स्त्री के सम्मान में पढ़ा गया फातिहा:‘काला जल’

Kala Jal

‘‘औरत की खेत-खलिहान और मवेशियों की तरह हिफाजत होती थी (है)। मालिक और मल्कियत के लिए अलग-अलग उसूले-जिन्दगी बन गए। मर्द पालनहार पति और ख़ुदाए-मज़ाजी। औरत के फरायज़ मर्द की ख़िदमत कि रोज़ी-रोटी की खातिर बराहे-रास्त हवादिसे-ज़माना का मुकाबला नहीं करना पड़ता था जब तक मर्द को खुश करती। ज्यादा से ज्यादा सिपाही पैदा करती। महफूज चैन की ज़िन्दगी गुज़ारती। उसके बाद वही अंजाम होता जो बूढ़े नाकारा मवेशियों का होता है। इसीलिए औरत बुढ़ापे से डरती है। उम्र छियाती है कि आज भी वह शौहर और बेटो के रहम की मोहताज है।’’ (काग़ज़ी है पैरहन, इस्मत चुगताई, पृष्ठ-258-59)

‘‘भारतीय पुरुष जैसे अपने मनोरंजन के लिए रंग-बिरंगे पक्षी पाल लेता है( उपयोग के लिए गाय-घोड़े पाल लेता है, उसी प्रकार वह एक स्त्री को भी पालता है तथा अपने पालित पशु-पक्षियों के समान ही उसके शरीर और मन पर अपना अधिकार समझता है।’’ (शृंखला की कड़ियां, महादेवी वर्मा, पृष्ठ-83)

‘‘…शरीयत के नाम पर कैसे-कैसे जुल्म ढाकर औरतों को उनके अधिकारों से वंचित किया जाता है। इस्लाम ने यदि औरतों को बराबरी का अधिकार दे रखा है तो फिर वह अपने समाज, परिवार में इस तरह कैद क्यों रखी जाती है? एक तरफ कयामत के दिन मुरदों की पहचान मां के नाम से होगी बाप के वंशवृक्ष से नहीं, फिर उसी औरत को आखिर प्रताड़ित कौन कर रहा है – सियासत, समाज, अज्ञानता।’’ ( ‘खुदा की वापसी’, नासिरा शर्मा ( 1998) में ‘निवेदन’ पृष्ठ-7-8)

‘‘मुस्लिम औरत का हिन्दुस्तान में नहीं पढ़ने का मूल कारण गरीबी है। उनकी स्थिति अनुसूचित जाति की तरह है जिस वजह से अनुसूचित जाति की औरत नहीं पढ़ पाती है, उसी वजह से मुस्लिम औरत भी नहीं पढ़ पाती। धर्म और पर्दा उतना बड़ा कारण नहीं है। सामाजिक और आर्थिक पहलुओं को नजरअंदाज कर मुस्लिम औरत की स्थिति को ठीक से नहीं समझा जा सकता।’’ ( जोया हसन, हंस भारतीय मुसलमान अंक, अगस्त-2003, पृष्ठ-15)

‘औरत होने की सजा’

‘काला जल’ देखने-समझने से पहले घर-घर के आंगन में पड़ी (सड़ी) नंगी, अधनंगी, और जली हुई कुछ जिन्दा-मुर्दा लाशों के भयावह शब्द चित्रों का एक कोलाज दिमाग में छाया है…’’ दालान के कच्चे फर्श पर सुनारिन बिल्कुल नंगी पड़ी हुई थी और बलपूर्वक उसे दबाये हुए उसका पति छाती पर बैठा हुआ था। अपने हाथ में सोने के जेवर बनाने वाली छोटी हथौड़ी लिए वह युवती की नाभि के नीचे की नंगी हड्डी पर रह-रह कर चोट देता, दांत पीसता और जैसे सबक सिखाने के ढंग पर गंदी गालियां बकता हुआ कहता, ‘‘अब, बोल बोल…’’ नेपथ्य से… ‘‘भले मुंहबोली हो, जिसे बेटी की तरह पाला हो, उसे ही जवान होने पर पत्नी बना ले और ब्याहता बीवी को रास्ता बता दे, ऐसे आदमी के लिए पाप शब्द भी क्या हल्का नहीं पड़ जाता?…’’ ( पृष्ठ 13-14) ‘‘कट्…कट्.

