इमारत गिराने वाले

चिंतनशील शानी

                                                                                       

आधुनिक खड़ी बोली के पहले बड़े मुसलिम साहित्यकार गुलशेर ख़ाँ शानी की पुण्यतिथि पर स्त्री-पुरुष के जटिल पारिवारिक संबंधों पर लिखी उनकी यह कहानी साहित्य आजतक पर विशेष।

गुलशेर ख़ाँ शानी ने भारतीय समाज और साहित्य को अपनी रचनाओं से किस कदर प्रभावित किया, इसकी बानगी प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह के इस चर्चित बयान में साफ दिखती है. उन्होंने कहा था, “…भाषा-साहित्य और संस्कृति के इतिहास में अठारहवीं शताब्दी के मध्य में कुछ ऐसा घटित हुआ कि उसके चलते लगभग दो सौ वर्षों तक हिंदी में लिखने वाला कोई बड़ा मुसलमान साहित्यकार हुआ ही नहीं. इस दृष्टि से देखें तो शानी हिन्दी-आधुनिक खड़ी बोली हिन्दी के पहले बड़े मुसलमान साहित्यकार हैं जो लगभग दो सौ वर्षों के लम्बे अन्तराल के बाद पैदा हुए।

अजीब बात है कि उन्नीसवीं शताब्दी के हिन्दी नव-जागरण काल में भी कोई मुसलमान साहित्यकार हिन्दी में लिखने के लिए आगे नहीं आया और बीसवीं शताब्दी के राष्ट्रीय जागरण के काल में भी। ‘रानी केतकी की कहानी’ के लेखक सय्यद इंशा अल्ला खां को मैं भूल नहीं रहा, लेकिन इंशा मूलतः और मुख्यतः उर्दू के शायर थे। प्रेमचन्द के समकालीन जहूरबख्श की भी मुझे याद है लेकिन उन्हें साहित्यकार मानना कठिन होगा। राही मासूम रजा का नाम भी मेरे जेहन में है और यह भी जानता हूँ कि वे शानी से उम्र में बड़े थे; लेकिन वे हिन्दी में शानी के बाद आये, लगभग 1960 के आस-पास और वह भी उर्दू से हिन्दी में आये थे, जबकि शानी शुरू से ही हिन्दी-सिर्फ़ हिन्दी के लेखक थे।

इमारत गिराने वाले

दूसरे कमरे से सारी आहटें आ रही हैं—वे सारी आहटें, जो किसी भी परिवार की सुबह के साथ वैसे ही आती हैं, जैसे सूरज के साथ धूप । हर घर की सुबह जैसी सुबह, जिसमें किचन की खटपट, चाय के प्यालों की खनक, नलों के चलने और खाली पत्थर पर पछाड़ें खाने का स्वर या बाथरूम में फ्लश की आवाज़..

मैं जानता हूँ कि वह घड़ी आन पहुँची या अगर पहुँची न हो तो किसी भी क्षण अचानक पहुँच सकती है । फिर क्या होगा ? क्या मैं घबराया हुआ हूँ या डर रहा हूँ ? शायद दोनों ही बातें हो सकती हैं । बहुत मुँह–अँधेरे ही मेरी आँखें खुल गई थीं और मुझे अचानक ध्यान आया था कि मैं दूसरे के ड्राइंग–रूम में सो रहा हूँ ।

पहले मुझे विश्वास नहीं हुआ था कि मैं अपने घर के पलंग पर नहीं हूँ । बरसों पुरानी आदत के तहत मेरे सिर को अपने नर्म और गुलगुले तकिये पर होना था या मेरी बाँहों में पत्नी का सोया हुआ या बासी शरीर! लेकिन बरअक्स इसके मैं पराए घर के सोफे पर अकेला पड़ा हुआ था और मेरी गर्दन गोल और सख्त तकिये के कारण दुख रही थी ।

मुझे सख्त प्यास लगी थी और हलक में काँटे उग आए थे । असल में सूखे हलक ने ही मुझे वक्त से पहले जगा दिया था । नशा, जिसे मैं खुमार बिल्कुल नहीं कह सकता, अभी भी मेरे सारे बदन पर तारी था । सच कहूँ तो इसका एहसास मुझे अब हो रहा था कि रात मैंने कितनी शराब पी थी । रात! रात की याद आते ही मेरे शरीर में झुरझुरी–सी दौड़ गई और कई पलों तक मेरा शरीर सुन्न पड़ गया था । क्या जो कुछ हुआ, या हो गया वह सच था या नशे में आए हुए स्वप्न की झिलमिली–सी कैफियत ?

