का….
ध्रुव शुक्ल- पंकज तुम भाषा की बात कर रहे हो, अशोक जी ने अपनी ही एक कविता में कहा है कि वह असंभव संस्कृत लिखना चाहते हैं। वो अपनी प्रिया का वर्णन असंभव संस्कृत में करना चाहते हैं। ये उनकी कविता में कहीं ऐसा भाव है।
पंकज चतुर्वेदी- वहां तो हर कवि जाना चाहता रहा है।
सविता सिंह- अगर वो स्त्री है तो नहीं मिलेगी। कम से कम इस भाषण से तो नहीं मिलेगी।
पंकज चतुर्वेदी- प्रेम असंभवता के विषाद की कविता है। मैंने कहां कहा कि वो स्त्री मिल गई, वो स्त्री न मिलने की ही कविता है।
सविता सिंह- हां तो आप दुखी होते रहिया नहीं तो अपने स्तर को बदलिये।
पंकज चतुर्वेदी- मैं दुखी नहीं हूं…
सविता सिंह- हम तो कवि के बारे में कह रहे हैं
पंकज चतुर्वेदी- पता नहीं वे दुखी हैं या नहीं, मुझे तो वो सुख के ही ज़्यादा कवि लगते हैं। कह भले रहे हों कि मैं दुखी हूं लेकिन सुख उनके यहां प्रधान है।
सविता सिंह- लेकिन ध्रुव जी एक संवेदनशील और मित्रवत व्यक्ति ये कहता है कि वो गुमसुम रहते हैं, उनके चेहरे पर दुख की छाया दिखती रहती है।
व्योमेश शुक्ल- कुछ बातें होती हैं इतनी मल्टीलेयर्ड कि उसका एक ही मतलब नहीं निकला जाना चाहिये अन्यथा सरलीकरण हो जाएगा।
पंकज चतुर्वेदी-अगर आप भाषा को ही सब कुछ मानते हैं तो इस बात कोभी सच मान लीजिये कि वो दुखी हैं क्योंकि वह कह रहे हैं। सविता जी मान लें कि वो दुखी हैं।
सविता सिंह- पंकज आपको क्यों लगता है कि मैंने रिइंटरपिटेशन क्यों किया? आपको क्यों लगता है कि वह अपनी कविताओं में दोबारा गए? मैं जहां तक समझती हूं ध्रुव जी, मेरी अंडरस्टेंडिंग लेयर्ड है, ऐसा नहीं है कि मैं वन डायमैंशनल क्रिटिसिज़्म कर रही हूं। अगर ऐसा होता तो मैं वो सब नहीं देख पाती जो उन्होंने किया है, एक नदी का मुड़ना, एक नदी का उस दिशा में जाना। ये सब आप तभी देख सकते हैं जब आपके भीतर वो पेथॉस हो, तभी आप देख सकते हैं। मझे अपने लेख को दोबारा ठीक करना है। अगर कोई व्यक्ति समझता है जैसे ध्रुव जी कह रहे थे कि मेरे भीतर जब अवसाद होगा तभी मैं दूसरे के अवसाद को समझ सकूगा। एक पोएटिक पैथॉस है जो मेरे अंदर है, इसकी वजह से मैंने ये सब किया है।
मनीष पुष्कले- मैं एक बात ज़रुर कहना चाहता हूं कि एक तरफ़ अशोक जी र रज़ा साहब का जो साथ है, दोनों की जो दोस्ती है वो एक अदाहरण है और दूसरी तरफ़ यानी कि एक तरफ़ रज़ा साहब जैसे कलाकार उनकी पीढ़ी कृष्ण खन्ना, गायतोंडे, तैयब मेहता और दूसरी तरफ़ एक हमारी पीढ़ी और हमारे अलावा…मतलब मैं अपनी और रज़ा साहब और अशोक जी की बात करता हूं तो एक बात सामान्य रुप से अंडरलाइन हो जाती है कि सब मध्य प्रदेश के हैं, एक ग्रुप है, किसी ने एक पोस्ट भी लिखी थी पंकज जी आपने एक पोस्टर भी शैयर किया था कि एक घराने के एक साथ के लोग। तो ऐसा परसेप्शन तो मामूली सी बात है लेकिन अशोक जी में एक नयी बात जो देखने को मिलती है वो ये है कि वो इस पर तो नज़र रखते ही हैं कि मध्य प्रदेश में या उनके प्रज्ञा परिसर में रहने वाले चित्रकार क्या कर रहे हैं। लेकिन इसके अलावा बाहर क्या हो रहा है, दूसरी जगह के नवाचार पर भी वह बातचीत करते हैं। ऐसा नहीं है कि उन्होंने अपना सारा नैरेटिव एक घेरे में ही रखा हुआ है क्योंकि चित्रकला के संदर्भ में उनका जो नरैटिव है वो साहित्य जगत में उस प्रधानता से नहीं आता, वो हमें दिखता है। हमें कविता अच्छे से सुनाई देती है और उनका देखा हुआ चित्र भी अच्छे से दिखाई देता है। मैं कहने की ये कोशिश कर रहा हूं कि एक तरह की visual illiteracy जो मैं बहुत सारे राइटर्स में देखता हूं , ऐसा हुआ है कि बहुत सारे राइटर्स पहले मूलत: आर्ट क्रिटिक नहीं हैं। तो possibility of your own के जो chances हैं, वो कहीं कहीं बहुत कम हो जाता है। सबको एक वैनेशिंग पाइंट तो चाहिये। लेकिन point of view कहां है? अशोक जी के यहां वैनेशिंग पाइंट के लिये भी स्थान है और पाइंट ऑफ़ व्यू के लिये भी स्थान है। वैनेशिंग पाइंट कहीं पर भी जाकर टिक सकता है और पाइंट ऑफ़ व्यू किसी का भी हो सकता है बशर्ते कि उसमें कोई दम हो। रज़ा फ़ाउंडेशन में पिछले कुछ सालों में जो प्रदर्शनियां हुई हैं वो मध्य प्रदेश केंद्रित प्रदर्शनियां नहीं हैं। वो राष्ट्रीय स्तर की प्रदर्शनियां हैं, वो प्रतिभा का प्रदर्शन है।
