हज हमारी गोमती तीर,
जहाँ बसे पीतांबर पीर
वाह–वाह किया खूब गावता है
हरि का नाम मेरे मन भावता है ।
नारद–सारद करे खवासी
पास बैठी बीवी कमला दासी
कंठे माला, जिह्वा राम
सहस नाम ले–ले करूँ सलाम ।
कहत ‘कबीर’ राम गुन गाऊँ ।
हिन्दू तुरक दोऊ समझाऊँ ॥
हर चीज“मरणोपरांत बदल जाती है
सदियों में कुछ नहीं बदलता है।
—लेबनान पर फ्रेंच राजनीतिक क्लॉड चेसन
ऊपर उद्धृत पद उत्तर भारत के मध्यकालीन रहस्यवादी और कवि कबीर का है। यह हिन्दू–मुस्लिम विरोध से मुताल्लिक उनके, न केवल उनके, रवैये का निदर्शन करता है बल्कि उसके सार को भी प्रस्तुत करता है। इसमें कोई अतिरिक्त क़यास या दावा नहीं है, न ही उसकी उपेक्षा का भाव है और न ही उसे नज़रअन्दाज़ कर सपाट तरीके से प्रस्तुत किया गया है बल्कि कवि उसे स्वीकार करता है, भोगता है और तब विरोधाभासों की एक श्रृंखला के रूप में उनमें सामंजस्य की खोज करता है।
ऐसा क्यों है कि एक सन्दर्भ विशेष के सृजन का प्रयास करते हुए कोई व्यक्ति यदि अपने दौर के एक मुस्लिम हिन्दी लेखक का शब्द–चित्र खींचना चाहता है तो उसके जेहन में सबसे पहले कबीर का नाम आता है? यह किसलिए कि समकालीन भारतीय कवि और लेखक बार–बार कबीर का हवाला देते हैं, उनकी तरह सृजन करना चाहते हैं और होना चाहते हैं ? स्पष्ष्टत: कबीर बहुत–से भारतीयों, कम–अज–कम उत्तर भारत में निवास करनेवालों के उस यथार्थ का प्रतिनिधित्व करते हैं जो कि रोज़मर्रा की चिन्ताओं और क्षुद्र राजनीति से अनछुआ रह जाता है और जिसकी जड़ें कहीं बहुत गहरे में हैं। कबीर की भाँति यह दृष्टिकोण दोनों में से एक के बजाय दोनों साथ–साथ की प्राथमिकता पर आधारित है, इसमें एक गहन तन्मयता का भाव है और एक निष्पक्ष एवं फक्ककड़ कि़स्म की उदारता से मिली शक्ति निहित है ।
‘कबीरवाद’का प्रसार–प्रचार उस समाज–व्यवस्था में हुआ, जहाँ उसकी बहुस्तरीय व्याप्ति के द्वारा सांस्कृतिक स्तरीकरण मूर्त होकर सामने आया और उस पर सवाल भी खड़े किए गए। इस दृष्टिकोण से, अल्पसंख्यकों की शर्तों में सोचना और उनका निर्माण करना, चाहे सम्बन्धित लोगों के भले के लिए हो या बुरे के लिए, एक बाहर से आरोपित कार्य लगता है, यह एक तरह का सांस्कृतिक भूगर्भशास्त्र है, यह प्रवृत्ति समाज के धरातल पर नहीं बल्कि ऊपरी परतों में पाई जाती है। रातोरात हुए परिवर्तन, जिनके बारे में क्लॉड चेसन ने एक भिन्न सन्दर्भ में कहा है, स्पष्ट रूप में सतही परिवर्तन हैं, जिनसे एक समाज की अपेक्षाकृत अधिक गहरी परतें निष्प्रभावित रहती हैं।
इस सतह को तोड़ते हुए आन्दोलनकर्ता, प्राय: राजनीतिक नेता, एक समाज के भीतर गहरे में निहित तत्त्वों के भण्डार का सहारा लेते हैं। (जैसे भारत के बौद्ध परम्पराएँ और विश्वास), अपने उद्देश्य के लिए उनका इस्तेमाल करते हैं और अपने अनुकूल बना लेते हैं। इतिहासीकरण, राजनीतिकरण या संस्कृतिकरण या संस्कृतिकरण की भाँति प्रक्रियाएँ, सभी तरह के संगठन, बार–बार उद्धृत की जानेवाली ‘अस्मिता की तलाश’—सभी को एक साथ इस सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए। तथापि