शानी का रचना संसार

काला जल भारतीय समाज के एक महत्वपूर्ण वर्ग की पहली प्रामाणिक गाथा है, वह वर्ग जिसे हम भारतीय मुसलमान के नाम से जानते हैं। सदियों से भारतीय मुसलमानों को शासक, नवाब, दरबारी और सुसंस्कृत अभिजात वर्ग की तरह पेश (चित्रित) किया गया है लेकिन शानी का उपन्यास “काला जल’’ ने उन्हें उसी रुप में दिखाया है जो वो हैं, जाने पहचाने और सशंकित वो लोग जो ज़ाती और सामाजिक जद्दोजहद करते नज़र आते हैं, उनकी मासूम सफलताएं और शर्मनाक त्रासदियां, छोटी-छोटी ख़ुशियां और बड़े-बड़े ग़म, उनके जुनून लेकिन साझा पहचान।

शानी अपने पात्रों और उनके परिवेश के लिए एक ख़ास तरह की समझ देते हैं, ऐसी समझ जो सिर्फ़ हमदर्दी को जन्म देती है। इसके बावजूद शानी न तो कभी जज़्बात में बहते हैं और न ही आत्मग्लानि के शिकार होते हैं, उल्टे वह बेहद सहज भाव से पूरे अधिकार के साथ कहानी बयां करते हैं। नतीजतन हम भारतीय मुसलमान के बारे में एकतरफा सामाजिक शोध से नहीं, बल्कि दुनिया के किसी भी कोने में पाई जाने वाले मानवीय परिस्थितियों के सजीव और झकझोरने वाले रुप से रुबरु होते हैं।

लेकिन काला जल को एक मुस्लिम उपन्यास कहना भी गलतबयानी होगी। ये दो परिवारों के उन लोगों की कहानी है जो सिर्फ़ भारतीय परिवेश के ही हो सकते है और इसलिए ये मूलत: एक भारतीय उपन्यास है। लेकिन इसे सिर्फ़ एक भारतीय उपन्यास भी कहना ग़लत होगा। तीन पीढ़ियों के टूटने और बिखरने की कहानी दुनिया के किसी भी हिस्से की हो सकती है।

सांप और सीढ़ी

‘सांप और सीढ़ी’ आज़ादी के बाद तेज़ी के साथ बदलते हुए समाजार्थिक परिदृश्य की पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास है। लगभग 1948-49 के समय संदर्भ से इसकी कहानी आरंभ होती है। यह वह दौर है जब विकास के नये नये प्रयोग शुरु हो रहे थे। ये प्रयोग लोगों की ज़मीनी ज़रुरतों को नज़रअंदाज़ करके किए जा रहे थे। इस तथाकथित विकास की सबसे बड़ी अलामत है गांव का नगरीकरण। गांव का केवल ऊपरी ढांचा ही नहीं बदला बल्कि पारंपरिक पेशे भी उजड़े हैं। स्थानीय संस्कृति और लोकजीवन छिन्न भिन्न हुए हैं और जीवन की सहज लय में व्याघात पैदा हुआ है। सामाजिक परिवेश में घटित हो रहे इन चाहे-अनचाहे परिवर्तनों के दौर को हम संक्रमण काल के रुप में जानते हैं।

शानी उपन्यास की भूमिका मे लिखते हैं: “इसकी कहानी संक्रमण की है या संक्रमण की ज़द में आये हुए एक छोटे से गांव की। यह है वर्तमान छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाक़े का कस्तूरी नामक गांव। इस तरह यह एक गांव के रुपांतरण की कहानी भी है।“

‘सांप और सीढ़ी’ उपन्यास हमें यह भी बताता है कि संक्रमण के दौरान बाज़ार का स्वरुप किस तरह बदलता है। सेठ-साहूकारों और खदान के ठेकेदारों की मिलीभगत से बुनकरों के करधे बंद होने लगते हैं। सेठ लोग बुनकरों को सूत और धागा देना बंद कर देते हैं। इस समाजार्थिक बदलावों का प्रतिफूलन कस्तूरी गांव के लोगों के सोच और व्यवहार में होता है। आज़ादी के बाद की सच्चाई को शानी ने बड़ी विश्वसनीय और कलात्मक रुप में प्रस्तुत किया है।

