शानी का संसार

शानी का संसार
धर्मेंद्र सुशांत

शानी (1933-1995) को साहित्य-जगत में आमतौर पर ‘काला जल’ के रचनाकार के रूप में जाना जाता है। ‘काला जल’ निस्संदेह हिंदी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यासों में से एक है, लेकिन शानी का रचना-संसार यहीं तक सीमित नहीं है, जिसकी पुष्टि उनकी सद्यप्रकाशित रचनावली से होती है। छह खंडों में छपी उनकी रचनावली के पहले दो खंड में उनकी कहानियां शामिल की गई हैं, जबकि तीसरे खंड में ‘काला जल’ उपन्यास है। चौथा खंड भी उपन्यासों का है। इसमें ‘सांप और सीढ़ी’, ‘एक लड़की की डायरी’, ‘नदी और सीपियां’ और ‘कसक: आयशा’ शामिल हैं। ‘कसक: आयशा’ अधूरा है। पांचवां खंड कथेतर गद्य कृतियों का है, जिसमें ‘शाल वनों का द्वीप’, ‘एक शहर में सपने बिकते हैं’ और ‘नैना कभी न दीठ’ नामक पुस्तकें हैं। छठे खंड में उनके संपादकीय, कविताएं, अनुवाद, किताबों की भूमिकाएं, साक्षात्कार आदि को एकत्र किया गया है।

शानी मूलत: कथाकार-उपन्यासकार थे। उनकी पहली कहानी 1950 में छपी थी, शीर्षक था ‘भावुक’। हालांकि उन्होंने स्वयं लिखा है कि उनकी पहली कहानी 1957 के आसपास छपी। वस्तुत: वह ‘कहानी’ पत्रिका के 1957 में छपे विशेषांक में छपी अपनी कहानी ‘रहीम चाचा’ को पहली कहानी मान रहे थे। कहानी पत्रिका में छपना किसी लेखक की सर्व-स्वीकृति का पर्याय था। शायद यही वजह रही हो कि वे अपने कहानी-लेखन का आरंभ यहां से मान रहे हों। उन्होंने 88 कहानियां लिखी हैं, जिनमें भारत के निम्न-मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवारों का अंदरूनी यथार्थ बारीक और दारुण ब्योरों के साथ सामने आता है। उनकी कहानियां जितनी मार्मिक और विश्वसनीय हैं, उनसे उठने वाले सवाल उतने ही जटिल और बेलाग। उनकी सबसे चर्चित कहानी ‘एक कमरे का घर’ ऐसा सवाल उठाती है, जिससे देश आज भी दो-चार हो रहा है।

‘काला जल’की रचना 1960-61 में हुई, लेकिन यह छपा 1965 में। गोकि छपने के कुछ ही समय बाद इसकी अहमियत पहचान ली गई। यह भारतीय समाज के अलक्षित-उपेक्षित मुस्लिम तबके के जीवन के दुखद और संघर्षमय जीवन का दस्तावेज था। ऐसा दस्तावेज, जो हिंदी साहित्य में अब तक प्रत्यक्ष नहीं हुआ था। वास्तव में शानी अपने पूर्ववर्ती लेखन में- और बाद में भी जिन सवालों को लेकर संजीदा रहे- जिन सवालों को उठा रहे थे, वे ‘काला जल’ में अपने पूरे गुरुत्व के साथ उपस्थित हुए। ये सवाल थे बाहरी दुनिया से विच्छिन्न अपने आप में सिमटे हुए, घुट रहे निम्नवर्गीय मुस्लिम परिवारों का जीवन संघर्ष और धर्मनिरपेक्षता के अंतर्विरोध। वैसे इसमें शानी ने राजनीतिक की बजाय सामाजिक पहलू पर ही ज्यादा जोर दिया, इतना सधा हुआ कि सच्चाई और समस्या को अनावृत करने के लिए कुछ और करने की जरूरत नहीं रही। यहां नामवर सिंह का यह कथन याद किया जा सकता है कि अठारहवीं सदी के बाद ‘लगभग दो सौ वर्षों तक हिंदी में लिखने वाला कोई बड़ा मुसलमान साहित्यकार हुआ ही नहीं।… इस दृष्टि से देखें तो शानी हिंदी- आधुनिक खड़ी बोली हिंदी के पहले बड़े मुस्लिम साहित्यकार हैं, जो लगभग दो सौ वर्षों के लंबे अंतराल के बाद पैदा हुए।’

बेशक शानी का लेखन प्राय: मुस्लिम समाज पर केंद्रित है, लेकिन यह उनकी सीमा नहीं है, बल्कि इसके जरिये वे उस दीवार को तोड़ते हैं, जिसकी वजह से हिंदी साहित्य इस समाज से दूर-दूर खड़ा था और इस तक पहुंच नहीं पा रहा था। उनके अन्य उपन्यास में ‘सांप और सीढ़ी’ संक्रमण के शिकार एक गांव की कहानी है। ‘एक लड़की की डायरी’ जिंदगी का मतलब तलाशती दो स्त्रियों की कथा और ‘नदी और सीपियां’ रिश्तों में वर्जनाओं के प्रश्नों को समझने का प्रयास। कथेतर कृतियों में ‘शालवनों का द्वीप’ शानी की बहुचर्चित रचना है, जिसमें मध्यप्रदेश के एक आदिवासी गांव का चित्रण है। इसे प्रसिद्ध नृविज्ञानी एडवर्ड जे.जे. ने अत्यंत सूक्ष्म संवेदनायुक्त सृजनात्मक विवरण बताया था। शानी के आलेख या संपादकीय टिप्पणियों में भी हम उन्हें उन सवालों से जूझता पाते हैं, जो अपनी कथा कृतियों में उठाए हैं।

यह लेख दैनिक हिंदुस्तान में 10-10-2015 में प्रकाशित हुआ था

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