10 फरवरी 2024, कथाकार गुलशेर ख़ॉं ‘शानी’ का स्मृति दिवस

शानी के मा’नी
—ज़ाहिद ख़ान

शानी के मा’नी यूं तो दुश्मन होता है और गोया कि ये तख़ल्लुस का रिवाज ज़्यादातर शायरों में होता है। लेकिन शानी न तो किसी के दुश्मन हो सकते थे और न ही वे शायर थे। हां, अलबत्ता उनके लेखन में शायरों सी भावुकता और काव्यत्मकता ज़रूर देखने को मिलती है। शानी अपने लेखन में जो माहौल रचते थे, उससे ये एहसास होता है कि कवि हृदय हुए बिना ऐसे जानदार माहौल की अक्कासी मुमकिन नहीं। जी हां, हम हम बात कर रहे हैं बीसवीं सदी के छठे-सातवें दशक के प्रमुख कथाकार गुलशेर ख़ां की, जिन्हें हिंदी कथा साहित्य में सिर्फ़ उनके उपनाम शानी के नाम से जाना-पहचाना जाता है। अपने बेश्तर लेखन में मध्यम, निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम समाज का यथार्थपरक चित्रण करने वाले शानी पर ये इल्ज़ाम आम था कि उनका कथा संसार हिंदुस्तानी मुसलमानों की ज़िंदगी और उनके सुख-दुख तक ही सीमित है। और हां, शानी को भी इस बात का अच्छी तरह से एहसास था। अपने आत्मकथ्य में शानी इसके मुताल्लिक़ लिखते हैं, ‘‘मैं बहुत गहरे में मुतमइन हूं कि ईमानदार सृजन के लिए एक लेखक को अपने कथानक अपने आस-पास से और ख़ुद अपने वर्ग से उठाना चाहिए।’’ ज़ाहिर है कि शानी के कथा संसार में किरदारों की जो प्रमाणिकता हमें दिखाई देती है, वह उनके सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की वजह से ही है।

शानी के कालजयी उपन्यास ‘काला जल’ की ‘सल्लो आपा’ हो या फिर ‘जनाज़ा’, ‘युद्ध’ कहानी का ‘वसीम रिज़वी’ ये किरदार पाठकों की याद में गर आज भी बसे हुए हैं, तो अपनी विश्वसनीयता की वजह से। शानी ने इन किरदारों को सिर्फ़ गढ़ा नहीं है, बल्कि किरदारों में जो तपिश दिखाई देती है, वह उनके तजुर्बे से मुमकिन हुई है। ‘काला जल’ की ‘सल्लो आपा’ को तो कथाकार राजेन्द्र यादव ने हिंदी उपन्यासों के अविस्मरणीय चरित्रों में से एक माना है। हिंदी में मुस्लिम बैकग्राउंड पर जो सर्वश्रेष्ठ कहानियां लिखी गई हैं, उनमें ज़्यादातर शानी की हैं। ‘युद्ध’, ‘जनाज़ा’, ‘आईना’, ‘जली हुई रस्सी’, ‘नंगे’, ‘एक कमरे का घर’, ‘बीच के लोग’, ‘सीढ़ियां’, ‘चेहलुम’, ‘छल’, ‘रहमत के फ़रिश्ते आएंगे’, ‘शर्त का क्या हुआ’, ‘एक ठहरा हुआ दिन’, ‘एक काली लड़की’, ‘एक हमाम में सब नंगे’ वग़ैरह कहानियों में शानी ने बंटवारे के बाद के भारतीय मुस्लिम समाज के दु:ख-तकलीफ़ों, डर, भीतरी अंतर्विरोधों, यंत्रणाओं और विसंगतियों को बड़ी ही ख़ूबसूरती से दर्शाया है। शानी की कहानियों में प्रमाणिकता और पर्यवेक्षित जीवन की अक्कासी है। लिहाज़ा ये कहानियां हिंदी साहित्य में अलग ही मुक़ाम रखती हैं। उन्होंने वही लिखा,जो देखा और भोगा। पूरी साफ़—गोई, ईमानदारी और सच्चाई के साथ वह सब लिखा जो, अमूमन लोग कहना नहीं चाहते। भाषा इतनी सरल और सीधी कि लगता है, मानो लेखक ख़ुद पाठकों से सीधा रू-ब-रू हो। कोई भी विषय हो, वे उसमें गहराई तक जाते थे और इस तरह विश्लेषित करते थे, जैसे कोई मनोवैज्ञानिक मन की गुत्थियों को परत-दर-परत उघाड़ रहा हो।