अभी अँधेरा था । अगर मैंने अपनी घड़ी न देखी होती तो मैं भी यही समझता कि अभी रात है । मैं धीरे–से उठा था और हलकी लड़खड़ाहट के बाद पानी की तलाश में किचन की ओर चल पड़ा था—दबे पाँव और धीरे । बाहर के दरवाजे को छोड़कर सारा घर खुला पड़ा था । किचन और बाथरूम की बत्ती तो खुली हुई थी ही, अनिल और चन्द्रा का कमरा भी वैसा ही था जैसा मैं रात छोड़ आया था—पलंग के पास वाली तिपाई पर उलटे–सीधे पड़े काँच के गिलास, नीचे लुढ़की हुई खाली बोतलें, उसके पास उतरी पड़ी चन्द्रा की साड़ी और कमरे की खुली हुई रोशनी में तथा मसले हुए बिस्तर पर बेहोश सो रहे पति–पत्नी!

किचन से दबे पाँव लौटते हुए मैं बड़ी देर तक वहाँ ठिठका रहा था । कई क्षणों तक मैं अपने दोस्त अनिल और उसकी पत्नी चन्द्रा के सोए हुए शरीर को देखता रहा था । चन्द्रा केवल एक पेटीकोट और ब्रा पहने हुए बेखबर सो रही थी । उसकी एक औंधी पिण्डली घुटने तक खुली हुई थी और उसे उस तरह देखते हुए यह विश्वास करना कठिन था कि यह वही रात वाली देह है ।ण्ण्ण्

मैं ड्राइंग–रूम में लौट आया था क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि वहाँ मैं देखता हुआ पकड़ा जाऊँ । फिर मेरे पास इसके सिवा और कोई चारा नहीं था कि एक के बाद एक सिगरेट पीऊँ, वक्त को गुजरने दूँ या सुबह होने का इन्तजार करूँ ।

एक बार यह भी मन में आया था कि अभी दोनों सो रहे हैं और उठने में देर भी हो सकती है, क्यों न चुपचाप उठकर अपने घर चल दूँ और आने वाले संकट से बच निकलँू । लेकिन फिर खयाल आया था कि मेरी हैसियत के लिहाज से यह कायरता होगी ।

अनिल मेरा दोस्त था भी और नहीं भी । दोस्त वह इन अर्थों में था कि इधर मेरा सारा वक्त उसी के पास या उसके घर पर गुज“रने लगा था और कारण चाहे जो हो, मैं इधर उसे पसन्द भी करने लगा था । नहीं था इस मानी में कि हम दोनों में दोस्ती का कोई भी आधार नहीं था । वह एक दफ्तर की नौकरी में मामूली–सी हैसियत पर जिन्दा रहने वाला आदमी था और मैं ?

मेरा सम्बन्ध उस वर्ग से है जिसके स्रोतों के बारे में लोग साँप के पाँव का उदाहरण दिया करते हैं । यों कारोबार के लिहाज से मैं ए क्लास कांट्रेक्टर हूँ । इमारतें गिराने और उठाने का काम करता हूँ, लिहाजा अनिल और मेरे वर्ग, हैसियत, शऊर, और मिजाज में बड़ा अन्तर था । यों भी अनिल मुझसे हमेशा दबा–दबा रहता था और मैं उस पर खूबसूरती से चड्डी गाँठे हुए था । हम दोनों इस बात को जानते थे । शायद दोस्ती का कोई आधार हो सकता था तो सिर्फ इतना ही कि अनिल के अनुसार हम दोनों एक ही जगह के रहने वाले थे ।

इस शहर को अपने या अपने कारोबार के लिए मैंने यों ही नहीं चुना था । शुरू से ही यह मुझे यों दिलचस्प लगा था कि एक में यहाँ दो शहर हैं या दो शहरों से मिलकर यहाँ एक शहर बन रहा है । एक तरफ पुरानी इमारतों का शहर है तो दूसरी तरफ नई इमारतों का बिल्कुल नया शहर । मुझसे बेहतर कौन जानता है कि पहला जिस अनुपात में टूट रहा है, दूसरा उससे कहीं ज्यादा दिन–ब–दिन फैलता जा रहा है ।