शानी की ख़ूबी यह है कि गांव के तिरोहित होते जाते की स्तिथियों के बीच एक स्त्री यानी धान मां की त्रासद प्रेम कहानी को भी बुनते चलते हैं। यह धान मां और हीरा सिंह की प्रेम कहानी है। यह बुनावट इतनी सघन है कि उपन्यास के किसी संदर्भ को धान मां से अलग करके समझा ही नहीं जा सकता। धान मां की विडंबना यह है कि वह अपने बेटे को उसके पिता का नाम नहीं दे पाती। यहां उपन्यासकार का अभीष्ट यह है कि सिर्फ़ गांव का स्वरुप ही नहीं बदल रहा है, इस संक्रमण की ज़द में संबंधों की बुनियादें भी हिल रही हैं। शानी यह बताने में सफल हुए हैं कि आज जो सामाजिक परिदृश्य बन रहा है, वह व्यक्ति को अकेलेपन की ओर धकेलने वाला है।

  नदी और सीपियां

 ‘नदी और सीपियां’ उपन्यास में शानी विशेषतया पति-पत्नी और समान्यतया स्त्री-पुरुष के संबंधों को प्रश्नांकित करते हैं। वे हमारी समाज व्यवस्था में जड़ीभूत हो चुके संबंधों को संदेह के घेरे में लाकर खड़ा कर देते हैं। इसे हम स्त्री-परुष संबंधों के रुढ़ और स्थापित अर्थों के अन्यत्व की तलाश भी कह सकते हैं। इन संबंधों को लेकर जितना और जिस कोण से हम देख पाने के आदी हैं, सच्चाई उससे बाहर भी है। हम प्राय: इस अर्थ के अन्यत्व का सामना करने से कतराते हैं क्योंकि अन्य सच्चाई को जानने और मेहसूस करने करने से हम आत्मिक रुप से आहत होते हैं। दरअस्ल स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर संदेह की स्तिथि हमारे वृहत्तर सामाजिक परिदृश्य के बदलाव की ओर संकेत करती है। उपन्यास के कथानक में हालंकि विवाह की संस्था से जुड़े इन संबंधों को ही प्रमुखता मिली है लेकिन शानी इन संबंधों की तह से व्यापक मानवीय संबंधों को संदेह की ज़द में ले जाते हैं।

इस उपन्यास के कथ्य के पीछे मौजूदा संबंधों के तंत्र पर ग़ौर करें तो नये वैश्विक विकास के परिप्रेक्ष्य में परिवार और विवाह जैसी संस्थाओं के क्षरण की ओर हमारा ध्यान जाता है। इस क्षरण को धीरे-धीरे सामाजिक स्वीकृति मिलती जा रही है और आज इसे नई नैतिकता का नाम दे दिया गया है। कथाकार यह दर्शना चाहता है कि तथाकथित रुढ़ नैतिकता दाम्पत्य संबंधों के मुक्त आकाश को परिमित करती है और उन्हें  तरह-तरह की वर्जनाओं का शिकार बनाती है।  पूरे उपन्यास में रुढ़ और नई नैतिकता की यह कशमकश कहीं स्वर्णा और हेमंत तथा स्वर्णा और राजीव के संबंधों के माध्यम से व्यक्त हुई।

उपन्यास की संवेदना का एक आयाम स्त्री-पुरुष संबंधों से और दूसरा आयाम दाम्पत्य संबंधों से जुड़ा हुआ है। इसकी केंद्रीय नारी पात्र स्वर्णा का चरित्र दोनों आयामों को छूता आगे बढ़ता है। यद्धपि उपन्यास की मूल समस्या संबंधों के बीच वर्जनाओं का दख़ल है लेकिन इसकी अपील बहुत व्यापक है।

 

एक लड़की की डायरी

‘एक लड़की की डायरी’ उपन्यास में आसपास के एक ऐसे क़स्बे का परिवेश है जिसमें तेज़ी के साथ शहरीयत आती जा रही है। संस्कारों की दृष्टि से तो यह गांव जैसा है लेकिन इस पर शहर का रंग-रोग़न चढ़ता जा रहा है। लोग एक दूसरे के जीवन में इतनी रुचि लेने लगते हैं कि वहां का जीवन सबसे अधिक अरुचिकर हो जाता है।