ये गहरी सांस्कृतिक परतें ही हैं जिनसे एक ‘आम आदमी’ सामूहिक और व्यक्तिगत स्तर पर रोज“मर्रा की राजनीति द्वारा पैदा किए गए एक अभावग्रस्त अस्तित्व के संकट में जीने की शक्ति प्राप्त करता है। और शायद यह देख पाना कला–कर्म का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है कि इन परतों का जीवंत सम्पर्क कहीं से टूटा हुआ नहीं है। इतना ही नहीं बल्कि यह भी देखना है कि पश्चिम की अपेक्षा भारत में कला–कर्म और धार्मिक कार्य व्यापक एवं अविच्छन्न रूप में एक–दूसरे से जुड़े रहे हैं। महान् साहित्य इस कार्य में सफल भी हुआ है। निश्चित रूप से यह बात हम कबीर के बारे में कह सकते हैं । तुकाराम के बारे में भी । शायद ग़ालिब को लेकर भी । शायद यहाँ तक कि यही बात हम अपेक्षाकृत व्यापक अर्थों में—और हर वक़्त नहीं—शानी—जैसे समकालीन लेखक के बारे में कह सकते हैं।
शानी (गुलशेर खाँ, जन्म 16 मई, 1933) का यह शब्द–चित्र मुख्यत: लेखक द्वारा उपलब्ध कराई गई सामग्री पर आधारित है । इसे आत्म–चित्र भी कहा जा सकता है। जैसाकि आमतौर पर होता है, यह सामग्री स्वयं लेखक के ‘प्रत्यक्ष’ और ‘अप्रत्यक्ष’ कथनों से सुसज्जित है। पहली तरह की सामग्री उसके आत्मकथात्मक लेखन तथा साक्षात्कार आदि से तथा दूसरी तरह की सामग्री उसके कथा–साहित्य से ली गई है, जोकि वस्तुत: साहित्य में उसका स्थान निर्धारित करती है।
शानी स्वयं को एक हिन्दी लेखक तसलीम करते हैं। इस सिलसिले में यह जान लेना ज़रूरी होगा कि उनकी भाषा कौन–सी है ? उनके द्वारा प्रयुक्त हिन्दी वास्तव में ‘हिन्दी’ कितनी है ? इस प्रश्न को हिन्दी और उसकी सहोदरा भाषा उर्दू के विवादास्पद सम्बन्धों की पृष्ठभूमि में देखने की ज़रूरत है । यह आम धारणा है कि उर्दू का मुसलमानों तथा एक गौरवशाली सामंती अतीत से सम्बन्ध रहा है तथा हिन्दी का हिन्दुओं से और मध्य वर्ग के टूटे–थके किसानों से। लेकिन यह बात बहुत साफ है कि इस धारणा को समकालीन भारतीय यथार्थ के चरण में समर्थन प्राप्त नहीं हो सका, जिससे शानी जैसे रचनाकार अपनी विषय–वस्तु और भाषा का चयन करते हैं। लेकिन यहाँ तक कि शब्द–गणना से हासिल की गई सांख्यिकीय साक्ष्य पर आधारित दोनों भाषाओं का भाषावैज्ञानिक अन्तर किसी समाधान के बजाय समस्याएँ पैदा करता है। एक अन्य सन्दर्भ में मैंने इस ओर संकेत किया है।
“हिन्दी, उर्दू, हिन्दी–उर्दू हिन्दुस्तानी की भाषावैज्ञानिक पहचान के प्रश्न का उत्तर सहज एक भाषावैज्ञज्ञनिक आधार (जैसे संस्कृतनिष्ठ या फ़ारसी–अरबी की शब्दावली के प्रयोग का सुपरिचित आधार) पर नहीं दिया जा सकता। भारतीय सन्दर्भ में, शायद अन्य किसी जगह की अपेक्षा, न्यूनाधिक रूप् से यह भाष के प्रयोक्ता (लेखक सहित) के ‘स्व–बोध’, उसकी भाषा–निष्ठा तथा, उतना ही अधिक उसकी लिपि के चुनाव से जुड़ा हुआ प्रश्न है । भाषावैज्ञज्ञनिक अर्थों में यदि कहें तो, दक्षिण एशिया के भीतर एवं बाहर से इस मुद्दे के इर्द–गिर्द मण्डराते हुए विवादों को सही तथ्यों की जानकारी के अभाव में नहीं समझा जा सकता।”