16 मई, 1933 को बस्तर जैसे धुर आदिवासी अंचल के जगदलपुर में जन्मे शानी को बचपन से ही पढ़ने का बेहद शौक़ था। पाठ्यपुस्तकों की बजाय उनका मन साहित्य में ज़्यादा रमता था। कहानी और उपन्यास पढ़ने का चस्का शानी को अपनी विरासत में मिला। उनके बाबा पढ़ने के शौक़ीन थे। बचपन में बाबा के लिए लाईब्रेरी से किताबें लाना और जमा करना शानी के ज़िम्मे था। किताबें लाने-ले जाने के सफ़र में, वे कब उनकी साथी हो गईं, शानी को मालूम ही नहीं चला। किताबों का ही नशा था, कि वे अपने स्कूली दिनों में बिना किसी प्रेरणा और सहयोग के एक हस्तलिखित पत्रिका निकालने लगे थे। बहरहाल, बचपन का यह जुनून शानी की ज़िंदगी की किस्मत बन गया। शानी ने ख़ुद इस बारे में एक जगह लिखा है, ‘‘जो व्यक्ति सांस्कृतिक, साहित्यिक या किसी प्रकार की कला संबधी परंपरा से शून्य बंजर सी धरती बस्तर में जन्मे, घोर असाहित्यिक घर और वातावरण में पले-बड़े, बाहर का माहौल जिसे एक अरसे तक न छू पाए, एक दिन वह देखे कि साहित्य उसकी नियति बन गया है।’’

जवान होते ही शानी का साबिक़ा ज़िंदगी की कठोर सच्चाईयों से हुआ। निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म और पढ़ाई पूरी नहीं करने के चलते, उनकी शुरुआती ज़िंदगी बेहद संघर्षमय गुज़री। जीवन के अस्तित्व के लिए उन्होंने कई नौकरियां बदलीं। मगर ज़िंदगी की कश्मकश के इस दौर में भी अदब से उनका नाता बरकरार रहा। शानी की अच्छी कहानियां और उपन्यास का जन्म प्रतिकूल हालात में हुआ। शानी का पहला कहानी संग्रह ‘बबूल की छांव’ साल 1956 में आया और महज़ साल साल के छोटे से अंतराल में उनकी सभी ख़ास कृतियां साहित्यिक पटल पर आ चुकी थीं। कहानी संग्रह ‘डाली नहीं फूलती’-1959, ‘छोटे घेरे का विद्रोह’-1964, और उपन्यास ‘कस्तूरी’-1960, ‘पत्थरों में बंद आवाज़’-1964, ‘काला जल’-1965 में आ कर धूम मचा चुके थे। यही नहीं उनका दिल को छू लेने वाला संस्मरण ‘शाल वनों का द्वीप’ भी इन्हीं गर्दिश के दिनों में लिखा गया। शानी की ज़िंदगी में जब स्थायित्व आया तो, क़लम उनसे रूठ गई। बाद में आईं उनकी कहानी और उपन्यास वह असर, वह ताप नहीं छोड़ सके, जो शुरुआती रचनाओं में था। इसकी बड़ी वजह, शानी का अपनी पुरानी रचनाओं को दोबारा पाठकों के सामने पेश करना था। उपन्यास ‘एक लड़की की डायरी’ उनके पहले उपन्यास ‘पत्थरों में बंद आवाज़’ का पुनर्विन्यास है तो ‘सांप और सीढ़ी’, ‘कस्तूरी’ का पुनर्विन्यास। कहानी संग्रह ‘एक से मकानों का नगर’, ‘एक नाव के यात्री’ तथा ‘युद्ध’ में भी उन्होंने कई पुरानी कहानियों को दोबारा शामिल किया।