‘एक लड़की की डायरी’ में अपने जीवन को एक अर्थ देने की जद्दोजहद से गुज़रती हुई दो स्त्रियों की दास्तान है। बानू और अनीस बाजी  दोनों का संबंध मुस्लिम परिवेश से है लेकिन यह मुस्लिम संस्कृति की पृष्ठभूमि वाला उपन्यास नहीं है। बानू और अनीस बाजी हमारे मख़्सूस सामाजिक ताने-बाने और राजनीतिक ढांचे से जन्में बड़े प्रश्नों से नहीं जूझती हैं बल्कि वे अपनी भीतरी जद्दोजहद से जुड़ी नितांत निजी स्तिथियों से बार-बार टकराती हैं और ख़ुद को लहुलुहान पाती हैं। यह यात्रा जारी रहती है। इनमें से एक स्तिथि को उपन्यासकार ने संकेत शीर्षक आमुख में एक पात्र मल्होत्रा साहब के ज़रिए प्रस्तुत कर दिया है, ‘क्या ऐसा नहीं होता है कि कल मूल्य विशेष को चरम सत्य मानकर हम अपनी सारी आस्था, ईमानदारी और निष्ठा सोंप देते हैं, वही आज परिस्तिथिजन्य कारणों से सबसे झूठ बन जाता है? क्या हमारा निश्चय एक तरह से अनिश्चय ही नहीं होता….” हम पायेंगे कि इस उपन्यास के बानू, अनीस बाजी, मोना और सभी प्रमुख स्त्री-पात्र इन प्रश्नों के घेरे में ही गर्दिश करते रहते हैं।

इस उपन्यास में नई कहानी की रोमानी भावभूमि का गहरा दख़ल है। जिन आंतरिक स्तिथियों को रचना विषय बनाया गया है उनकी अभिव्यक्ति रोमान में ही हो सकती थी। रोमान के रहते हुए ही बानू और अनीस बाजी के अपने-अपने अजनबीपन को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं और किसी हद तक उसमें शरीक भी होते हैं। जो पत्थरों में बंद आवाज़ अकेले बानू सुनती है, उसे पाठक के रुप में हम भी सुन पाते हैं और किसी रचना की सार्थकता भी यही होती है।

शाल वनों का द्वीप

अपने मित्रा और साथी श्री शानी की इस रचना पर दो शब्द लिखते हुए मुझे एक साथ गौरव भी है और हर्ष भी। उन्होंने बस्तर में मुझे जो उदार सहयोग दिया, उससे पहाड़ी-माड़िया-गोंड़ के सामाजिक जीवन और नृतत्व के अध्ययन की सफलता में मुझे अत्यन्त ठोस सहायता मिली।

आज उन दिनों की कोई भी चर्चा अथवा उन पहाड़ी-माड़िया-गोंड़ों की कोई भी बात मुझे सहसा नास्टेल्जिया और
सुखद स्मृतियों से भर देती है। मैं अबूछमाड़-पहाड़ियों की तराई वाले एक गाँव ओरछा में अपनी पत्नी के साथ डेढ़ वर्ष रह गयाकृऐसे क्षेत्रा में जो आज भी भारत का सबसे अधिक अछूता, पिछड़ा हुआ और बिरला-बसा इलाकष है। इस तेज़ी से बदलते संसार में ओरछा के लोग आज भी अपनी सैकड़ों बरस पुरानी, ठेठ पारम्परिक, लेकिन सम्भवतः सबसे अधिक मूल्यवान जीवन-पद्धति से चिपके हुए हैं और उसे किसी कीमत पर भी छोड़ना नहीं चाहते।

एक माड़िया गोंड़ का घर पहाड़ियों, वनों और नालों पर होता है। यों गाँव के दामन में लगकर बहने वाली नदी, जिसे ओरछा वालों ने अपने गाँव के नाम पर नाम दे रखा है, के तट पर धान के खेत देखे जा सकते हैं, लेकिन गोंड़ अथवा जैसा कि वे लोग अपने को पुकारते हैं, कोईतूर लोग, खेती की प्राचीनतम पद्धति ‘दाही’ को छोड़ने के लिए आज भी कतई तैयार नहीं। यहाँ ज्वार, दालें, सेम, लौकी, आलू और दूसरी कुछ सब्जिश्याँ पहाड़ी वन को काटने-जलाने, साफ करने और बोने की सरलतम-पद्धति के अनुसार उगाई जाती हैं। जिन हथियारों का उपयोग किया जाता है, वे हैं केवल कुदाली और कुल्हाड़ी।