22 मार्च, 1985 को नयी दिल्ली में लिए गए साक्षात्कार में इस प्रश्न को लेकर शानी की प्रतिक्रिया इस दृष्टिकोण की पुष्टि करती है:
“मुझे कोई ज़्यादा फ़र्क नज़र नहीं आता। अलबत्ता इसके कि यह दो विशिष्टताओं वाली भाषा है—मैं यहाँ जाति की बात नहीं बल्कि दो विशिष्ट संस्कृतियों की बात कहना चाहूंगा। इसकी पैदाइश नि:सन्देह हिन्दुस्तान है। एक स्याह हो सकती है और दूसरी सफेद, इन्हें भिन्न–भिन्न रंग दिए जा सकते हैं । आँखों में फ़र्क हो सकता है। लहजे में फ़र्क हो सकता है—लेकिन वे बहनें हैं। वे इसी मिट्टी से उपती है। यह बात जुदा है कि उनकी लिपि में फ़र्क है, उनके व्यवहार के भिन्न शेड्स हैं। प्रत्येक भाषा, प्रत्येक जन–समुदाय और प्रत्येक मानसिकता का एक अपना विन्यास होता है। इन दोनों भाषाओं में एक विन्यास मौजूद है, यह मेरी अपनी समझ है लेकिन ये एक–दूसरे के बहुत समीप हैं।”
शानी की संकलित कहानियाँ ‘सब एक जगह’शीर्षक के अन्तर्गत दो भागों में 1982 में प्रकाशित हुई। इनके आरम्भ में एक ‘आत्मकथ्य’ दिया गया है जिसकी शुरूआत, बड़े ही काव्यात्मक रूप में, उनकी दिवंगत माँ की एक स्मृति के साथ होती है:
किसी छोटे–से कस्बे में अमरूद का एक पेड़ था, जिसके नीचे चट्टान—जैसा भूरा पत्थर पड़ा हुआ था । उस पर एक दिन, एक औरत बैठी रो रही थी। वह एक बहुत बड़े हवेलीनुमा मकान का सामन्ती अहाता था, जिसकी दीवार के किनारे–किनारे लगे जमींकद के पौधे, धूप में अक्सर चिलचिलाया करते थे।
वह एक बहुत बड़े हवेलीनुमा मकान का सामन्ती अहाता था, जिसकी दीवार के किनारे–किनारे लगे जमींकद के पौधे, धूप में अक्सर चिलचिलाया करते थे। पता नहीं वह दिन का कौनसा वक्त था। पाँच या छह बरस का मैं अपनी माँ को ढूँढ़ता हुआ उस औरत के पास जा पहुँचा था और बेंत से उधड़ी हुई उसकी पीठ देखते ही उसकी गोद में मुँह छुपाकर मैं अचानक रोने लगा था। न तो मैंने कुछ पूछा था और नहीं उसने कुछ बताया था, लेकिन फिर भी मेरी आँखों के आगे अपने अब्बा का रौबीला और गुस्सैल चेहरा उभर आया था। मैं अब्बा से बहुत डरता था। वह औरत भी डरती थी। लिहाजा हम दोनों एक–दूसरे से चिपटकर खूब रोये और देर तक रोते रहे। वह औरत मेरी माँ थी! एक हैसियतदार और रियासती पठान अमीर की छोटी बहू और अब्बा के हरम की दूसरी बेगम।
स्पष्टत: ‘एक हैसियतदार और रियासती पठान अमीर’ से लेकर शानी के पिता तक जो पीढ़ियों का बदलाव है, उससे बहुत कुछ आर्थिक साथ ही नैतिक ह्रास जुड़ा रहा है। बहरहाल, दस वर्ष की अवस्था में शानी ने स्वयं को मध्यप्रदेश के एक छोटे–से कस्बे जगदलपुर के एक हाईस्कूल की कक्षा में पाया। दौरे पर आए हुए एक शाला निरीक्षक के पूछने पर कि अपने जीवन में उसकी उच्चतर आकांक्षाएं क्या हैं, वह एकदम निरुत्तर रहा:
“पता नहीं सर!” मैंने धीरे–से जवाब दिया ।
“खूब”, उस अफसर ने सारी क्लास को सम्बोधित करते हुए हँसकर अँग्रेजी में कहा—”भई, अपने दोस्त मियाँ गुलशेर खाँ से मिलो। कहते हैं कि उनके जीवन में कोई महत्त्वाकाँक्षा नहीं है। क्या सब्जैक्ट्स लिये हैं? खूब, खूब मियाँ, मेल–नर्स बनोगे?”