शानी के लेखन का जो इब्तिदाई दौर था, वह हिंदी साहित्य का काफ़ी हंगामेदार दौर था। लघु पत्रिकाओं से शुरू हुआ, ‘नई कहानी’ आंदोलन उस वक़्त अपने उरूज पर था। गोया कि शानी का शुमार भी ‘नई कहानी’ के रचनाकारों की जमात में होने लगा था। उनकी कहानियां ‘कल्पना’, ‘कहानी’, ‘कृति’, ‘सुप्रभात’, ‘ज्ञानोदय’, ‘वसुधा’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘धर्मयुग’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपकर मशहूर हो रही थीं। अनुभूति की गहराई और शैली की सरलता, बोधगम्यता और प्रवाह के चलते उनकी साहित्यिक हल्के में चर्चा होने लगी थी। शानी ने कहानी में काव्यमयी भाषा के साथ तीखे व्यंग्य को अपना मुख्य हथियार बनाया। अपने आस-पास के परिवेश और व्यक्तिगत अनुभव से वे जो ग्रहण कर रहे थे, उन्होंने उसे ही कहानी का विषय चुना। शानी की कहानियों में अनुभव की जो प्रमाणिकता, प्रवाह और समर्पण के साथ एक रचनात्मक आवेग दिखाई देता है, दरअसल वह इसी वजह से है। सुप्रसिद्ध कथाकार उपेन्द्रनाथ ‘अश्क़’ ने शानी की कहानियों का मूल्यांकन करते हुए लिखा है,‘‘शानी अपनी कहानियों के आधारभूत विचार, जीवन में गहरे डूब कर लाता है और उन्हें ऐसे सरल ढंग से अपनी कहानियों में रखता है कि मालूम ही नहीं होता और बात हृदय में गहरे बैठ जाती है।’’

ज़िंदगी के जानिब शानी का नज़रिया किताबी नहीं बल्कि अनुभवसिद्ध था। यही वजह है कि वे ‘युद्ध’, ‘जनाज़ा’, ‘बिरादरी’, ‘जगह दो रहमत के फ़रिश्ते आएंगे’, ‘हमाम में सब नंगे’, ‘जली हुई रस्सी’ जैसी दिलो-दिमाग़ को झिंझोड़ देने वाली कहानियां और ‘काला जल’ जैसा कालजयी उपन्यास हिंदी साहित्य को दे सके। शानी के कथा संसार में मुस्लिम समाज का प्रमाणिक चित्रण तो मिलता ही है, बल्कि हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर भी कई मर्मस्पर्शी कहानियां हैं, जो कि भुलाए नहीं भूलतीं। उनकी कहानी ‘युद्ध’ को तो हिंदी आलोचकों ने हिंदू-मुस्लिम संबंधों के सर्वाधिक प्रमाणित और मार्मिक साहित्यिक दस्तावेज़ों में से एक माना है। समाज में बढ़ता विभाजन हमेशा शानी की अहम चिंताओं में एक रहा। वे ख़ुद, अपनी ज़िंदगानी में भी इन सवालों से जूझे थे। लिहाज़ा उन्होंने कई कहानियों में हिंदू-मुस्लिम संबंधों के नाज़ुक सवालों को बड़ी ईमानदारी और संजीदगी से उठाया है। कथानक और तटस्थ ट्रीटमेंट इन कहानियों को ख़ास बनाता है। मसलन कहानी ‘युद्ध’ भय और विषाद के मिश्रित माहौल से शुरू होती है और आख़िर में पाठकों के सामने कई सवाल छोड़ जाती है। फिर कहानी का विलक्षण अंत भला कौन भूल सकता है ? शानी कहानी के अंत में किरदारों के मार्फ़त कुछ नहीं कहलाते और न ही अपनी ओर से कुछ कहते हैं। बस ! एक लाइन में कहानी बहुत कुछ बयान कर जाती है। इस लाइन पर ग़ौर फ़रमाएं,‘‘दालान में टंगे आईने पर बैठी एक गौरैया हमेशा की तरह अपनी परछाई पर चोंच मार रही थी।’’