लेकिन ये वनीय-पहाड़ उनके केवल खेत नहीं हैंकृये अनेक घरेलू उपयोग की चीजशेंकृमसलन, पत्तल-दोने या टोकनी-चटाई आदि के वृक्ष-वन या बाँस-वन के महत्त्वपूर्ण भण्डार हैं। वन घने हैं, जंगल प्राणों या धन से भरपूर और कभी-कभार तीर-कमान से किया हुआ चीतल, सांभर, खरगोश या बनमुर्गी का शिकार उनके खाने की एकरसता को तोड़ता है। वर्षा के दिनों में इन्हीं पहाड़ियों से अनेकों छोटे-छोटे और तेजश् झरने फूट आते हैं जिसके जल को खेती के पास रोककर बेशुमार मछलियाँ पकड़ी जाती हैं।

यही नहीं, इन पहाड़ियों में इनकी और भी व्यक्तिगत और निजी सम्पदा छिपी हुई हैकृइन्हीं के इस या उस पार, असंख्य छोटे-छोटे समूहों में शेष कोईतूर जाति बसती है, जो वास्तव में किसी भी एक जगह नहीं बसती, बनजारों की तरह दस जगह बसती है, दस जगह उजड़ती है। इन्हीं पहाड़ी के पार वाले नन्हें-नन्हें गाँवों से ओरछा के नवयुवकों के लिए वधुएँ आती हैं अथवा यहाँ की नवयुवतियाँ वधू बनकर पहाड़ी पार के गाँवों को जाती हैं और इस तरह सारे अबूझमाड़ की कोईतूर जाति एक-दूसरे के रक्त-सम्बन्धी रूप में सम्बद्ध रहती है।

त्योहारों के अवसर पर मसलन, बसन्त-ऋतु में मनाए जाने वाले शृंगार पर्व ‘काकासार’ पर ‘कोईतूर’ युवक पहले एक और फिर दूसरे गाँवों में धा£मक समारोह मनाने, युवतियों के साथ उन्मुक्त होकर नाचने-गाने, जी खोलकर शराब पीने अथवा शामों को रंगीन और दिलचस्प बनाने के लिए जुट जाते हैं। इन्हीं उत्सवों में अलग-अलग गाँवों के युवक और युवतियों के बीच मधुर सम्बन्ध स्थापित होते हैं और अक्सर ये ही सम्बन्ध अबूझमाड़ की अनेक शादियों के आधार बनते हैं।

कोईतूर जाति मूलतः सुखी लोगों का समुदाय है और उनके बीच की जिश्न्दगी मेरे जीवन का एक अत्यन्त सुखद अनुभव। अक्सर अलस्सुबह और देर गई शामों को, गाँव के पास वाले वन के किसी सलपी पेड़ के गिर्द जुटने वाले लोगों में मैं भी शामिल हो जाता। एक जलती हुई अँगीठी को घेरकर हम लोग बैठ जाते और अपने-अपने शाल-पात के दोने से पेड़ की ताजश उतरी सलपी घूँट-घूँट पीते हुए गाँव-जवार की चर्चा करते। सवेरे के अवसरों पर सारे दिन का कार्यक्रम यहीं तैयार होता। अगर कोई उत्सव आदि का आयोजन होना हो तो सारी सामग्री तैयार है अथवा नहीं, यह देखा या विचार किया जाता । हरेक को अपने परिवार की ओर से सूअर, मुर्ग या अनाज आदि पूजा के लिए भेंट करना पड़ता। किसी विशेष ‘लस्के’ अथवा पुरोहित को किसी पड़ोसी गाँव से निमन्त्रिात करने पर विचार-विमर्श किया जाता।

स्वयं ओरछा में एक नहीं, तीन-तीन पुरोहित हैं। लोगों की आस्था है कि इन पुरोहितों में देवी को आमन्त्रिात कर अपने शरीर में धारण करने की असामान्य क्षमता होती है और यह कि लोग केवल इनके ही माध्यम से अपने देवों के साथ सीधे-सीधे बातें कर सकते हैं। ऐसे उत्सव बड़े उत्तेजक होते हैं। ‘लस्के’ अथवा पुरोहित नगाड़े की धुन पर पहले तो उन्मुक्त और खुला नृत्य करते हैं फिर थमकर, काँपती हुई उत्तेजक और देव-सुलभ वाणी में बातें करते हैं। ये लोगों को अपना कर्तव्य-पालन करने, खेतों की देखभाल करने और नियमानुसार चढ़ावा देने की सलाह देते हैं।
लेकिन कभी-कभी गाँव की खुशहाल जिश्न्दगी को आतंकित करने वाली दुर्घटनाएँ भी हो ही जाती हैं जैसी कि एक बार हमारे वहाँ रहने के दौरान हुई। हमारे पड़ोस में रहने वाली एक नवयुवती को एक आदमख्शोर शेर ने दिन-दहाड़े मार डाला। वह गाँव की कुछ और युवतियों के साथ जंगल में पत्ते तोड़ने गई थी और यह घटना घटी। दूसरी युवतियाँ चीख मारती हुई गाँव भाग आईं, लेकिन क्या हो सकता था? आदमखोर शेरों का भय कोईतूरों में निरन्तर बना रहता है क्योंकि ऐसी मौत सम्भवतः सबसे अधिक भयावह होती है।