चालीस लड़कों का एक मिला–जुला ठहाका उठा था और क्लास की छत से टकराकर सब–का–सब, एकदम मेरे भीतर उतर गया था। वह आवाज इतने वर्षों बाद आज भी मेरे भीतर बाकी है।
बाद में युवा गुलशेर खाँ, अब भी एक अच्छा और नेक लड़का—सौ फीसदी मजहबी और जन्नती, स्वयं से आयु में पाँच साल बड़ी एक विवाहित महिला, एक बच्चे की माँ से प्रेम करने लगा। इस प्रसंग का अन्त उसका पहला बड़ा मोहभंग था। इसकी परिणति से मिले एकान्त ने, जैसा कि वह महसूस करता है, उसे लेखक बना दिया ।
उनका आरम्भिक जीवन, जैसा कि उन्हें आज भी लगता है, उपन्यासकार उपेन्द्रनाथ अश्क (जन्म 1910) से उनके सम्बन्धों से निर्धारित था और उस पर उनके सम्बन्धों का धुँधलका छाया हुआ था । उस दौर को लेकर सोचते हुए वे महसूस करते हैं कि “यह अश्क–संसर्ग, जिसे कभी अपने जीवन की एक सुखद और भाग्यशाली घटना समझ रहा था, मेरी साहित्यिक जिन्दगी की सबसे बड़ी भूल थी।” शानी जब उनसे मिलने दूसरी बार इलाहाबाद गए तो उनसे पूछा गया:
“यार, तुम तो बड़े तेज निकले! इतने दिनों में तुमने यही मालूम नहीं होने दिया कि तुम्हारा असली नाम क्या है ? वो तो मुझे….
“उससे क्या फ’र्क पड़ जाता?” मैंने पूछा।
“पड़ता तो नहीं, लेकिन मालूम होना चाहिए था।”
“आपने पूछा कब था?”
“नहीं पूछा होगा, लेकिन तुम भी तो बता सकते थे?”
“कोई ऐसा जिक्र नहीं आया” मैं बोला, “फिर जरूरत भी क्या थी?”
मुझे याद नहीं कि उनसे जवाब क्या मिला था, अब याद रखने की ज़रूरत भी नहीं रही।
ऐसा केवल एक बार नहीं हुआ कि लेखक के उपनाम से भ्रम पैदा किया हो। उनके द्वारा प्रयुक्त ‘शानी’ (अरबी में दुश्मन) में आत्म–व्यंग्योक्ति से ज़्यादा नाम की स्पष्टता को छुपाने का प्रयत्न तथा एक विशेष समुदाय के सदस्य के रूप में नाम से होनेवाली पहचान के प्रतिकार का भाव निहित था। इस प्रकार जब वे अपने परिवार के साथ ग्वालियर गए तब उनके नए साथी उनके वास्तविक नाम से परिचित नहीं थे। उन्होंने कहा कि वे गैर–मुस्लिम पड़ोस में रहने को प्राथमिकता देना चाहेंगे—”क्योंकि मैं घोर धार्मिक वातावरण और कट्टरपंथी माहौल से दूर रहना चाहता था।”
“क्यों?” उन्होंने चौंकते हुए पूछा—”मान लें, अगर वैसे ही मुहल्ले में मकान मिल गया तो क्या बुराई है?”
कहकर एकाध पल वे मुझे घूरते रहे। फिर मेरे कान के पास झुकते हुए और मुझे पूरी तरह कॉनफिडेंस में लेकर वे धीरे–से बोले—”सुनिए, डरने की कोई बात नहीं। आप बिलकुल मत डरिए। यहाँ साले मियां लोगों को इतना मारा है, इतना मारा है कि अब तो उनकी आँख उठाने की भी हिम्मत नहीं रही..”