शानी की कहानियों के किरदार में जिस तरह की आग दिखाई देती है, वैसी आग हमें उर्दू में केवल सआदत हसन मंटो के अफ़सानों में ही देखने को मिलती है। शानी जज़्बाती अफ़साना निगार थे और उनके ये ज़ाती जज़्बात कहानी में जमकर नुमायॉं हुए हैं। विसंगतियों के प्रति उनका आक्रोश निजी ज़िंंदगी में और लेखन में बराबर झलकता रहा। अपनी आत्मा के ख़िलाफ़ उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। उनकी एक और बेहद चर्चित कहानी ‘जली हुई रस्सी’ में यही केन्द्रीय विचार है, जिसके इर्द-गिर्द कहानी बुनी गई है। इंसानियत और भाई-चारे को उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से आगे बढ़ाया। ‘बिरादरी’ कहानी में वे बड़ा मौज़ूँ सवाल उठाते हैं, ‘‘बिरादरी केवल जात वालों की होती है ? इंसानियत की बिरादरी क्यों नहीं बन सकती ? और क्यों नहीं बननी चाहिए ?’’ शानी आदिवासी अंचल में पैदा हुए और उनका शुरुआती जीवन जगदलपुर में बीता लेकिन उन्होंने आंचलिक कहानियां सिर्फ़ पांच लिखीं। ‘चील’, ‘फांस’, ‘बोलने वाले जानवर’, ‘वर्षा की प्रतीक्षा’ और ‘मछलियां’ कहानियों में वे आदिवासी जीवन के अर्थाभाव, विषमताओं, पीड़ाओं को पूरी संवेदनशीलता से उकेरते हैं। आदिवासी लोक जीवन को देखने,महसूसने की दृष्टि उनकी ख़ुद की अपनी है।

संस्मरण ‘शाल वनों के द्वीप’ शानी की बेमिसाल कृति है। हिंदी में यह अपने ढंग की बिल्कुल अल्हदा और अकेली रचना है। इस रचना को पढ़ने में उपन्यास और रिपोर्ताज दोनों का मज़ा आता है। किताब की प्रस्तावना में शानी इसे न तो यात्रा वर्णन मानते हैं और न ही उपन्यास। बल्कि बड़ी विनम्रता से वे इसे कथात्मक विवरण मानते हैं। समाज विज्ञान और नृतत्वशास्त्र से अपरिचित होने के बावजूद उन्होंने जिस तरह मनुष्यता की पीड़ा और उल्लास का शानदार चित्रण किया है, वह पाठकों को चमत्कृत करता है। हिंदी साहित्य में आदिवासी जीवन को इतनी समग्रता से शायद ही किसी ने इस तरह देखा हो। ‘शाल वनों का द्वीप’ यदि शानी की बेमिसाल रचना बन पाई, तो इसकी वजह भी है। शानी ने अमेरिकन नृतत्वशास्त्री एडवर्ड जे के साथ एक साल से ज़्यादा अरसा अबुझमाड़ के बीहड़ जंगलों में आदिवासियों के बीच बिताया और आदिवासियों की ज़िंदगी को क़रीब से देखा। जिसका नतीजा, ‘शाल वनों का द्वीप’ है। डॉ. एडवर्ड जे, जो ख़ुद अमेरिका से भारत आदिवासी जीवन पद्धति का विस्तृत समाजशास्त्रीय अध्ययन करने आए थे, उन्होंने इस किताब की तारीफ़ में लिखा है,‘‘शानी की यह रचना शायद उपन्यास नहीं, एक अत्यंत सूक्ष्म संवेदनायुक्त सृजनात्मक विवरण है। जो एक अर्थ में भले ही समाज विज्ञान न हो, लेकिन दूसरे अर्थ में यह समाज विज्ञान से आगे की रचना है। एक सृजनशील रचनाकार के रूप में घटनाओं तथा चरित्रों के निरूपण में शानी की स्वतंत्रता से मुझे ईर्ष्या होती है। शानी द्वारा प्रस्तुत मानव जाति के एक भाग का यह अध्ययन, समस्त मानव जाति को समझने की दिशा में एक योगदान है।’’ ‘शाल वनों का द्वीप’ की इस तारीफ़ के बावजूद शानी मुतमइन नहीं थे। उनका मानना था, ‘‘आदिवासी जीवन पर वही प्रमाणिक लिखेगा, जो ख़ुद उनके बीच से आएगा।’’