ख़तरे और भी हैं और वे हैं बीमारियाँ, जिनका अन्त कई बार मृत्यु के साथ होता है। चेचक इनमें सबसे अधिक प्राणलेवा है। कोईतूर लोगों का विश्वास है कि देवी माता-दाई, जिस व्यक्ति से रुष्ट होती है, उसे अपने चंगुल में ले लेती है। चेचक के दाने इस बात के चिद्द हैं कि देवी ने व्यक्ति को आक्रान्त कर लिया है। ऐसे अवसर पर सारी रात नगाड़े बजते हैं और माता-पुजारी चेचकग्रस्त व्यक्ति पर निरन्तर मयूरपंख झलता है, इस विश्वास के तहत कि बीमार को किसी अलौकिक शक्ति का संरक्षण प्रदान किया जा रहा है। फिर ‘लस्के’ देवी को आमन्त्रिात करता है। देवी बताती है कि वह क्यों नाराजश् है और उसे प्रसन्न करने के कौन-कौन-से उपाय किए जा सकते हैं।

बावजूद इन समस्याओं, ख्शतरों तथा सिर पर निरन्तर मँडराने वाले भय के, कोईतूर लोग प्रसन्नचित्त रहते हैं। नाच, गाने और शराब उन्हें प्रिय हैं और उनके साथ बिताए हुए खूबसूरत दिनों के लिए मैं मन-ही-मन कृतज्ञ हूँ। विशेषकर वे शामें भुलाना कठिन हंै, जो मैंने किसी परिवार के साथ, अहाते के भीतर जलने वाली गर्म अँगीठी के गिर्द बैठकर, जंगली जानवर, फसल या आने वाली किसी बाजशर-यात्रा पर चर्चा करते हुए बिता दी है। ऐसी ही चन्द वे रातें थीं, जो मैंने घोटुल में बिताईंकृघोटुल, जहाँ शाम होते ही गाँव का सारा युवा-रक्त इकट्ठा हो जाता है। युवक और युवतियाँ पारस्परिक गीत गाते और ऐसे धीमे सधे हुए और लययुक्त कष्दमों से नृत्य करते हैं जो उनकी विलक्षण संस्कृति के ही अनुरूप होता है। और मेरी स्मृति में बसे हुए हैं सबसे अधिक स्वयं ओरछा के गूमा, बैरी, मासा और रेको जैसे लोग जो मेरे और पत्नी के सबसे घनिष्ठ मित्रा थे। फिर वहाँ का पटेल उसेन्डी लकमा जिसने बेहद उदारतापूर्वक न केवल समय, आतिथ्य और ध्यान दिया बल्कि कोईतूर लोगों की जीवन-पद्धति समझने में मेरी बड़ी मदद की। शायद ये मित्रा नृतत्वशास्त्रा का पारिभाषिक अर्थ अन्त तक नहीं जान पाए, लेकिन एक जीवन-पद्धति को समझने के लिए निरीक्षण तथा उसका एक हिस्सा बनकर चलना कितना जश्रूरी है, यह वे अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने हमें समाज में बिलकुल एक पारिवारिक सदस्य की तरह स्वीकार किया और ‘पेपी’ तथा ‘पेरी’ (पिता के बड़े भाई और उनकी पत्नी) कहकर पुकारा। बाहरी रूप के पीछे भी, जो मनुष्य को अलग-अलग संस्कृतियों में विभाजित करता है, एक मूलभूत मानवीयता छिपी होती है और मैं समझता हूँ कि ओरछा में इस तथ्य को हम लोगों ने परस्पर अच्छी तरह समझा था। आखिर नृतत्वशास्त्रा का लक्ष्य ही यही है कि मानव-जाति के बाह्य को ही नहीं, उसके भीतर छिपे मनुष्य को भी समझा जाए।