.. नीचे’’ बी के निकल? आने के बाद फूफी चोरी से भीतर गई। देखा, मालती लगभग अधनंगी-सी फर्श पर पड़ी है। बाल और चेहरा बुरी तरह नुचे हुए हैं, ब्लाउज फटकर शरीर को काफी उघाड़े हुए है और उसके तमाम जिस्म के साफ-सुथरे मांस पर बेंत के कई आड़े-तिरछे रोल उभर आए हैं।’’ पृष्ठभूमि में ‘‘मैं तेरा गला घोंट दूंगी, हरामजादी! रंडी, बाजारू, किससे पेट भराया है, बोल. .. बोल…।’’ ( पृष्ठ-126-127) ‘‘…कट्…
बाई ओर…’’ घुटनों से लेकर गले तक जगह-जगह उसने अपने शरीर को आग से भून डाला था। इस तरह जला-भूनकर शायद वह समझ रही थी कि खुदा उसके गुनाहों को माफ कर देगा। कहने लगी- मैं चाहती हूं कि मेरा जिस्म बदसूरत हो जाए – इतना बदसूरत कि उसमें हाथ तक न लगाया जा सके। मैंने रोकर कहा कि रशीदा यह तूने क्या कर लिया? बोली- जीते जी दोज़ख भोग रही हूं। खुदा जाने उसके बाद उसने क्या सोचा-समझा, हफ्रतेभर बाद सुना कि एक रात जब सब सो रहे थे तो अपने शरीर पर किरासिन तेल छिड़ककर वह जल मरी…।’’ पृष्ठ-130 ‘‘इंसान होकर ऐसी क्या नियत कि सगी बेटी का रिश्ता भुला दिया जाए? आदमी और जानवर में आखिर फर्क क्या हुआ?’’ ( पृष्ठ-110) और दाहिने… ‘‘सुना है कि लड़की ( शल्लो आपा) रात-भर चिल्ला-चिल्ला कर रोती रही कि डाक्टर बुलाओ, नहीं तो मैं मर जाऊँगी, पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। दुनिया को दिखाने के लिए सुबह-सुबह डाक्टर बुलाया गया, लेकिन उससे क्या, कहने वाले तो आज भी कहते हैं कि कुछ दाल में काला था। …जिन्होंने देखा है, वे बताती हैं कि उल्टियों में लड़की की अंतड़ियां कट-कट कर गिरी थीं…।’’ ( पृष्ठ-293-294).

सुनारिन के संदर्भ में एक जगह लिखा है ‘उसकी जलभीगी छातियों पर सरदार की भूखी और नोचती आंखें तीर की तरह अटकी हुई थी।’ ( पृष्ठ-12) ऐसी ही ‘भूखी और नोचती आंखें’ हैं-रशीदा के चाचा और फूफी के ससुर रज्जू मियां की। तभी तो ‘जैसे ही वह ( फूफी) अपने ससुर की ओर ताकती है, उनका चेहरा रशीदा के चाचा की शक्ल में बदला जाता है।’ सल्लो आपा भी बार-बार शिकायत करती है ‘‘देखते हो माटी मिलों को? किस कदर घूर-घूर कर देखते हैं!’’ मालती भी तो रज्जू मियां की ही ‘भूखी और नोचती’ आंखों का शिकार बनती है। कभी भूखी और नोचती आंखें सपना बुनती हैं। ‘‘देखता हूं कि उस नीले पानी से जल भीगा शरीर लेकर सल्लो आपा निकलती हैं। पतला और इकहरा लिपटा कपड़ा भीगकर उनके शरीर के हर अवयव से ऐसे चिपक गया है कि वह बिल्कुल विवस्त्र लगती हैं।’’ ( पृष्ठ-185)

सुनारिन से लेकर सल्लो आपा तक ‘जल भीगा शरीर’ हैं और उनका पीछा करती ‘भूखी और नोचती आंखें’ सपनों तक में चैकन्नी हैं। सिर्फ जिस्म है ‘मांसल और भरा हुआ’। वही ‘भूखी और नोचती आंखें’ कैलेंडर में भी देखती रहती हैं ‘‘एक सुंदर स्त्री अपनी साड़ी के सामने वाले पल्लू के एक कोने को दांतों से दबाये, परदा करने का अभिनय करती हुई, ब्लाउज उतार रही है, लेकिन लगभग अर्धनग्न है…’’ ( पृष्ठ-149) यही नहीं, पेटी में अलग से भरी हैं ‘पोर्नोग्रापिफक’ किताबें, जिनमें स्त्राी को सिपर्फ ‘शरीर’, ‘मांसल देह’, ‘सेक्स सिम्बल’, ‘सेक्स बम’, ‘सेक्सी डाल’ और ‘गर्म गोश्त’ के रूप में ही दर्शाया जाता है। ऐसी ‘उत्तेजक’, ‘कामोद्दीपक’, ‘अश्लील’ और नग्नतम मुद्राओं में, जो व्यक्ति को ‘भूखी और नोचती’ आंखों में बदल दे और स्त्री-देह को भोग्य वस्तु में। यौन विकृतियों के विषैले बीज, ऐसे ही फलते-फूलते रहे हैं- पीढ़ी-दर-पीढ़ी।