शानी के कथा साहित्य में प्रकृति का अनुपम चित्रण मिलता है। प्रकृति के माध्यम से वे मन के कई भावों को प्रकट करते हैं। कहानी ‘युद्ध’ में इसकी एक बानगी देखिए, ‘‘पाकिस्तान से युद्ध के दिन थे, हवा भारी थी। लोग डरे हुए और सचमुच नीम—संजीदा। क्षणों की लंबाई कई गुना बढ़ गई थी। आतंक, असुरक्षा और बेचैनी से लंबा दिन वक़्त से पहले निकलता और शाम के बहुत पहले यक-ब-यक डूब जाता था। फिर शाम होते ही रात गहरी हो जाती थी और लोग अपने घरों में पास-पास बैठकर भी घंटो चुप लगाए रहते थे।’’ जहां तक शानी की भाषा का सवाल है, उनकी भाषा सरल एवं सहज है। हिंदी में वे उर्दू-फ़ारसी अल्फ़ाज़ के इस्तेमाल से परहेज़ नहीं करते। स्वाभाविक रूप से जो शब्द आते हैं, उन्हें वे वैसा का वैसा रख देते हैं। हिंदी और उर्दू में वे कोई फ़र्क़ नहीं करते। इस मायने में देखें, तो उनकी भाषा हिंदी-उर्दू से इतर हिंदुस्तानी है। हिंदी, उर्दू के झगड़े, विवादों को वे ग़लत मानते थे। हिंदी-उर्दू भाषा के सवालों पर शानी का कहना था,‘‘हिंदी-उर्दू में मुझे कोई ज़्यादा फ़र्क़ नज़र नहीं आता। अलबत्ता, इसके कि यह दो विशिष्टताओं वाली भाषा हैं। मैं यहां जाति की बात नहीं, बल्कि दो विशिष्ट संस्कृति की बात करना चाहूंगा। इनकी पैदाइश निःसंदेह हिंदुस्तान है। एक स्याह हो सकती है और दूसरी सफ़ेद, इन्हें भिन्न-भिन्न रंग दिए जा सकते हैं। आंखों में फ़र्क़ हो सकता है, कहने में फ़र्क़ को सकता है, लेकिन वे बहने हैं। वे इसी मिट्टी में उपजी हैं। यह बात जुदा है कि उनकी लिपि में फ़र्क़ है, उनके व्यवहार में भिन्न शेड्स हैं। प्रत्येक भाषा, प्रत्येक जनसमुदाय और प्रत्येक मानसिकता का एक अपना विन्यास होता है। इन दोनों भाषाओं में यह विन्यास मौजूद है, यह मेरी अपनी समझ है। लेकिन ये एक दूसरे के बहुत समीप हैं।’’