यहाँ आने के बाद भी कई साल तक हम लोग एक–दूसरे से टकराए नहीं थे । न तो उसे पता था कि मैं इस शहर में हूँ और न मुझे ही अनिल की ज“रूरत थी । अगर अपने कारोबार के सिलसिले में मैं अनिल के दफ्तर न गया होता तो शायद कभी भी यह नौबत न आती । दरअसल, मैं अपने कारोबार को जिस तरह समझता हूँ, इन दफ्तर वालों को, चाहे वे क्लर्क हों या अफसर, ऐसा नहीं है कि कम अच्छी तरह समझता होऊँ । ‘तुम डाल–डाल तो हम पात–पात’ की चाल मुझे खूब आती है । शायद इसीलिए अनिल की गर्मजोशी ने पहले तो मुझे चैकन्ना कर दिया था । लेकिन बाद में यह जानकर मुझे बेहद शरमिन्दगी हुई थी कि वह वो नहीं जो मैं समझ रहा था । यही नहीं, मुझ पर और पानी पड़ गया जब उसने दफ्तर के कारोबारी सम्बन्धों को बालाए–ताक करके पिछली जगह और उसमें गुज“रे दिनों की याद दिलानी शुरू कर दी थी ।

‘‘मैं जानता हूँ, आपको तो याद भी नहीं होगा ।’’ उसने कहा था—‘‘लेकिन मैं पहले दिन ही आपको पहचान गया था । बोला इसलिए नहीं कि बड़े आदमी हैं, जाने आप क्या ख्याल करें । आपको भला क्या याद होगा कि हम लोग स्कूल की निचली जमातों में भी साथ–साथ थे । याद कीजिए, दोपहर की रीसेज में आपको कच्ची इमली तोड़–तोड़कर कौन खिलाया करता था ? सोचिए और बताइए कि छुट्टी के दिनों में जामुन और अमरूद के बगीचे में गुलेल लेकर आप किसके साथ भागे–भागे फिरते थे ?’’

मुझे कुछ भी याद नहीं था । न तो जगह की यादें थीं, न स्कूल की । सच तो यह है कि मुझे इसमें भी शक था कि वह मेरी जगह का रहने वाला है लेकिन मैंने जाहिर नहीं होने दिया ।

अब मैं नहीं कह सकता कि अनिल के घर चलने के आग्रह को सबसे पहले मैंने कैसे और क्यों कर रख लिया था । मुमकिन है कि इस तरह मैं अपने बड़प्पन का एक और सबूत देना चाहता था । यह भी मुमकिन है कि मैं उसके बार–बार के इसरार से अपना पिण्ड छुड़ाना चाहता था । बहरहाल, कई दिनों और कई–कई आग्रहों के बाद जब मैं इसके घर पहुँचा और अनिल ने अपनी पत्नी चन्द्रा को मुझसे मिलाया तो मुझे इस बात का अफसोस हुआ था कि मैं इससे पहले उसके यहाँ क्यों नहीं पहुँचा । चन्द्रा केवल सुन्दर ही नहीं थी बल्कि अपनी बातचीत, रख–रखाव, आँख की मुद्राओं और अन्दाज“ में उदास करने की हद तक खूबसूरत थी । मैं दस मिनट के लिए गया था लेकिन पहली बार ही दो घण्टे बाद लौटा और आने वाले दो दिनों तक परेशान रहा । कहना फिजू़ल है कि अनिल का महत्त्व अब मेरी नज“र में कई गुना बढ़ गया था ।

मुझे यह बताने में हरगिज“ संकोच नहीं कि मैं बेहद कारोबारी और साफ–सपाट आदमी हूँ । चाहूँ या न चाहूँ, हर चीज“ की कीमत मेरे यहाँ इस बात पर तय होती है कि वह ज“रूरी होने के साथ–साथ फायदेमन्द भी है या नहीं । स्त्रियों के मामले में भी मेरा दृष्टिकोण सौ फीसदी यही है ।ण्ण्ण्न तो मैंने कभी प्रेम किया है और न कभी इस मूर्खता पर विश्वास करता हूँ । मुमकिन है, मेरी बातों से बहुतों को लगे कि मैं बहुत कारोबारी और बनिया–जेहन आदमी हूँ । लेकिन अगर ऐसा है भी तो उसके लिए मैं जि“म्मेदार नहीं हूँ ।