बाहर ‘भूखी और नोचती’ आंखों से बचाने के लिए ही स्त्रियों को बुर्के या घूंघट में (ताला) बंद किया जाता रहा है और अनेक प्रतिबंध लगाए गये हैं। लेकिन घर में कैद स्त्री भी कहां सुरक्षित हैं। पिता, चाचा, मामा या ससुर की ‘भूखी और नोचती’ निगाहों का कोई क्या करे! घरेलू हिंसा या यौन हिंसा और यौनशोषण से बचाव के लिए ‘सुनारिन’, ‘मालती’, ‘रशीदा’, ‘सल्लो’, ‘फूफी’ और ‘बब्बन की मां’ आखिर कहां जाएं? क्या करें? चुपचाप सहती रहें, खटती रहें और गुमनाम मरती रहें या मारी जाती रहें। नहीं तो फूफी की तरह रूंधे कंठ से बड़बड़ाती रहे ‘‘अल्लाह, मुझे उठा ले तो इस रोज-रोज की दांता किट किट से राहत मिले… या ऐसा करो, यह हर बार नोंचने के बदले, तुम सब मुझे जहर दे दो…’’ (पृष्ठ-261) या फिर बब्बन की अम्मी की तरह कड़वाहट भरे शब्दों में कहती रहे ‘‘अब मेरा गोश्त रह गया है खाने के लिए, तुम सब लोग बैठकर उसे भी चीथ डालो…’’ ( पृष्ठ-178) यह सब नहीं तो बिट्टी उपर्फ बी-दारोगिन की भांति आत्मसमर्पण करते हुए स्वीकार कर ले ‘‘एक मुट्ठी भात और गज भर कपड़ा… बस मेरे जीने के लिए इतना काफी है।’’ ( पृष्ठ-28)

‘काला जल’ में बब्बन अपने पिता की पेटी से निकाल कर ‘गंदी तस्वीरों वाली किताब’ सल्लो आपा तक पहुंचाता है। ऐसे ही ‘सूखा बरगद’ ( मंजूर एहतेशाम) में शोबिया एक किताब शाहिदा आपा के यहां देखती है ‘‘सूपड़े के नीचे से एक किताब हाथ में आ गई। मैं नहीं सोचती कि उस सबकी जो मुझे नजर आया मैंने कभी किसी किताब के साथ कल्पना भी की हो। लिखा क्या था, पढ़वाना तो संभव था ही नहीं, जो चित्रकारी थी- आदमी-औरत अलग-अलग तरह से एक-दूसरे के साथ-वही मेरे होश उड़ा देने के लिए काफी थी। …शाहिदा आपा? वह आदमी?? अकेले घर में? मेरा दिमाग लपक कर किताब के उन पन्नों पर चला गया। छी!! कैसी बेहूदा किताब थी! वह सब फोटो-क्या और क्यों हो रहा था उन पन्नों पर? कहीं ऐसा भी कोई करता होगा? क्या शाहिदा आपा और वह आदमी इस समय वही सब… छी! …छी! …और न जाने कितने समय के लिए किताब के वह गंदे पन्ने, वही गंदी हरकतें, गंदी शाहिदा आपा मेरे दिमाग में जाले बुनते रहे।’’ ( पृष्ठ-28-29)