शानी ने कुल मिलाकर चार उपन्यास लिखे ‘काला जल’, ‘नदी और सीपियॉं’, ‘सॉंप और सीढ़ी’ और ‘एक लड़की की डायरी’। इनमें ‘काला जल’ उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति है। यह उपन्यास भारतीय मुस्लिम समाज का महा—आख्यान है। जिसमें आज़ादी से ठीक पहले और बंटवारे के बाद के निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम समाज के सुख-दुःख, वेदना, परेशानियां और उनके असीम संघर्ष दिखाई देते हैं। हिंदी साहित्य में भारतीय मुस्लिम समाज और संस्कृति को बेहतर समझने के लिए जिन तीन उपन्यासों का ज़िक्र अक्सर किया जाता है, ‘काला जल’ उनमें से एक है। इस उपन्यास को पाठकों और आलोचकों ने एक सुर में सराहा। शानी के जिगरी दोस्त आलोचक धनंजय वर्मा ने ‘काला जल’ का मूल्यांकन करते हुए लिखा है, ‘‘काला जल, हिंदी कथा परम्परा की व्यापक सामाजिक जागरूकता और यथार्थवादी चेतना की अगली और नई कड़ी के रूप में उल्लेखनीय है। वह अतीत-वर्तमान-भविष्य संबंधों का एक महा—नाटक है। जिसका रंगमंच है-एक मध्यवर्गीय भारतीय मुस्लिम परिवार। एक विशाल फ़लक पर यह सामाजिक यथार्थ का गहरी सूझ-बूझ और पारदर्शी अनुभूति के साथ मार्मिक अंकन है। पूरा उपन्यास आधुनिक भारतीय जीवन के विविध स्तरीय संघर्षों का चित्र है, जो अपनी घनीभूत और केन्द्रीय संवेदना में भारतीय जनता के आर्थिक और भौतिक संघर्ष का दस्तावेज़ है, जिसका कथा सूत्र समाज की तीन-तीन पीढ़ियों का दर्द समेटे है।’’

यह बात सच है कि ‘काला जल’, भारतीय मुस्लिम समाज का आईना है, जिसमें हम उस समाज का अक्स देख सकते हैं। लेकिन इस उपन्यास में महज़ मुस्लिम विमर्श ही नहीं है, स्त्री विमर्श भी है। ‘काला जल’ में महिलाओं के जीवन और अस्मिता से जुड़े ऐसे कई सवाल हैं, जिन्हें शानी ने प्रमुखता से उठाया है। भारतीय समाज में महिलाओं के साथ जो ग़ैर-बराबरी का माहौल है। लैंगिक असमानता, अत्याचार, उत्पीड़न और उनके शोषण के कई क़िस्से ‘काला जल’ में महिला किरदारों के ज़रिए आये हैं। हिंदू समाज हो या फिर मुस्लिम दोनों ही समाज, पितृसत्तात्मक समाज रहे हैं। जिसमें महिलाओं के अधिकारों की कभी कोई परवाह नहीं की गई। महिलाओं के भी कुछ जज़्बात होते हैं, उनको हमेशा नज़रअंदाज़ किया गया। इस हद तक कि वे इंसान हैं, यह मानने से भी इंकार किया गया। उनकी ख़्वाहिश और अरमान को कोई तवज्जोह नहीं दी गई। आलम यह है कि पैदा होते ही औरतों की ज़िंदगी में कई बंदिशें और उनके पैरों में बेड़ियां पड़ जाती हैं। जिन्हें तोड़ने में ही उनकी पूरी ज़िंदगी गुज़र जाती है। ‘काला जल’ में एक नहीं कई ऐसे महिला किरदार हैं, जिनके मार्फ़त शानी महिलाओं की बात करते हैं। हालांकि, ज़्यादातर महिला किरदार मुस्लिम हैं। मिसाल के तौर पर छोटी फूफी, मुमानी उर्फ़ बब्बन की अम्मी, बी-दारोगिन, बिलासपुरवाली, सल्लो, मालती, रशीदा और रुबीना। लेकिन यदि नाम भर बदल दिये जाएं, मसलन रमा, श्यामा, सीता, सावित्री तो उनकी कहानी भी वही होगी, जो मुस्लिम महिलाओं की है। भारतीय समाज में किसी भी धर्म, समुदाय की महिलाएं हों, उनका अपने समाज में दोयम दर्जा ही रहा है। इक्कीसवीं सदी में बदलाव की बयार आई ज़रूर है, लेकिन उसकी गति अभी भी कुछ धीमी है।

