ज़ाहिद ख़ान
कथाकार गुलशेर ख़ाँ शानी ने अपनी बासठ साला ज़िंदगानी में बेशुमार लिखा। अनेक बेहतरीन कहानियां और उपन्यास उनकी कलम से निकले। ख़ास तौर पर उनके आत्मीय संस्मरण ‘शाल वनों का द्वीप’ का कोई जवाब नहीं। लेकिन इन सबसे अव्वल उनका कालजयी उपन्यास ‘काला जल’ है। जिसे न सिर्फ़ हिंदी के बड़े आलोचकों ने जी-भरकर सराहा, बल्कि पाठक भी उसे दिल से याद करते हैं। वैसे तो यह उपन्यास भारतीय मुस्लिम समाज का महा आख्यान है। जिसमें आज़ादी से ठीक पहले और बंटवारे के बाद के निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम समाज के सुख-दुःख, वेदना, परेशानियां और उनके असीम संघर्ष दिखाई देते हैं। निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम समाज का इसमें इतना यथार्थपरक चित्रण है कि हिंदी साहित्य में भारतीय मुस्लिम समाज और उनकी संस्कृति को बेहतर समझने के लिए जिन तीन उपन्यासों का ज़िक्र अक्सर किया जाता है, ‘काला जल’ उनमें शामिल है।
यह बात सच है कि ‘काला जल’, भारतीय मुस्लिम समाज का आईना है, जिसमें हम उस समाज का अक्स देख सकते हैं। लेकिन इस उपन्यास में महज़ मुस्लिम विमर्श ही नहीं है, स्त्री विमर्श भी है। ‘काला जल’ में महिलाओं के जीवन और अस्मिता से जुड़े ऐसे कई सवाल हैं, जिन्हें शानी ने प्रमुखता से उठाया है। भारतीय समाज में महिलाओं के साथ जो गैर-बराबरी का माहौल है। लैंगिक असमानता, अत्याचार, उत्पीड़न और उनके शोषण के कई किस्से ‘काला जल’ में महिला किरदारों के ज़रिए आये हैं। हिंदू समाज हो या फिर मुस्लिम दोनों ही समाज, पितृसत्तात्मक समाज रहे हैं। जिसमें महिलाओं के अधिकारों की कभी कोई परवाह नहीं की गई। महिलाओं के भी कुछ जज़्बात होते हैं, उनको हमेशा नज़रअंदाज़ किया गया। इस हद तक कि वे इंसान हैं, यह मानने से भी इंकार किया गया। उनकी ख़्वाहिशों और अरमान को कोई तवज्जोह नहीं दी गई। आलम यह है कि पैदा होते ही स्त्रियों के जीवन में कई बंदिशें और उनके पैरों में बेढ़ियां पड़ जाती हैं। जिन्हें तोड़ने में ही उनकी पूरी ज़िंदगी गुज़र जाती है। ‘काला जल’ में एक नहीं कई ऐसे महिला किरदार हैं, जिनके मार्फ़त शानी महिलाओं की बात करते हैं। हालांकि, ज़्यादातर महिला किरदार मुस्लिम हैं। मिसाल के तौर पर छोटी फूफी, मुमानी उर्फ बब्बन की अम्मी, बी-दारोगिन, बिलासपुरवाली, सल्लो, मालती, रशीदा और रूबीना। लेकिन यदि नाम भर बदल दिये जाएं, मसलन रमा, श्यामा, सीता, सावित्रि तो उनकी कहानी भी वही होगी, जो मुस्लिम महिलाओं की है। भारतीय समाज में किसी भी धर्म, समुदाय की महिलाएं हों, उनका अपने समाज में दोयम दर्जा ही रहा है। इक्कीसवीं सदी में बदलाव की बयार आई ज़रूर है, लेकिन उसकी गति अभी भी कुछ धीमी है।