‘कालाजल’ ( 1965) से लेकर ‘सूखा बरगद’ ( 1986) तक ‘सेक्स इज सिन’ की मानसिकता और यौन नैतिकता संबंधी सामाजिक वातावरण और व्यक्तिगत व्यवहार को देखें तो लगभग कोई महत्वपूर्ण बदलाव दिखाई नहीं देता। यौन शिक्षा-दीक्षा का एक मात्रा विकल्प ‘पोर्नोग्रापफी’ ही रह गया है, जो वास्तव में युवा पीढ़ी को सजग-सचेत करने की बजाए यौन विकृतियों की ओर धकेलता है। पुरुषों की ‘भूखी और नोचती’ आंखों को पढ़ने-समझने और यौन हिंसा की शिकार स्त्रियों की पृष्ठभूमि जानने के लिए ‘पोर्नोग्राफी’ के प्रभाव से परिणाम तक को भी सूक्ष्मता से पढ़ना जरूरी है। ‘काला जल’ में शानी ‘पोर्नोग्रापफी’, ‘सेक्स एंड वायलेंस’ के तमाम अंतर्संबंधों को भी समझने-समझाने की प्रक्रिया में पात्रों के चेतन-अवचेतन में जमी काई खुरच-खुरच कर परखते हैं। इसके साथ-साथ सामाजिक-धार्मिक-आर्थिक तनाव, दबाव और दमन के बीच, बनते-बिगड़ते व्यक्तित्वों और संबंधों के आपसी सूत्रों को भी पकड़ते हैं। आर्थिक रूप से पिछड़े बन्द समाजों ( रूढ़िग्रस्त, अंधविश्वासी और मर्यादित) में दमित और कुंठित पुरुषों की हिंसा ( यौन हिंसा) का सबसे अधिक शिकार उनके अपने घर-परिवार की ही स्त्रिायां (विशेषकर पत्नी या पुत्री) होती हैं, क्योंकि उनकी स्थिति ‘घरेलू गुलाम’ जैसी ही है। विकसित समाजों में स्त्री, घर में ही नहीं बाहर भी पुरुष हिंसा की संभावित शिकार बनी रहती है। ‘काला जल’ की तमाम स्त्रियां अपने ही घरों में असुरक्षित और आतंकित रहती हैं। ‘फांसी घर’ में कैद सजायाफ्रता कैदी की तरह भाग निकलने या बचने का कोई रास्ता नहीं।

‘आधा गांव’: ताजा-ताजा ( गर्म) गुड़ सी औरतें

‘काला जल’ के कुछ ही समय बाद प्रकाशित ‘आधा गांव’ ( राही मासूम रजा) में स्त्री की तुलना ‘ताजा गुड़’, ‘लंगड़ा आम’ और ‘दहकती अंगीठी’ या ‘कच्चा अमरूद’ से की गई है, जो मूलतः सामंती शब्दावली है। स्त्री को दास, वस्तु या भोग्य समझने वाली मानसिकता के ही परिणाम है कि ‘दुलरिया बाईस-तेईस साल की कसी कसाई लड़की थी… वह जिधर से टोकरा लेकर गुजर जाती, उधर रास्तों की शाखों में आंखों की हजार कलियां खिल जाती, दरवाजे बांहें बन जाते और बंसखटो में नब्जें धड़कने लगती।’ ( पृष्ठ-112) झंगटिया बो की देह ‘काली मगर बला की खूबसूरत, सौंधी और मीठी थी। बिल्कुल ताजा-ताजा गुड़ की तरह, जिसमें अभी भाप निकल रही हो।’ ( पृष्ठ-42) सैफुनिया नाइन की ‘लंगड़े आमों की तरह तैयार छातियां बारीक कुरते के अंदर चोली से निकल पड़ रही थीं और सब्ज चूड़ीदार पाजामें का सुर्ख नेफा और नेफे से उपर का सारा धड़ नजर आ रहा था’ ( पृष्ठ-135) इसके विपरीत जुलाहिन ‘कुलसुम में क्या रखा है? उसकी कसी कसाई कच्चे अमरूद जैसी छातियां लटक चुकी थी’ ( पृष्ठ-225) दुलरिया ( भंगन) है, तो झंगटिया बो ( चमारिन)। कुलसुम ( जुलाहिन) है और सैफुनिया नाइन। मतलब चारों निम्न जातियों की स्त्रियां हैं, जो अभिजात्य वर्ग के पुरुषों के उपभोग के लिए उपलब्ध ही नहीं, बल्कि उनकी ही प्रतीक्षा में ( ‘तैयार’) खड़ी हैं। एक ‘ताजा-ताजा गुड़’ की तरह ‘अछूती’ और ‘गर्म’ है, तो दूसरी ‘लंगड़े आम की तरह तैयार’- भोगे जाने के लिए प्रस्तुत। तीसरी तो ‘दहकती अंगीठी से कम नहीं? ‘कच्चे अमरूद’ जैसी ( लटकी) छातियों में अब क्या रखा है? यह एक बड़ा अन्तर है ‘काला जल’ और ‘आधा गांव’ की भाषा, दृष्टि और मानसिकता में। ‘काला जल’ में ‘जल भीगी छातियां’ हैं, मगर स्त्री की ही हैं और छातियां हैं। ‘आधा गांव’ की भाषा में तो वे ‘ताजा-ताजा ( गर्म) गुड़’ समझी जा रही हैं या ‘लंगड़े आम की तरह तैयार’ ( उपभोग के लिए आतुर) छातियां और ‘दहकती अंगीठी’ सी कामातुर औरत मानी जा रही है।