उपन्यास की शुरुआत में ही सुनारिन और उसके बूढ़े पति का एक छोटा सा क़िस्सा है। जिसमें शानी, बेमेल विवाह और उस विवाह से औरतों की दोजख़ बन गई ज़िंदगी को बयां करते हैं। तिस पर ग़र्ज़ यह कि आदमी, औरत पर ही तमाम शक़ और उसके सिर इल्ज़ाम रखता है। उपन्यास जब आगे बढ़ता है, तो परिदृश्य में छोटी फूफी आती हैं। उनके साथ मुमानी, बिलासपुरवाली, रुबीना, बी-दारोगिन, सल्लो, मालती, रशीदा, सूफ़िया, ज़हीरा भाभी और जै़बून के किरदार आते हैं। कोई सा भी किरदार हो, उसे अपने समाज और परिवार में गैर-बराबरी और शोषण का सामना करना पड़ा है। छोटी फूफी, मुमानी उर्फ बब्बन की अम्मी और बिलासपुरवाली शादी के बाद घुटन भरी ज़िंदगी जीती हैं। उनकी ज़िंदगी में कहीं नाम मात्र की खु़शी और उम्मीदों की किरण नहीं दिखाई देती। पुरुष किरदार अपना सारा फ्रस्टेशन इन महिला किरदारों पर ही निकालते हैं। फिर भी मजाल है कि अपने साथ हो रहे इस ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ उन्होंने कोई आवाज़ उठाई हो। इस बे-ग़ैरत ज़िदगी को ही वे अपनी किस्मत समझ ख़ामोश हैं। महिलाओं के इन हालात के लिए यदि किसी को ज़िम्मेदार माने, तो वह है पुरुष पर उनकी निर्भरता। जब तक वे आत्मनिर्भर नहीं होंगी, तब तक समाज में उनके साथ यही बर्ताव होगा। उनके प्रति समाज का नज़रिया नहीं बदलेगा।
 ‘काला जल’ में शानी ने भारतीय समाज में महिलाओं की सिर्फ़ दयनीय स्थिति ही नहीं दिखलाई है, उपन्यास में बी-दारोगिन जैसा भी किरदार है, जो पुरुषों को अपनी मुट्ठी में और समाज को अपने ठेंगे पर रखता है। वहीं सल्लो आपा भी है, जो तमाम सामाजिक वर्जनाओं को तोड़कर, पुरुषप्रधान समाज में अपना प्रतिरोध दर्ज करती है। इस किरदार को शानी ने दिल से गढ़ा है। सल्लो आपा को पुरुषों की तरह कपड़े पहनने, अश्लील तस्वीरों की किताब देखने में कहीं कोई हर्ज़ नहीं। ज़रूरत पड़ने पर वह अपने होठों पर सिगरेट लगा लेती है। प्रेम की अभिव्यक्ति में भी वह पुरुषों से कहीं आगे है। इन इंक़लाबी हरकतों के बावजूद सल्लो आपा का भी वही हश्र होता है, जो उपन्यास में बाक़ी महिलाओं का। छोटी फूफी, जिन्होंने अपनी पूरी उम्र सामाजिक बंधनों और अपने शौहर की ग़ुलामी में गुज़ारी, ज़रूरत पड़ने पर बेटी सल्लो के हक़ में नहीं खड़ी हो पातीं। उपन्यास के अंत में रहस्मय तरीक़े से सल्लो की मौत हो जाती है। उपन्यास में सल्लो आपा की मौत वाक़ई अफ़सोस—नाक है। पाठकों को इससे सचमुच बहुत निराशा होती है। लेकिन इस किरदार में उम्मीद की एक किरण भी है। आहिस्ता-आहिस्ता ही सही महिलाएं अपने अधिकारों के लिए खड़ी हो रही हैं। उनकी जो सोई हुई ख़्वाहिशात और अरमान हैं, वे उन्हें अभिव्यक्त करना चाहती हैं। शानी इस बदलाव को नज़दीकता से महसूस कर रहे थे। यही वजह है कि जब मौक़ा आया, तो उन्होंने इन महिला किरदारों को अपनी आवाज़ दी। ‘काला जल’ की व्यापक अपील और लोकप्रियता के चलते ही इस पर बाद में टेलीविजन धारावाहिक बना, जो उपन्यास की तरह ही काफ़ी मक़बूल हुआ। इस उपन्यास का भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी और रूसी भाषा में भी अनुवाद हुआ।

