अस्सलाम-ओ-अलेकुम…मैं हूं आरिफ़ फ़रुख़ी…..मेरी तहरीरों का सिलसिला तालाबंदी का रोज़नामचा जारी है। इस उनवान के तहत जो तहरीर मैं पेश कर रहा हूं उसका नाम है वबा के दिनों में चांद और काला जल। कल चौदहवीं की रात थी..पूरे चांद को देखने के लिये घर से बाहर नहीं निकलना पड़ा। सामने वाले मिर्ज़ा साहब के छज्जे वाले मकान के ऊपर आसमान पर वह इस तरह से चमक रहा था कि मुझे कमरे से दिखाई देने लगा। आज ये मग़रिब के वक़्त निकल आया और रात को तब तक इसी जगह चमकता रहेगा जिस वक़्त आजकल मोहल्ले के लड़कों ने अज़ान देने का वक़्त मुक़र्रर किया हुआ है। रात का गहरा सन्नाटा छा जाने के पहले अज़ान की आवाज़ गूंजने लगती है और मैं हर बार चौंक उठता हूं -इस वक़्त अज़ान कैसी? आज चौंकने के पहले चांद दिखाई दे गया, ये गुलाबी रंग लिये हुए नहीं बल्कि सुर्ख़ी माइल, नीलगूं और एक तरफ़ से सुरमई बादलों में लिपटा हुआ। ये सुपर मून है, मैंने अपने आपको याद दिलाया कि सुबह के अख़बार में कोरोना की फैलती वबा के अलावा भी कोई और ख़बर पढ़ी थी। ये सुपर मून है और ब्लू मून। अख़बार में ये तफ़्सीलात भी मैंने ज़हननशीं कर ली थीं, अख़बार से पढ़कर। इसको क्या नाम दूं, नीला चांद या महाचांद…? माहेरीन-ए-फ़लकियात अपनी बात कह रहे हैं, उधर नजूमी का इंतिबाह भी आ गया कि ऐसे किसी पिछले मौक़े पर उन्होंने कहा था कि इस तरह के चांद से क़ुदरती आफ़ात का ख़तरा बढ़ जाता है। क्या ये कोरोना वायरस भी इसी फ़ेहरिस्त में आएगा? मैं इस बात पर ज़्यादा ग़ौर नहीं करता क्योंकि मैं चांद को देखे जा रहा हूं…गोल, उभरवां और इसके ऐतराफ़ में बारीक सुफ़ूफ़ जैसा उजाला, जहां चांद है वहां आसमान भी रौशन है। खिड़की के सामने खड़े खड़े टांगे जवाब देने लगती हैं तो अंदर आ जाता हूं। आज शब-ए-बारात है और मैं क़ब्रिस्तान नहीं जा सका। इन दिनों जो तालाबंदी जारी है, इसके लिये ख़ासतौर पर सरकारी हिदायात आ गईं थी कि लोग क़ब्रिस्तान का रुख़ न करें, घर पर ही फ़ातिहा पढ़ लें। टेलीविज़न की ख़बरों में बता दिया गया है कि क़ब्रिस्तानों में रौशनी का इंतज़ाम नहीं होगा और पुलिस का पहरा सख़्त होगा। मुझे यक़ीन है कि करांची के बेफ़िक्रे दीवार फ़ांदकर क़ब्रिस्तान में दाख़िल हो जाएंगे। ख़ुदा मालूम कि इस मामले में इतनी बेतवज्जोही क्यों है। शाम के वक़्त असर से कुछ पहले मैंने हलुए की एक प्लेट पर फ़ातिहा दे दी थी। दुआ मांग ली पर हलवा न चख़ा, ख़ून में शक्कर की मिक़दार भी तो बढ़ रही है। दिनभर कुछ न करने से थक हारकर मैं बिस्तर पर लेट गया और तब मुझे वो किताब याद आई और मैंने उसे आज रात दोबारा पढ़ने का फ़ैसला किया। तबर्रुक के तौर पर, दुनिया से चले जाने वालों लोगों की याद की तौर पर, शानी का नॉवल काला जल। मुझे काला जल याद आया और मैंने पढ़ना शुरु किया जैसे कोई करीम रस्म अदा करने जा रहा हो। शब-ए-बारात की तक़्कदुस भरी रात, मुर्दों का एहतराम और ज़िदों की हिफ़ाज़त की दुआ की इबारत, इस मौक़े पर पढ़ने के लिये ऐन मुनासिब। देर गए ये किताब बिस्तर पर लेटे लेटे पढ़ता रहा। चांद डूब गया, रात के आसार छटने लगे तब जाकर आंख झपकी। कच्ची नींद में भी वही मंज़र आंखों में घूमते रहे।