घर-परिवार और समाज में किसी भी विवाहित स्त्री का ‘बांझ’ होना सबसे बड़ा ‘अभिशाप’ ( अपराध) है, भले ही पति नपुंसक हो। स्त्री जीवन की एकमात्र सार्थकता उसका मातृत्व ही माना-समझा जाता है। वह अगर पति को उत्तराधिकारी नहीं दे सकती या दे पाती, तो प्रायः सबके लिए अवांछित और बेकार का बोझ बन जाती है। अपमानजनक उपेक्षाओं और अकल्पनीय सदमों से भीतर तक आहत और व्यथित, ऐसी स्त्री की मानसिक उथल-पुथल का अनुमान लगाना भी मुश्किल है।

‘काला जल’ की स्त्री ‘आधा गांव’ पहुंचते ही, एक यौन रूपक में बदल दी जाती है। स्त्री और देह के प्रति ऐसी रीतिकालीन, अपमानजनक भाषा-परिभाषा सचमुच शर्मनाक है। साहित्य के आधुनिक युग में भी नारी के उपभोग्या रूप का रस ले-लेकर, कब तक चित्रण-वर्णन करते रहेंगे? कब तक दोहराते रहेंगे आखिर ‘गोपी-पीन-पयोधर-मर्दन-चंचल कर युगशाली’। क्या उन्हे अभी भी ‘पर्वत पृथ्वी के उरोजों-से दिखाई देते हैं? खैर… मुंह बोली बेटी को जवान होने पर अपनी पत्नी बना लिया है सुनार-बैद्य ने और पत्नी को घर से निकाल दिया है लेकिन चरित्र पर हरदम संदेह करता रहता है। अपनी यौन अक्षमता का गुस्सा, पत्नी पर निकालता है। पत्नी जब कहती है ‘‘ऐसा ही है तो मुझे परदा में बैठा दे… ताले में बंद रख। मेरा उठना-बैठना, चलना-फिरना, कहीं आना-जाना पाप हो गया। न मरने दे, न जीने’’ तो सुनार गाली-गलौच और मारपीट पर उतरता हुआ कहता है ‘‘जैसे तू तो सती सावित्री है। दिनभर दरवाजे के पास खड़ा होकर लौंडों को तो मैं ही ताकता हूं। छिनाल बना बहाने, दस बार निकल-निकल कर देख अपने यारों को और झोंक मेरी आंखों में धूल! जवानी एक तुझी पर ही आई है! जब देखो, छाती उछालती, चटकती-मटकती चली जा रही है। साली, किसी दिन तेरे ये दूध के काटकर न फेक दूं तो कहना। न रहे बांस न बजे बांसुरी…’( पृष्ठ-12)

पति ( सुनार) को पत्नी ‘सती सावित्री’ जैसी चाहिए। ‘छिनाल’ का घर-परिवार में क्या काम! खुद जो मर्जी करे-कोई कहने-सुनने वाला नहीं। पति है इसलिए मारना-पीटना या ‘दूध के काट कर’ फेंकने की धमकी देना, उसका ‘जन्मसिद्ध अधिकार’ है। पत्नी प्रतिवाद करती है, तो हथौड़ी (या डंडे) से मार-मार कर हड्डियां तोड़ दी जाती है। अंततः बीच बचाव में अड़ोसी-पड़ोसी आते हैं, तो पति ‘जलती हुई आंखों’ से घूर कर चिल्लाता है- ‘‘अरे, यहां क्या (‘तमाशा’) देखते हो। जाओ, अपनी-अपनी मां-बहनों की देखो…!’’ सब चुप। ‘किसी ने भी एक शब्द नहीं कहा’ – पीठ पीछे जितनी मर्जी ‘थुक्का-फज़ीहत’ होती रहे या औरतें कोसती रहें ‘नासपीटा बुड्ढा आखिर बुरी मौत मरेगा। देह से कोढ़-रोग न फू टे तो कहना…’ ( पृष्ठ-14) पति के पास सदियों से एक तर्क यह भी तो रहा है कि मेरी पत्नी ( बीवी, घरवाली, संपत्ति) है… मैं मारूं. .. पीटूं या प्यार करूं, तुम बीच में बोलने-रोकने-टोकने वाले कौन ( क्या) होते हो? शेष समाज के लिए यह सब उनका ‘आपसी घरेलू मामला’ है या ये तो लड़-झगड़ कर फिर एक हो जाएंगे, हम क्यूं बेकार ‘बुरे’ बने! भारतीय गांव-देहात से लेकर नगरों-महानगरों तक में, आज भी क्या ऐसी ही स्थिति नहीं बनी हुई है? पति के हाथों अधिकांश पत्नियां प्रायः रोज पिटती या पीटी जाती हैं। कारण एक नहीं अनेक हैं। व्यक्तिगत कुंठाओं, असमर्थताओं, विवशताओं और असफलताओं से लेकर पुरुष ( मर्द, मालिक, स्वामी, पति परमेश्वर) अहं तक। पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था में मर्द-औरत को अपने ‘पांव की जूती’ समझता ( रहा) है। जो नहीं समझता वो ‘साला, जोरू का गुलाम’ है ‘नामर्द’, ‘हिजड़ा’…।’ इस संदर्भ में शानी, कलम का इस्तेमाल जूते की तरह करते हैं।