शानी के कई कहानी संग्रह आए मसलन ‘बबूल की छांव’, ‘एक से मकानों का घर’, ‘युद्ध’, ‘शर्त का क्या हुआ’, ‘बिरादरी’, ‘सड़क पार करते हुए’, ‘जहाँ-पनाह जंगल’, ‘मेरी प्रिय कहानियां’। उनकी संपूर्ण कहानियां ‘सब एक जगह’ संग्रह में दो खंडों में संकलित हैं, तो वहीं छह खंडों में शानी की सारी रचनावली भी प्रकाशित हो गई है। जिसका संपादन जानकीप्रसाद शर्मा ने किया है। ‘एक शहर में सपने बिकते हैं’ और ‘नैना कभी न दीठ’ शानी के निबंध संग्रह हैं। इस बात का बहुत कम लोगों को इल्म होगा कि सदाबहार फ़िल्म ‘शौक़ीन’ के संवाद भी शानी के लिखे हुए हैं। शानी अपनी आत्मकथा भी लिखना चाहते थे, मगर वह अधूरी ही रह गई। अलबत्ता, आत्मकथा का एक हिस्सा मासिक पत्रिका ‘सारिका’ में ‘गर्दिश के दिन’ नाम से प्रकाशित हुआ। शानी ने कथा साहित्य के अलावा साहित्यिक पत्रकारिता की और यहां भी वे कामयाब रहे। ‘साक्षात्कर’, ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ पत्रिकाओं के वे संस्थापक संपादक थे। अपने समय की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘कहानी’ का भी उन्होंने संपादन किया। शानी जब तलक ‘साक्षात्कार’ में रहे, पत्रिका का नाम देश में चर्चित रहा। अपने संपादन में उन्होने नए रचनाकारों को हमेशा तवज्जोह दी। नए हों या पुराने सभी रचनाकारों से उनका सामंजस्य बहुत अच्छा था। साहित्य पत्रकारिता से होते हुए वे ‘मध्यप्रदेश साहित्य परिषद्’ के सचिव पद पर पहुंचे। साल 1972 से लेकर मार्च 1978 तक वे इस पद पर लगातार रहे। इस दौरान परिषद् में उन्होंने कई नवाचार किए। नई योजनाएं बनाई और उन्हें तत्परता से लागू किया।

शानी की ज़िंदगी में साहित्य का मुक़ाम बहुत ऊंचा था। उन्होंने अपनी सारी ज़िंदगानी, हिंदी साहित्य के नाम कर दी, तो साहित्य ने भी उन्हें सब कुछ दिया। शानी की कई कहानियों का आकाशवाणी द्वारा नाट्य रूपांतरण किया गया। दिल्ली दूरदर्शन ने उन पर पैंतालीस मिनिट का एक वृतचित्र बनाया। मध्यप्रदेश सरकार ने उनके साहित्यिक अवदान का मूल्यांकन करते हुए, अपने सर्वोच्च सम्मान ‘शिखर सम्मान’ से नवाज़ा। शानी की कई कहानियां विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं। साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक मोनोग्राफ़ प्रकाशित किया है। 10 फरवरी, 1995 को शानी इस जहान से रुख़सत हुए। शानी के मा’नी भले ही दुश्मन हो, लेकिन वे सही मायने में इंसान—दोस्त लेखक थे। उनके संपूर्ण कथा साहित्य का पैग़ाम इंसानियत और मुहब्बत है। हिंदी कथा साहित्य में इंसानी जज़्बात को पूरी संवेदनशीलता और ईमानदारी से पेश करने के लिए शानी हमेशा याद किए जाएंगे।

महल कॉलोनी, शिवपुरी—473551 (म.प्र.)
मोबाइल : 94254 89944

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