शानी के नाम से लगता है कि कोई साड़ी लपेटे कोई हिंदुस्तानी महिला होंगी मगर असल में उनका नाम गुलशेर ख़ान था, शानी क़लमी नाम था। भोपाल से ताअल्लुक रखने वाले ये अदीब हिंदी के जदीद अफ़साना और नॉवलनिगारों में एहमियत रखते थे। इनका नॉवल काला जल शाया हुआ और मुमताज़ अस्सर अज़ीज़ राजेंद्र यादव ने तआर्रुफ़ में लिखा कि अपनी ज़बान, अंदाज़-ए-बयान और नुक्ता आफ़रीनियों में मजमुई तौर पर क्लासिकी नॉवलनिगारी के तेवर लिये काला जल आज़ादी के बाद चंद बेहतरीन नॉवलों में से एक है और ये कि वे बेझिझक इसका मुक़ाबला और किसी नॉवल से कर सकते हैं। ये तआर्रुफ़ हैदर जाफ़री सय्यद के तर्जुमे में शामिल है जो मकतबा-ए-शेर-ओ-हिकमत हैदराबाद दक्कन नाम के जरीदे में शाया हुआ। इसके मुदीरान शहरयार और मुग़नी तबस्सुम थे। मुझे इन सफ़हात में पढ़कर इतना पसंद आया कि फिर पाकिस्तान से अपने क़ायमकर्दा इदारे शहरज़ाद से शाया किया। ये 2004 की बात है। नाशिरों की ज़बान में ये तर्जुमा ज़्यादा उठा .नहीं है और ज़्यादा लोगों के पास तक नहीं पहुंच पाया मगर जिन लोगों ने पढ़ा उनमें से दो लोगों की तारीफ़ मुझे आज भी याद है। सबसे पहले इंतज़ार साहब ने पढ़ा। उन्होंने ख़ासतौर पर इस अंदाज़ को सराहा कि शब-ए-बारात की फ़ातिहा के ज़रिये से किरदारों को सामने लाया जा रहा है। ख़ालिदा हुसैन ने मुझसे कहा कि बड़े मार्के की किताब है और उनकी इजाज़त से ये जुमला किताब के इश्तहार में शामिल कर लिया जो दुनियाज़ाद में शाया हुआ। हैदर जाफ़री सय्यद के कई तर्जुमें मुझे शाया करने का मौक़ा मिला मगर इस नॉवल की वजह से वो दिल में घर कर गए और उनकी बदौलत शानी भी।
शानी की एकाध कहानी किसी न किसी अदबी रसाले में पढ़ रखी थी और अच्छी भी लगी। कहानियों से पता चलता था कि भोपाल में रहते हैं और वहां की ज़िंदगी को बड़ी ख़ूबी से अपना मोज़ू बनाते हैं। इस तरह कुछ अरसे के बाद मंज़ूर एहतेशाम का नाम मैंने सुना और फिर उनका नॉवल सूखा बरगद पढ़ने को मिला लेकिन ज़्यादा मुतासिर किया उनके दास्तान-ए-लापता ने जो मैंने अंग्रेज़ी तर्जुमे में पढ़ा। इसके दिबाचे में लिखा था कि मंज़ूर एहतेशाम की ज़बान, बोलचाल की उर्दू के क़रीब है और इनके किरदार अक्सर मुसलमान हैं मगर मेरे पसंद करने की वजह सिर्फ़ इतनी नहीं थी। शहर के गली मोहल्लों में खोए हुए लोगों, अधूरे किरदारों और आदमी की परछाईं को सूरज ढ़लने के पहले थाम लेने की लगन अच्छी लगी कि इस तरह के भरपूर ज़िंदगी के रस जस में डूबे मुरक़्क़े को पढ़ने को कम मिलते हैं। अच्छा नॉवल तो किसी भी वक़्त अच्छा लग सकता है मगर काला जल शब-ए-बारात में पढ़ना बिल्कुल फ़ितरी मालूम हुआ कि इसी एक रात और इसमें अदा की जाने वाली रुसूफ़ नॉवल का तानाबाना उभरता है। तो फिर किरदारों की और उनके साथ इस पूरे इलाक़े की ज़िंदगी को समेट लेता है। शाम के अंधेरे, मोहल्ले की आवाज़ें, साये और बदबू के बयान से शुरु होता है ये नॉवल और अपने साथ ले लेकर चल पड़ता है। इसी बीच धीरे से ये एहसास आता है- उनका रुमाल से ढ़का सिर देखकर यक़ीन हो गया कि क़ासिम भाई फ़ातिहा देने के लिये घर जा रहे हैं। आज शब-ए-बारात है और अपनी बेगानी रुहें घर की दहलीज़ पर मुन्तज़िर होंगी। कैन सी रुहें, कैसा इंतज़ार? ये नॉवल है की दहलीज़ है और बहुत से लोग मुंतज़िर मौजूद हैं। फिर नॉवल में छोटी फ़ूफ़ी का ज़िक्र आता है और छोटी फ़ूफ़ी ये बात करती हैं कि ये तवज्जोह करने का बेशक़ीमती मौक़ा है जब जन्नत के दरवाज़े खुल जाएंगे और एक रात की इबादत कई सौ बरसों के सजदे के बराबर होगी।