औरत की मुट्ठी में भरी गीली मिट्टी

चरित्र पर संदेह के कारण आपसी झगड़े में सुनारिन शारीरिक उत्पीड़न झेलती है, तो ज़हीरा भाभी मानसिक प्रताड़ना। शायद इसी वजह से ‘स्वास्थ्य, चेहरा-मोहरा, पहनाव-उढ़ाव सब कहीं आश्चर्यजनक बदलाहट आ गई है। बात-बात में खिली रहने वाली आंखों के नीचे स्याही पड़ गई है। और जो गाल हमेशा प्रसन्नता के मारे दहकते रहते थे, वे मुरझाये पत्ते की तरह अल्लर लगते हैं। न वे होंठ हैं, न होंठ में जमे रहने वाले पान…’’ ( पृष्ठ-129-130)

ज़हीरा भाभी के शब्दों में ‘‘शादी के दस बरस गुजार दिए, कभी कोई बात नहीं हुई, पर अब बीसियों तरह के नुक्स निकालते हैं कि मोटी हूं, बांझ हूं, बिला वजह चर्बी चढ़ाए जा रही हूं… पर मैं इनमें से किसी बात का बुरा नहीं मानती, क्योंकि यह सच है कि मैंने उन्हें कुछ नहीं दिया। जिसका सबसे अधिक सदमा मुझे है, वह यह कि जिन दिनों करना था, तब तो किया नहीं, अब शक के मारे अंधे हो रहे हैं। बाहर निकल जाने का बहाना करते हैं और कहीं पास-पड़ोस में छिप कर देखते रहते हैं कि मैं क्या करती हूं। दौरे की बात कह कर चले जाएंगे और अचानक आधी रात को आकर धीरे-धीरे दरवाजा खटखटाएंगे या इशारा करने के ढंग पर सीटियां बजाएंगे… ऐसे में क्या मन होता है, बताउ? यह कि बिना किए ही इल्जाम पाने से तो करके बदनाम होना ज्यादा अच्छा है। एक बेचारी रशीदा थी।’’ ( पृष्ठ-132)

घर-परिवार और समाज में किसी भी विवाहित स्त्री का ‘बांझ’ होना सबसे बड़ा ‘अभिशाप’ ( अपराध) है, भले ही पति नपुंसक हो। स्त्री जीवन की एकमात्र सार्थकता उसका मातृत्व ही माना-समझा जाता है। वह अगर पति को उत्तराधिकारी या पुत्राधिकारी नहीं दे सकती या दे पाती, तो प्रायः सबके लिए अवांछित और बेकार का बोझ बन जाती है। अपमानजनक उपेक्षाओं और अकल्पनीय सदमों से भीतर तक आहत और व्यथित, ऐसी स्त्राी की मानसिक उथल-पुथल का अनुमान लगाना भी मुश्किल है। जहीरा भाभी का यह कहना कि ‘बिना किये ही इल्जाम पाने से तो करके बदनाम होना ज्यादा अच्छा है।’ दरअसल एक निर्दोष – दंडित व्यक्ति की प्रतिक्रिया है, जो अंततः प्रतिशोध स्वरूप आत्मघाती भी हो सकती है और हिंसक भी।