ऐसा मेरे साथ पहले कभी नहीं हुआ था ।

अजीब बात है कि चन्द्रा से मिलने के बाद मेरे भीतर एक खास तरह की उथल–पुथल शुरू हो गई थी । जैसा कि मैंने कहा है, मैंने कभी प्रेम नहीं किया लेकिन लड़कियों या औरतों की मुझे कभी कोई कमी नहीं रही । एक खास वर्ग की औरतें फ्लर्ट करने या सोने के लिए मुझे हमेशा ही मिलती रही हैं । शायद एकाध बार एक स्त्री ने मुझे थोड़े समय के लिए उलझाया भी था लेकिन बहुत सतही स्तर पर और बहुत जल्द मैं उस सबसे छुटकारा पा गया था ।

यह पहली बार हो रहा था कि एक मामूली–सी औरत मुझे चुनौती की तरह लग रही थी और मेरे भीतर उदासी का रूप लेकर बैठ गई थी ।

जब मैं उदास रहते–रहते हार गया, अपने भीतर की कैद से मुझे घबराहट होने लगी और उसका असर मेरे कारोबार पर पड़ने लगा तो इसके अलावा और कोई उपाय नहीं रहा कि इस बला से छुटकारा पाऊँ । बस, एक दिन मेरी चमचमाती हुई कार उस गली में जाकर खड़ी हो गई जहाँ अनिल का घर था । दोपहर का वक्त, मैं जानता था कि अनिल दफ्तर में होगा लेकिन बहाने गढ़ने में मुझे क्या देर लगती है ? पहले दिन चन्द्रा घबरा गई थी । पर निहायत घरेलू और उलटे–सीधे कपड़ों में मेरे सामने आकर उसका घबराना भी मुझे आकर्षक लगा था । पता नहीं, अनिल की गैर–मौजूदगी में पहुँचने के मेरे बहाने पर चन्द्रा ने कितना विश्वास किया अथवा किया भी या नहीं ?

‘‘बुरा न मानें तो एक बात कहूँ,’’ कुछ दिनों बाद चन्द्रा मुझसे कह रही थी, ‘‘क्या यह नहीं हो सकता कि आप उनकी मौजूदगी में ही आया करें ?’’

‘‘क्यों,’’ मैंने अपने फक पड़ते रंग को बड़ी मुश्किल से सम्हाला था ।

‘‘कुछ अच्छा नहीं लगता,’’ दूसरी ओर देखती हुई चन्द्रा बड़ी मुश्किल से सिर्फ इतना कह पाई थी, ‘‘मेरा मतलब हैण्ण्ण्आप तो जानते हैं, अनिल के सिवा दुनिया में मेरा कोई नहीं है ।’’

कहकर चन्द्रा बिल्कुल उदास हो गई थी और मैंने फैसला किया था कि नहीं, खेल का यह रंग, खुद मेरे लिए भी खतरनाक हो सकता है । फिर इस रास्ते मेरा इलाज भी नहीं था । मैंने अपना रास्ता एकाएक बदल दिया । अब अनिल के सूने में जाने के बदले मैंने शामें ही उसके साथ गुजारनी शुरू कर दीं और चूँकि हर शाम घर पर बिताई नहीं जा सकती । लिहाजा अनिल और चन्द्रा को अपनी गाड़ी में लेकर मैं अकसर बाहर निकल जाया करता । उन्हें मैं उन पॉश रेस्तरांओं में ले गया, जहाँ अनिल या उस जैसी हैसियत के लोग घुसने की भी हिम्मत नहीं कर सकते । उनके सामने वे इण्टर–कांटिनेन्टल डिशेज रखवाए जिनके उन्होंने नाम भी नहीं सुने थे । हम उन नाइट–क्लबों में गए जहाँ केबरे–गर्ल स्ट्रिप करती हैं या फ्लोर–शो की आड़ में जहाँ पुरुष और स्त्रियाँ दोनों उत्तेजित होते हैं । हमने पी भी और पिलाई भी । अनिल तो एकाध बार ना–नुच करके शामिल हो गया था लेकिन चन्द्रा को तैयार करने में मुझे और अनिल को काफी मेहनत करनी पड़ी थी । पहले चन्द्रा अलफ हो गई थी, मुझसे ज्यादा अनिल पर । इस चक्कर में दो–एक शामें बुरी तरह खराब भी हुई थीं, लेकिन मैं जानता हूँ कि—उस शहर में अनिल जैसी हैसियत और वर्ग के लोगों की नैतिकता आखिर कितने पानी में है । मैंने वही कमजोर नस दबा रखी थी ।