मेरे प्राध्यापक स्व. राबर्ट रेडफील्ड अक्सर कहा करते थे कि किसी परायी जीवन-पद्धति का अध्ययन दो तरह से किया जाना चाहिए। एक, वैज्ञानिक का तकनीकी और समाजशास्त्राीय विस्तृत प्रतिवेदन। दूसरा, किसी उपन्यासकार अथवा सृजनशील लेखक का चुनिन्दा, सूक्ष्म तथा संवेगपूर्ण विवरण। ऐसे ही संयोग से शायद एक विशाल परिप्रेक्ष्य-युक्त तथा अधिक गहरे अर्थों वाला चित्रा उभर सकता है जो कि अकेले एक दृष्टिकोण से प्रायः सम्भव नहीं हो पाता।

श्री शानी की यह रचना शायद उपन्यास नहीं, एक अत्यन्त सूक्ष्म संवेदनायुक्त सृजनात्मक विवरण है जो एक अर्थ में भले ही समाजविज्ञान न हो लेकिन दूसरे अर्थ में यह समाजविज्ञान से आगे की रचना है। एक सृजनशील रचनाकार के रूप में घटनाओं तथा चरित्रों के निरूपण में श्री शानी की उस स्वतन्त्राता से मुझे ईष्र्या होती है जिसका अक्सर तकनीकी विवरणों1 में आवश्यक रूप से अभाव होता है।
श्री शानी द्वारा प्रस्तुत मानव-जाति के एक भाग का यह अध्ययन, समस्त मनुष्य-जाति को समझने की दिशा में एक योगदान है।
जोहार!

प्रोफेसर ऑफ एन्थ्रापॉलाजी, एडवर्ड जे.जे.
केलिफोर्निया स्टेट यूनिवरसिटी, हेवर्ड, संयुक्त राज्य अमेरिका पी-एच.डी.

कहानीकार शानी

 

“मेरे सामने न तो कोई सामाजिक उद्देश्य था और न ही किसी प्रकार की प्रतिबध्दता। मैं तत्कालीन किसी सामाजिक या राजनीतिक आंदोलनों से भी परिचित नहीं था और न किसी सामाजिक अन्याय ने मुझे लेखन की ओर प्रवृत किया था। लिखना मेरे लिए नितांत व्यक्तिगत, निजी और गोपन (inner) यंत्रणाओं से मुक्ति और तंग करनों वाले प्रश्नों से जूझने का माध्यम था और आज भी है।“

शानी का यह आत्मस्वीकार एक रचनाकार के रुप में उनकी जीवनदृष्टि और विचारधारा को समझने में मदद करते है। वे ऐसे बिरले कथाकार हैं जिनके क़लम की परवरिश किसी मंच या संगठन ने नहीं की। उनकी सर्जना का दारोमदार प्रत्यक्ष जीवनानुभवों पर है। बग़ैर दावों और घोषणाओं के भी प्रगतिशील अंतर्वहत से संपन्न साहित्य रचा जा सकता है, शानी की कहानियां इसकी जीती जागती  मिसालें हैं।

शानी की रचना यात्रा का आरंभ नई कहानी आंदोलन के दौरान होता है। वे साहित्यिक वादों और नारों के शोर से बेख़बर होकर अपने ताज़ा और अस्ल (first hand) अनुभवों की पूंजी और सर्जनात्मक पीड़ा (creative urge) के बूतों पर कहानी की दुनियां में दाख़िल होते हैं और अपने लिए एक नई राह निकालते हैं, ऐसी राह जिसमें अनेक मोड़ और पड़ाव आते हैं लेकिन हर मुक़ाम पर जीवन के ताप को हम जा बजा मेहसूस करते हैं। एक कथाकार के रुप में शानी की यही अद्वितीयता है। उनके पहले कहानी संग्रह ‘बबूल की छांव’(1958) से लेकर अंतिम कहानी संग्रह ‘जहांपनाह जंगल’(1984) तक की कहानियां इसकी गवाह हैं।

शानी की रचनाशीलता के साथ मुस्लिम संस्कृति की पहचान स्वाभाविक रुप से जुड़ी हुई है। मुस्लिम संस्कृति को कहानी के केंद्र में का श्रेय उन्हें जाता है। अलबत्ता ये स्पष्ट कर देना ज़रुरी लगता है कि मुस्लिम संस्कृति की वज़ाहत को शानी के रचनाकर्म की सीमा नहीं मानना चाहिए। उनके यहां अनुभव का एक व्यापक रेंज नज़र आता है। यानी ‘युद्ध’ और ‘बिरादरी’ के साथ साथ ‘एक नाव के यात्री’ और ‘इमारत गिराने वाले’ जैसी बेमिसाल कहांनियां भी शानी ने लिखी हैं।

 

 

 

 

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