जब जहीरा भाभी को घूरते हुए रूखाई से बी. दरोगिन कहती है ‘‘तुम्हें भी क्या घर में काम-धंधा नहीं है? बैठ गई तो घंटों बैठ गई।’’ तब जहीरा भाभी का चेहरा ‘अपमान और क्रोध के मारे’ तमतमा जाता है। लेकिन ‘हंसकर’ कोई ‘मीठा सा’ जवाब देते हुए ‘गर्दन झुकाकर’ बाहर चली जाती है। मगर जाहिरा ‘अपमान और क्रोध’ को कब तक झूठी हंसी से दबाती रहेगी? एक न एक दिन ‘अपमान और क्रोध’ का ऐसा विस्पफोट होगा कि सब देखते रह जाएंगे। कब, कहां और कैसे होगा – कहना कठिन है। जहीरा भाभी के अतिसंवेदनशील मन और दमित व्यक्तित्व को सहानुभूतिपूर्वक समझते हुए ही, उसकी व्यथा-कथा और वेदना को सही परिप्रेक्ष्य में पढ़ा जा सकता है। शानी अपने पात्रों के दुःख-दर्द को जितनी हमदर्दी से पढ़ते-समझते हैं, उतनी ही बेचैनी और पीड़ा से अभिव्यक्त भी करते हैं। कभी शब्दों में, कभी संकेतों में और कभी अलिखित मौन में। उदास-निराश-हताश चेहरों का इतिहास जानने-पहचानने की तकलीफदेह प्रक्रिया से गुजरते हुए लेखक, स्वयं अपने को और अपने समय और समाज को तलाशने-तराशने का बीड़ा उठाता है। स्त्री पात्रों के प्रति सहानुभूति ही नहीं बल्कि गहरा स्नेह और सम्मान भी साफ झलकता है।

पुरुष मानसिकता में रची-बसी मांसलता से मुक्त हुए बिना ‘कालाजल’ का सृजन असंभव है। गहरे सरोकार और संस्कार के बिना, स्त्री संसार का सन्नाटा और सूनापन महसूस ही नहीं किया जा सकता। नारी जीवन की विडम्बना और सामाजिक संरचना के पूरे ताने-बाने को उधेड़ते हुए जहीरा भाभी एक जगह कहती हैं, ‘‘कभी-कभी मैं सोचती हूं कि हम लोगों की जिन्दगी का कितना हिस्सा धोखे-धोखे में ही निकल जाता है! शायद इतना ही देखकर हम लोग संतोषपूर्वक आंखें मूंद लेती हैं कि हथेलियां खाली नहीं हैं, जबकि कई बार उनमें गीली मिट्टी भरी होती है। ऐसी गीली मिट्टी जिसे मुट्ठी में बंद करके रखना कभी संभव नहीं होता। पकड़ने के लिए उसे जितना ही दबाओ, उतनी ही वह पकड़ के बाहर होती जाती है।’’ ( पृष्ठ-131) पारिवारिक ही नहीं बल्कि अन्य सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में भी देखें तो यह बात एकदम सही लगती है कि स्त्रियों की मुट्ठी में सिर्फ गीली मिट्टी की तरह भरे हैं – तमाम मौलिक अधिकार, जीने की आजादी और मुक्ति के सपने। जहीरा भाभी के समानान्तर ही याद आती है ‘चारों ओर से निपट अकेली और अभागिन बिलासपुर वाली’ जिसे मिर्जा करामतबेग के लिए बी दारोगिन स्वयं ही बिलासपुर से किसी मुस्लिम खानदान से ब्याह लायी थी। लेकिन ‘बिलासपुर वाली दो बार मां बनी, पर ऐसे नसीब कि दोनों बार गोद सूनी हो गई और सारे आंगन में बीदारोगिन का बेटा रोशन ही अंत तक खेलता रहा।’’ ( पृष्ठ-38) मिर्जा साहब की मृत्यु के बाद ‘बी. दारोगिन ने अपनी सौत को इतना परेशान किया कि वह घर छोड़कर चली गई।’ ( पृष्ठ-43)

यह जानते-समझते हुए कि ‘किसके मां-बाप आज के जमाने में जवान बेटी को जिन्दगी-भर पालते हैं।’ ( पृष्ठ-43) पूछो तो बी दारोगिन हंसती है ‘‘जवान औरत है, कब तक मिर्जा के नाम की माला जपती बैठी रहेगी?’’ ( पृष्ठ-45) निसंतान विधवा का ससुराल में क्या हक? यहां तो पुत्रवती सौत भी मौजूद है। मायके में ‘जिन्दगी भर’ पालेगा कौन? सच यह भी तो है कि ‘बेटी के मां-बाप तो उसी दिन मर जाते हैं, जिस दिन डोले में बैठकर निकल आती है…’ ( पृष्ठ-103) हिन्दू हो या मुस्लिम क्या फर्क पड़ता है! हिन्दू समाज में तो विधवा (विशेषकर निःसंतान) के लिए ‘सती’ से लेकर वृंदावन के विधवा आश्रमों तक का पुख्ता प्रबंध किया ही गया है। ऐसे में जहीरा भाभी या बिलासपुर वाली का भविष्य बताने के लिए किसी ‘ज्योतिषाचार्य’ की जरूरत नहीं। हर कोई जानता है कि निःसंतान (विधवा) स्त्री की नांव कब, कहां, कैसे ‘डूब’ जाएगी! और लाश तक बरामद नहीं होगी – गिद्ध-चील नोच खायेंगे।