छोटी फ़ूफ़ी फिर ऊददान मंगाती हैं और एक फ़ेहरिस्त किसी पुरानी पेटी से निकलवाती हैं जिसमें अव्वल से आख़िर तक ख़ानदान के सारे मरहूमीन के नाम दर्ज हैं। बहुत पुराने काग़ज़ पर घुंघली स्याही में फ़ूफ़ा की तहरीर में साफ साफ पहचाने जाते हैं सबके नाम। फिर नॉवल का इक़तिबास पढ़ता हूं। ज़माने से चले आ रहे अक़ीदे और ईमान के मुताबिक़ मैंने तसव्वुर किया कि फ़ूफ़ा समेत और सारे गुज़रे लोगों की रुहें आज इस घर के गोशे गोशे में उतर कर फ़ातिहा का इंतज़ार कर रही हैं लेकिन उनके नाम पर लोबान छोड़ने वाला मोहसिन आज शब-ए-बारात पर भी घर पर नही है। यूं शब-ए-बारात से बना है नॉवल का ढांचा। रुहें एक एक करके सामने आती हैं, उनका हवाल क़िस्से के तौर पर सुनते हैं और जब क़िस्सा बयान हो जाता है तब उनके लिए दुआ होती है। जैसे दूसरे बाप के आख़िर में आया है कि आयत ख़त्म करते हुए मैंने मुंह पर हाथ फेर लिया और दुआ की कि ऐ परवरदिगार इस दुआ का सवाब मिर्ज़ा करामत बेग की रुह को बख़्श दे, वही मिर्ज़ा साबह जिनका दम निकलने और रुह तन से जुदा होते हमने अभी चंद लम्हे पहले देखी थी। पुराने किरदारों की रुहें आती हैं और बख़्शीश की दुआ करवाकर रुख़सत होती हैं मगर इन रुहों की वजह से नॉवल आसेबी मालूम नही होता। इस पर नहूसकॉत और बद्दुआओं का साया है उन ज़िंदा लोगों की वजह से जो एक दूसरे के साथ बहुत उठे हुए, कहीं जायज़, कहीं नाजायज़ रिश्तों में बंधे हुए हैं। इस हद तक पुरअसरार और नाक़ाबिल-ए-यक़ीन मालूम होने लगते हैं कि ये बदरुहें कौन सी शब-ए-बारात की दुआओं के बाद पीछा छोड़ेंगी, इनसे छुटकारा पाना भला कहां मुमकिन है, शायद कहीं नहीं। इसीलिये नॉवल के उनमान में वो बंद पानी अब रुका हुआ है, जो अब ख़राब होकर बू देने लगा है और बदरंग हो गया है। ये वही काला जल है जो लातिन अमेरिका के बेमिसाल अदीब कार्लोस फ़ुएंटेस के नॉवल आब-ए-सोख़्ता या बर्न्ट वॉटर की याद दिलाता है। अब पानी कैसे सोख़्ता हो सकता है? उसी तरह जैसे काला हो सकता है। एक नामुमकिन सी वाक़ियत और इसका मुकम्मल इस्तेआरा है काला जल। किताब के तआर्रुफ़ में राजेंद्र यादव ने लिखा है कि इसका नाम काला पानी होता तो बेहतर था लेकिन उर्दू के तआल्लुक से नहीं काला पानी का मुहावरा बन गया है और जज़ाइरे अंडमान की सज़ा के बारे में मौलाना थानेसरी की किताब तारीख़-ए-अजीब अल मारूफ़ में.काला पानी मौजूद है। असीरी की तख़्वीम ज़दा सूरत में इन दिनों तो हम भी हैं, ये तालाबंदी देख रहे हैं। पूरे चांद में आधी तालाबंदी इस पर मुझे ज़िंदानामा वाले फ़ैज़ नज़र आते हैं-चांद को गुल करें तो हम जानें कि ये चांद किसी ताले में बंद नही किया जा सकता।
आसिफ़ फ़रुख़ी
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