उपन्यास की शुरुआत में ही सुनारिन और उसके बूढ़े पति का एक छोटा सा किस्सा है। जिसमें शानी, बेमेल विवाह और उस विवाह से औरतों की दोजख़ बन गई ज़िंदगी को बयां करते हैं। तिस पर गर्ज यह कि आदमी, औरत पर ही तमाम शक और उसके सिर इल्जाम रखता है। उपन्यास जब आगे बढ़ता है, तो परिदृश्य में छोटी फूफी आती हैं। उनके साथ मुमानी, बिलासपुरवाली, रूबीना, बी-दारोगिन, सल्लो, मालती, रशीदा, सूफिया, ज़हीरा भाभी और जै़बून के किरदार आते हैं। कोई सा भी किरदार हो, उसे अपने समाज और परिवार में गैर-बराबरी और शोषण का सामना करना पड़ा है। छोटी फूफी, मुमानी उर्फ बब्बन की अम्मी और बिलासपुरवाली शादी के बाद घुटन भरी ज़िंदगी जीती हैं। उनकी ज़िंदगी में कहीं नाम मात्र की खु़शी और उम्मीदों की किरण नहीं दिखाई देती। पुरुष किरदार अपना सारा फ्रस्टेशन इन महिला किरदारों पर ही निकालते हैं। फिर भी मज़ाल है कि अपने साथ हो रहे इस जुल्म और नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ उन्होंने कोई आवाज़ उठाई हो। इस बेगै़रत ज़िदगी को ही वे अपनी किस्मत समझ ख़ामोश हैं। महिलाओं के इन हालात के लिए यदि किसी को ज़िम्मेदार माने, तो वह है पुरुष पर उनकी निर्भरता। जब तलक वे आत्मनिर्भर नहीं होंगी, तब तक समाज में उनके साथ यही बर्ताव होगा। उनके प्रति समाज का नज़रिया नहीं बदलेगा।
‘काला जल’ में शानी ने भारतीय समाज में महिलाओं की सिर्फ़ दयनीय स्थिति ही नहीं दिखलाई है, उपन्यास में बी-दारोगिन जैसा भी किरदार है, जो पुरुषों को अपनी मुट्ठी में और समाज को अपने ठेंगे पर रखता है। वहीं सल्लो आपा भी हैं, जो तमाम सामाजिक वर्जनाओं को तोड़कर, पुरुषप्रधान समाज में अपना प्रतिरोध दर्ज करती है। इस किरदार को शानी ने दिल से गढ़ा है। सल्लो आपा को पुरुषों की तरह कपड़े पहनने, अश्लील तस्वीरों की किताब देखने में कहीं कोई हर्ज नहीं। ज़रूरत पड़ने पर वह अपने होठों पर सिगरेट लगा लेती है। प्रेम की अभिव्यक्ति में भी वह पुरुषों से कहीं आगे है। यही वजह है कि ‘सल्लो आपा’ को कथाकार राजेन्द्र यादव ने हिंदी उपन्यासों के अविस्मरणीय चरित्रों में से एक माना है। इन इंक़लाबी हरकतों के बावजूद सल्लो आपा का भी वही हश्र होता है, जो उपन्यास में बाकी महिलाओं का। छोटी फूफी, जिन्होंने अपनी पूरी उम्र सामाजिक बंधनों और अपने शौहर की गुलामी में गुज़ारी, ज़रूरत पड़ने पर बेटी सल्लो के हक़ में नहीं खड़ी हो पातीं। उपन्यास के अंत में रहस्मय तरीक़े से सल्लो की मौत हो जाती है। उपन्यास में सल्लो आपा की मौत वाक़ई अफ़सोसनाक है। पाठकों को इससे सचमुच बहुत निराशा होती है। लेकिन इस किरदार में उम्मीद की एक किरण भी है। आहिस्ता-आहिस्ता ही सही महिलाएं अपने अधिकारों के लिए खड़ी हो रही हैं। उनकी जो सोई हुई ख़्वाहिशें और अरमान हैं, वे उन्हें अभिव्यक्त करना चाहती हैं। शानी इस बदलाव को नज़दीकता से महसूस कर रहे थे। यही वजह है कि जब मौक़ा आया, तो उन्होंने इन महिला किरदारों को अपनी आवाज़ दी। अगली मर्तबा जब भी आप ‘काला जल’ को पढ़ें, उसे इस नज़रिये से भी देखिए।
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