व्योमेश शुक्ल- अशोक वाजपेयी जी को उनकी कविता के माध्यम से पूरा का पूरा नहीं जाना जा सकता। जैसे हम संत कबीर के सिलसिले में उनको याद कर रहे थे तो मुझे यहां चौरामठ से जुड़ी एक बात याद आ गई। इसका जो दिल्ली ऑफ़िस है उसके लिये ज़मीन के एलॉटमेंट से लेकर उसकी बिल्डिंग तक के लिये सरकार की ओर से धन उपलब्ध कराने तक का काम। उस सोसायटी का नाम था सतगुरु कबीर मंदिर सोसायटी। कबीर के साथ मंदिर लगा हुआ था तो संस्कृत मंत्रालय के अधिकारियों की नासमझी देखिये कि उन्होंने कहा कि हम किसी मंदिर को ग्रांट नहीं देते जबकि वो कबीर के नाम पर बनने वाला एक शोध केंद्र, साहित्य का…..बेशक उसका नाम मंदिर था। अशोक जी के अलावा कौन था जो इस जटिलता को समझता। उन्होंने कहा कि वो मंदिर नहीं जिस अरथ में आप समझ रहे हैं। उन्होंने ग्रांट दिलवाई और इस तरह दिल्ली में कबीर चौरा संभव हुआ।
मनीष पुष्कले- हम या तो स्वामीनाथन की बात करते हैं या फिर रज़ा की बात करते हैं, लेकिन अशोक वाजपेयी जी एक ऐसा केंद्र बिंदु हैं जिनके पास दोनों का युग्म है, इसे समझने के लिये एक नैरेटिव बनाना पड़ेगा, चित्रकला को लेकर उनका जो दृष्टिकोण है उसमें स्वामीनाथन एक सिरे पर हैं और रज़ा दूसरे सिरे पर। अशोक जी इन दो सिरों के बीच जिस तरह से विचरते हैं वो एक नया दृष्टिकोण पैदा करता है। बहुत गहरा अंतर है स्वामीनाथन और रज़ा में। ये बात अळग है कि दोनों का संबंध मध्य प्रदेश से अलग अलग तरीक़े से है लेकिन मध्य प्रदेश केंद्र में रहता है। ये भी बात अलग है कि अशोक जी भी वहीं से हैं तो दुनियां को कहने के लिये बहुत मुद्दे मिलते हैं लेकिन मुद्दे की बात कोई नहीं करता।
ध्रुव शुक्ल- मैंने अशोक जी के साथ पिछले 35 सालों के अनुभव में पाया कि कोई भी व्यक्ति उनके पास एक रचनात्मक प्रस्ताव लेकर जाता है तो मैंने आज तक नहीं देखा कि उन्होंने उससे इंकार कर दिया हो। वे तुरंत कहते हैं कि हां इसको करते हैं। अगर वे ख़ुद अपने संसाधनों से उसे करना चाहते हैं तो उसमें मददगार होना चाहते हैं और वे अपने संसाधनों से नहीं कर सकते तो कोई सलाह दोते है कि ऐसे कर लो। वो ये भी कहते हैं बनाने वाला आगे आगे चलता और इसे मिटाने वाला भी ठीक पांच क़दम पीछे पीछे चलता रहता है। वे डायरी में एक जगह कहते हैं कि मेरा जो भी रचनात्मक कर्म है, including poetry, एक स्थायी अवसाद मेरे अंदर घर कर गया है। एक बार उन्होंने मुझसे कहा था कि मुझे हड़बड़ी रहती है कहीं पहुंचने की, घर जाना चाहता हूं क्योंकि मेरे मन में एक भाव रहता है कि अगर वहां नहीं पहुंचा तो शायद कोई काम बिगड़ जाएगा। उनमें रचने की, बनाने की, सहयोग देने की जो उत्सुकता है, जो निर्माता में होती है , जो संस्था बना रहा है, रच रहा है, विचार प्रकट कर रहा है, लड़ भी रहा है, प्रतिवाद भी कर रहा है। अशोक जी ने जितने प्रतिवाद किये हैं वो हज़ार पेज का दस्तावेज़ बन सकता है। वो पत्रकारों से लड़े, लेखकों से लड़े, राजनेताओं से लड़े। उनका बहुत सा समय प्रतिवाद करने में बीत गया। वो सब लोगों के साथ बैठे हैं फिर भी लोगों ने उन्हें अलोकतांत्रिक कह दिया, ठोस और ठस भी कह दिया। नामवर जी ने अशोक जी की कविता को न जाने किस मूड में ठोस औऱ ठस कह दिया। मैंने उनसे पूछा कि ये कविता तो कहीं से भी ठोस और ठस नहीं लगती, ये तो बड़ी सरस कविता है, आपकी आलोचना ज़रुर कहीं न कहीं ठोस और ठस हो जाती है।
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