गो कि कल रात जो कुछ हुआ, वह एक दिन होना ही था । यह एक दिन दो–चार रोज“ आगे–पीछे हो सकता था या यह हो सकता था कि इस तरह न होकर उस तरह होता या फिर किसी और तरह से होता । बहरहाल, सब कुछ इतनी तेजी से, इतनी जल्दी और इतने अनसोचे ढंग से हुआ कि मुझे हैरान होने का भी मौका नहीं मिला ।

मैं साफ देख रहा था कि बाहर की चन्द शामों ने ही हमें एक–दूसरे से बेहद बेतकल्लुफ कर दिया है । दूसरे शब्दों में मैंने उन्हें काफी हद तक खोल लिया था । जैसे अभी पिछली एक शाम को हम लोग सूने पार्क की एक बेंच पर बैठे हुए थे और अनिल ने चन्द्रा को अचानक मेरे सामने चूम लिया था । जाहिर है कि मैंने जो पौधा रोपा था, उसमें फूटने वाली यह पहली कली थी ।

‘‘ये क्या बदतमीजी है ?’’ चन्द्रा पहले तो हक्की–बक्की रह गई, बेतरह बिगड़ते हुए उसने कहा था ।

‘‘क्या हुआ ?’’ अनिल ने हँसकर मेरी ओर देखा था, ‘‘हम लोग पति–पत्नी हैं और यह दोस्त है । इसके सामने अगर प्यार ही कर लिया तो कौन–सी आफत आ गई ?’’ अनिल की हँसी, हँसी नहीं थी, तभी चन्द्रा अचानक उठकर खड़ी हो गई थी ।

अगरचे मैंने कुछ नहीं कहा लेकिन मैं खुश था कि अनिल के मुँह में अब मेरी जबान है । मैं यह भी जानता था कि चन्द्रा के विरोध और गुस्से के बावजूद वह पार्क वाली शाम अन्त नहीं, एक तरह से शुरूआत थी—एक ऐसी शुरूआत, जिसका मोड़ आखिर मेरे रास्ते में ही आता था ।

और कल वही हुआ ।

हम तीनों अनिल के बेडरूम में बैठे पी रहे थे और खाना घर पर ही मँगा लिया गया था । बैडरूम में एक पलंग, एक नीम–आरामदेह कुर्सी और एक स्टूल के अलावा और कोई फर्नीचर नहीं था । लिहाजा अनिल और चन्द्रा पलंग पर बैठे हुए थे और मैं कुर्सी पर । दो पेग के बाद दसियों बेमानी बातें हुई थीं और फिजू़ल–से मसलों पर बहस करते और चीखते हुए हम लोग देर तक हँसते रहे थे ।

किसी पराई स्त्री के साथ शराब पीना मेरे लिए नई बात नहीं थी लेकिन यह अनुभव बिल्कुल नया था कि नशे में स्त्री इतनी उत्तेजक भी हो सकती है । शर्म और शराब का मेल था । चन्द्रा अलाव की तरह दहक रही थी । पता नहीं कितनी रात हो गई थी । यह भी पता नहीं कि हम लोग कितनी पी चुके थे । रह–रहकर अनिल और चन्द्रा के शरीर मेरी आँखों में धुँधले और छोटे हो जाते थे । कई बार लगता, जैसे हवा में तैरते हुए दूर के शोर की तरह चन्द्रा का दहकता चेहरा पास आकर एकाएक लौट जाता है ।

अनिल बहक रहा था । एक बार कौतुक के बहाने उसने अपने–आपको चन्द्रा की गोद में लुढ़का लिया था । फिर एकाएक जाने क्या हुआ कि चन्द्रा को बेशरमी से चूमते हुए उसने मेरी ओर देखा था और लड़खड़ाती आवाज“ में बोला था, ‘‘तुमण्ण्ण्तुम वहाँ क्या कर रहे हो ?’’