अन्तत: उन्होंने एक खालिस मुस्लिम पड़ोस में एक महान खोज लिया। नए घर में तीसरी या चोथी सुबह उन्होंने देखा कि उनकी चैखट के पास गाय का गोश्त और कुछ हड्डियाँ फैलाई गई हैं—”यह सिर्फ शरातर नहीं थी, मोहल्ले के कुछ उत्साही लड़कों के द्वारा विरोध और गुस्से का प्रदर्शन था कि मैं मकान छोड़कर भाग जाऊँ।” उन्हें गलती से साहनी नाम का पंजाबी हिन्दू समझ लिया गया था ।
शानी एक ओर तो पाखण्ड के शिकार रहे, दूसरी ओर कट्टरवाद के। उनके ही शब्दों में:
“घोर नास्तिक न सही, मैं सौ फीसदी सन्देहवादी बन गया था और ज़ाहिर है कि सन्देह या तर्क का इस्लाम में कभी कोई मौका नहीं होता। मेरा घर धर्म या संस्कार नहीं, सांस्कृतिक अर्थों में मुस्लिम थे और वह आज भी है।”
अपने आत्मकथात्मक रेखाचित्र में शानी ने पहले भारत–पाक युद्ध (1965) के निजी अनुभवों को प्रस्तुत किया है:
“मेरी ट्रेजेडी यह थी कि युद्ध ने मुझे खामोश और उदास कर रखा था, न तो मेरे मन में तमाशबीनों–जैसा जोश और उत्साह था और न युद्ध में रस लेनेवाली मुखरता। अगर यह सब न होता और मेरी जब में उफनती हुई राष्ट्रीयता और देश–प्रेम का झुनझुना होता तो भी काफी होता, लेकिन बदकिस्मती, वह भी नहीं था। अगर आप भारतीय मुसलमान हैं और चाहते हैं कि आपकी बुनियादी ईमानदारी पर शक न किया जाए तो यह झुनझुना बहुत ज़रूरी है। मैंने देखा कि इसका असर आपके हिन्दू दोस्तों के कानों पर नहीं उनकी जुबान पर होता है।”
इन अनुभवों को उनकी ‘युद्ध’ शीर्षक कहानी में अभिव्यक्ति मिली है। युद्ध इसमें एक सामान्य भय और विषाद के काल के रूप में चित्रित किया गया है, बल्कि ऐसे दौर के रूप में भी दिखाया गया है जबकि सच्चाइयाँ रोशनी में खुलकर सामने आती हैं। इनमें से एक सच्चाई ऐसे अवसर पर भारतीय मुसलमानों के दमन को लेकर है:
“दरअसल, आम मुसलमान झाड़ियों में दुबके खरगोश की तरह अजीब सकते के आलम में डरा हुआ और चौकस हो गया था । लोग दरवाजे–खिड़कियाँ बन्द करके धीमी आवाज“ में रेडियो पाकिस्तान की न्यूज़ सुनते और जब भी दो या चार आपस में मिलते, खरगोशों के अन्दाज में बातें करते।”
इन हालात में आत्म–सुरक्षा का एक सम्भव उपाय यह था कि आम गैर–मुस्लिम समुदाय के लोगों की तुलना में स्वयं को कुछ अधिक देशभक्त दिखाया जाए। परिणामस्वरूप एक रात शहर में सम्भ्रान्त मुसलमानों की एक आम सभा हुई और दूसरे दिन शहर के बीचोबीच की एक इमारत पर देवनागरी लिपि में हिन्दी का एक बोर्ड लटक रहा था, जिस पर लिखा था—‘राष्ट्रीय मुस्लिम संघ’, यह राष्ट्रीय मुस्लिम संघ का नया खुला दफ्तर था। इस संगठन ने इस समुदाय के लोगों से राष्ट्रीयता की शपथ लेने की अपीलें कीं और उन्हें प्रेस तथा अखबारों तक पहुँचाने की व्यवस्था की।
कहानी में एक रिज़वी नामक अनायक है जोकि भारतीय मुसलमान है—बहुत कुछ अपने सर्जक की तरह । वह अपने दफ्तर के साथियों की देश–भक्तिपूर्ण बड़ी–बड़ी बातों में शरीर होने से इन्कार कर देता है और जब वह बिना किसी की ओर देखे चुपचाप बाहर चला जाता है जब उसके बारे में कहा जाता है-
“अभी परसों जब मैं राष्ट्रीय मुस्लिम संघ की अपील लेकर गया था, तो हजरत कहने लगे, काहे की अपील और क्यों? पट्ठे ने दस्तख़त करने से साफ इन्कार कर दिया! कहने लगा मैं क्या बेईमान हूँ जो ईमानदारी का सुबूत पेश करता फिरूँ?”
रात के ब्लैक आउट का उसका अपना अनुभव देखिए-
“शाम होते ही सारा शहर उसी ठण्डे और अँधेरे ग़ार में उतर जाता था । चाहे नागरिकता के फ़र्ज़ के नाते हो, या प्राणों के डर से, लोग बेहद चौकस और समझदार हो गए थे । ब्लैक आउट बनाए रखने के लिए हर मोहल्ले में स्वयं सेवकों के जत्थे तैयार थे।”
रिज़वी उस स्थिति में पड़े बिना नहीं रहता जब वह अपनी बत्ती नहीं बुझाता जिसकी मध्यम रोशनी खिड़की के पर्दे के जरा–सा सरक जाने के कारण सड़क पर पड़ रही थी। मुसलमानों के मकानों पर विशेष नज़र रखे हुए युवा देशभक्तों की एक टोली आई, ‘जासूस’ को पीटने की धमकी दी, बड़ी देर बाद जिसे उसके हिन्दू दोस्त शंकरदत्त ने बचाया । इतना ही नहीं, यह दृश्य लेखक की पीढ़ी के एक जर्मन के हेजन में बहुत हद तक ऐसी ही अप्रिय स्मृतियों को जगा देता है।
निस्संतान शंकरदत्त अपनी ज़्यादातर शामें रिज़वी परिवार के साथ ही बिताता था। रिज़वी का बेटा अप्पू उसे अंकल कहता था। अप्पू ने एक बालक की सहज बुद्धि से इस सबकी अर्थहीनता को उघाड़कर रख दिया। एक शाम बमबारी की भयानक आवाज के बीच उसनेू शंकरदत्त से पूछा-
“अंकल, आपको डर नहीं लगता ?”
“लगता है बेटे!”
“आपको भी ?”
“हाँ, हमें भी।”
“यह जहाज लड़ाकू था न अंकल ?”
शंकरदत्त ने सिर हिला दिया।
“यह बम गिराने जा रहा है ?”
“अप्पू अब अन्दर चलो।” बीच में रिवजी ने टोक दिया था।
“लड़ाई में लड़ता कौन है, अंकल ?”
“सैनिक लड़ते हैं, बेटे!”
“सैनिक कैसे होते हैं ?”
“जो फौज में होते हैं, वे सैनिक कहलाते हैं।”
“अच्छा समझ गए । जैसे हमारे पाकिस्तान वाले मम्म सैनिक हैं। है न।”
“हाँ बेटे! वे भी लड़ रहे होंगे!”
“बन्दूक से ?”
“हाँ, बन्दूकों से, हथगोलों से, टैंकों से।”
“इन्हें फौन में भेजता कौन है, अंकल ?”
“देश भेजता है, बेटे!”
“देश ? देश कौन है ?”
“बेटे….देश…” शंकरदत्त तो एक पल सोचना पड़ा था, “देश वो जिसमें लोग रहते हैं, जैसे हम–तुम, हमी देश हैं, बेटे!”
“लेकिन अंकल! आप तो कह रहे थे कि आपको लड़ाई से डर लगता है । फिर उन्हें क्यों भेजा ?”
कहानी एक ऐसे ही ‘नोट’ पर खत्म होती है । पुन% दोनों मित्र रिजवी की बैठक में बैठे हुए हैं। अप्पू अपने दोनों के साथ खेल रहा था। अचानक खेल छोड़कर अन्दर आ गया और दोनों पर टूट पड़ा। उसके मस्तिष्क पर एक प्रश्न का दबाव बना हुआ था । इस बार उसने अपने पिता से तर्क किया-
“पापा, हम हिन्दू हैं कि मुसलमान?”
“क्यों ?” बेतरह चैंकते हुए भी रिवजी ने उसे टालना चाहा था, “बाहर खेलो बेटे! हमें बात करने दो।”
“नहीं, पहले बताइए,” अप्पू मचल गया था, “हम हिन्दू हैं कि मुसलमान ?”