‘‘मैं ?’’ कहकर झेंपी हुई हँसी हँसने लगा था । वह हँसी नहीं थी । मैं नर्वस था । देखा चन्द्रा तमतमाकर लाल हो गई थी ।

‘‘ले ले यार, चल एक प्यार तू भी ले ले, क्यों चन्द्रा ?’’

अनिल ने अभी अपना वाक्य मुश्किल से पूरा किया होगा । मुझे चन्द्रा की ओर देखने या उसकी प्रतिक्रिया जानने की न तो ज“रूरत थी और न फुरसत । दो पलों के भीतर पटखनी खाई गेंद की तरह उछलकर मैं सीधे पलंग पर जा पहुँचा था ।

सहसा परदे के पीछे से किसी के पाँवों और चूड़ियों की आहट सुनाई दी और मेरा जी ज“ोर–ज“ोर से धड़कने लगा । क्या सचमुच वह घड़ी आन पहुँची ? दो–एक क्षण साँसें रोके मैं उधर देखता रहा फिर एक लम्बी साँस लेकर मैंने सिगरेट जला ली । न चन्द्रा थी और न अनिल, बर्तन माँजने वाली बाई थी ।

‘‘साहब उठ गए ?’’ मैंने उससे जल्दी से पूछा था ।

‘‘जी ।’’

‘‘कहाँ’’

‘‘बाथरूम में हैं ।’’ मेरे सवाल के पहले ही पट से जवाब मिला ।

‘‘और बाई साब ?’’

‘‘किचन में ।’’

एक पल को लगा, जैसे नौकरानी भी सब जानती है ।

मैं सिगरेट के लम्बे–लम्बे कश खींचने लगा । क्या मैं घबराया हुआ हूँ या डर रहा हूँ ? लेकिन क्यों ? कल रात मेरे पलंग पर पहुँचने के बाद अनिल इससे भी लम्बे–लम्बे कश खींचने लगा था । फिर, जलती हुई सिगरेट ऐशट्रे में डालने की बजाय उसने यों ही फेंक दी थी, घबराहट में । और दो पल के एक टुकड़े में अनिल का वह चेहरा क्या मैं कभी भूल सकता हूँ ? मेरे लिए यह सचमुच तजु़र्बे की बात थी कि किसी चेहरे पर जरा–से धक्के में इतने सारे रंग आएँ और उतर जाएँ । हाँ, सबसे अन्तिम और गहरा रंग कुछ वैसा था जैसे कोई बच्चा खेल–खेल में अनजाने ही जख्मी हो जाए और दर्द से डबडबाई आँखों के बावजू़द, अपने छोटे–से पौरुष के सहारे, मुस्कुराने के लिए विवश होण्ण्ण्

‘‘मॉर्निंग!’’

अचानक अनिल की इस आवाज“ से मैं चैंका । वह सामने परदा हटाए खड़ा था, मुझसे चन्द कदमों के फासले पर । हाँ, यही वह घड़ी थी जिसके खयाल से ही मेरी रूह काँप रही थी और मैं नहीं जानता था कि इसका सामना कैसे करूँगा । अपने अन्दर फैले सारे तर्कों को मैं जल्दी–जल्दी समेटने लगा । मैंने सोच लिया था कि अनिल के आरोप या गुस्से से मुझे किस तरह निबटना चाहिए ।

परदे को छोड़कर जैसे ही वह मेरी ओर बढ़ा मैंने साही की तरह अपने बाल और नोकीले काँटे फुला लिए । अनिल नपे–तुले कदमों से आकर मेरे पास खड़ा हो गया और मैंने आँखें उठार्इं ।

‘‘क्यों ?’’ मुझसे आँख मिलते ही अनिल बोला, ‘‘कैसी रही ?’’

मैंने उसे बहुत गौर से देखा, माई गुडनेस! उसके होंठों पर हल्की–सी मुस्कुराहट भी थी ।

मुझे खुश होना चाहिए था । अब मैं बिना किसी लानत–मलामत के अपनी जीत की खुशी में इतराता हुआ वहाँ से निकल सकता था लेकिन हैरत है कि न तो मुझसे उठते बन रहा था और न ही यह मुमकिन था कि मैं वहाँ बैठा रह सकूँ । शायद मुझे धक्का लगा था । कुछ उसी तरह जैसे किसी पुरानी इमारत को गिरवाते हुए एक बार मैं जख्मी हो गया था ।

कैसे, मुझे नहीं मालूम!

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