“लेकिन क्यों ?”
“बताइए।”
“अच्छा, मुसलमान!”
“अल्ला मियाँ कहाँ रहते हैं, पापा ? ऊपर आसान में न ?”
“हाँ ।”
“और भगवान ?”
“वे भी वहीं ।”
“वहीं ?” कहते हुए अप्पू की आँखों में बहुत गहरा प्रश्न तैर रहा था । वह और आगे सवाल न पूछे इसलिए डरकर रिजवी ने कहा, “जाओ बाहर खेलो” पर अप्पू कोई अगला सवाल पूछने के लिए उतावला था और वे दोनों अपनी जान बचाने और निगाहें बचाने के लिए दालान की तरफ देखने लगे…जहां दालान में टंगे आईने पर बैठी एक गौरेया हमेशा की तरह अपनी परछार्इं पर चोंच मार रही थी।
केवल इस विलक्षण अन्त में लिए ही नहीं, ‘युद्ध’ कहानी शायद भारत में हिन्दू–मुस्लिम सम्बन्धों के सर्वाधित प्रमाणित और मार्मिक साहित्यिक दस्तावेज़ों में से एक है।
इस कथाने से जुड़ी हुई और बहुत–सी कहानियाँ हैं जिनमें इसी ईमानदारी के साथ अन्तर–साम्प्रदायिक सम्बन्धों के नाजुक सवाल को उठाया गया है—जिसको लेकर शानी स्वयं तत्त्ववाद और कट्टरतावाद के विरुद्ध सदैव सौम्यता और उदारता का पक्ष लेते रहे हैं।
अन्त में, किन्तु उतना ही महत्त्वपूर्ण, उनका ‘काला जल’ उपन्यास है, 1981 के संस्करण22 में दिए गए अपने परिचयात्मक लेख में राजेन्द्र यादव ने इसकी प्रशंसा की है। इस उपन्यास में शानी की महानतम उपलब्धि शायद यह है कि यह रचना इस्लामी संस्कृति से सम्पृक्त है, लेकिन लेखक, पाठक को इस तथ्य का अहसास नहीं होने देता । पाठक की स्मृति में जो बच रहता है, वह दक्षिण मध्यप्रदेश के एक जन–समूह वस्तुत: मुसलमान लेकिन इससे कहीं ज़्यादा भारतीयों, और भी, उन मनुष्यों के जीवन (और मृत्यु) की जीवन्त झाँकी है जिनसे उपन्यास के अन्त में हम स्वयं को अलग नहीं करना चाहते । इसमें दो राय नहीं कि यह प्रामाणिकता इन पात्रों ने अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से अर्जित की है। ऐसे ही विश्वसनीय चरित्र शानी की कहानियों में भी मौजूद हंव । स्वयं लेखक के अनुसार-
“यह महज एक संयोग नहीं है कि कुछ कहानियों को छोड़कर मेरी अधिकांश कहानियाँ विभाजन के बाद के भारतीय मुस्लिम समाज के भय, तकलीफों, भीतरी अन्तर्विरोधों, यन्त्रणाओं और असंगतियों की कहानियाँ हैं। आज भी सृजनरत हूँ और मैं इसी दिशा में बेहतर रचना करना पसन्द करूँगा। मैं बहुत गहरे में मुतमईन हूँ कि ईमानदार सृजन के लिए एक लेखक को अपन कथानक अपने आसपास से और खुद अपने वर्ग से उठाना चाहिए।”
शानी का संकेत यहाँ कुछ इस ओर है कि वह स्वयं और उन—जैसे रचनाकार—अपनी तमाम आधुनिकता के बावजूद—परिवार, समाज, धर्म और इतिहास के दाय को ग्रहण करते हैं और जोकि उनमें बहुत गहरी जड़ें जमाए हुए हैं । मौजूदा सन्दर्भ में, सचेत रूप से, यह दाय उन्हें संकट में डालता है और अनजाने में उनके जीवन को नियन्त्रित करता है। यह एक अजीब, मारक लेकिन फितरती जद्दोजहद होती है। आप उसी से लड़ते हैं जो आपकी शक्ति होती है क्योंकि यही और यही विडम्बना शायद मानवीय नियति है!
लोठार लुत्से, जर्मन हिंदी विद्वान
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