बेटियों से बलात्कारसुनारिन मुंहबोली बेटी है, जिसे सुनार पत्नी बना लेता है और मालती भी रज्जू मियां के यहां बेटी की तरह ही पली-बढ़ी है। लेकिन जवान होने पर मालती रज्जू मियां की हवस का शिकार बनती है। गर्भवती होने का भेद खुलता है तो बी. दारोगिन उसकी जम कर पिटाई करती है और उसी शाम मालती घर से निकल (निकाल दी) जाती है। बचपन में ही मालती की मां किसी के साथ भाग गई थी और बच्ची को रज्जू मियां अपने घर ले आए थे। बी. दारोगिन ने भी खुश होकर कहा था ‘अच्छा किया, जो ले आए। जाने बेचारी किसके हाथ पड़ जाती और उसकी क्या दुर्गति होती!’ ( पृष्ठ-118) रज्जू मियां के हाथों पड़कर भी क्या ‘दुर्गति’ नहीं हुई। मालती जैसी ‘रूपवती, स्वस्थ-साफ और धुली दूब-सी निखरी-निखरी और हंसमुख’ जवान लड़की पर रज्जू मियां की ‘लार टपकी पड़ रही थी’ – न जाने कब से। उपर से ‘बेचारी सीधी-सादी अनाथ सी लड़की’ एक दिन दोपहर में फूफी ने देखा था ‘रज्जू मियां के कमरे की चौखट पर भीतर से निकलकर मालती हांफती सी खड़ी है। नहीं, वह खड़े होना न था, या तो एक पल के लिए ठहरकर इसे साहित्य सृजन की ‘शालीनता’ कहें या ‘बोल्डनेस’ का अभाव? पूरे उपन्यास में लेखक ( तमाम गुंजाइशों के बावजूद) शब्द संयम बनाए-बचाए रहते हैं। लगता है जैसे किसी मामले की गहरी जांच-पड़ताल के दौरान, तमाम गवाहों के बयान दर्ज करते चले गए हों और ‘चार्जशीट’ तैयार (या दायर) करने की जिम्मेदारी पाठकों पर छोड़ दी हो। हर तथ्य-सत्य को दर्ज करते हैं – सूत्र-दर-सूत्र मिला कर पढ़ने-समझने का उत्तरदायित्व आप पर है। सुस्ताहट की सांस भरना या गलत जगह देखे और पकड़े जाने की अचकचाहट थी।’ ( पृष्ठ-124)

एक दिन फिर रज्जू मियां के कमरे में सफाई करते समय फूफी ने देखा था ‘ट्रंक के किनारे एक उतरा हुआ पेटीकोट ऐसे गोल पड़ा है जैसे कमर के नीचे सरकाकर किसी ने अपने पांव हटा लिए हों… बी. पेटीकोट पहनती नहीं… कुछ दिन पहले जिस पेटीकोट को उन्होंने मालती को पहनते हुए देखा था वह हू-ब-हू ऐसा ही था – यही सफेद रंग, रेशमी धागे से कढ़े हुए, अनसधे हाथों के फूल-पांख और क्रोशिये के काम वाला निचला बार्डर…’ ( पृष्ठ-123) फूफी को ‘एकाएक रशीदा की याद आ गई’ और ‘बिल्कुल न सोचने के लिए अपने सिर को झटककर बिस्तर की ओर बढ़ गई।’ ( पृष्ठ-123-124) रज्जू मियां और मालती के बीच देह संबंधों को शानी ऐसी ही सांकेतिक भाषा में उजागर करते हैं।
जब मालती का ‘जूड़ा टेढ़ा होकर बेलमोगरा की सजधज को खोल देता और फूलों की एक भीनी-सी गंध फूफी तक सरक जाती’ तो उन्हें याद आता कि ‘ससुर ( रज्जू मियां) के बिस्तर समेटने-धरने के दौरान, सिरहाने से जो कुछ चीजें गिरी थीं, उनमें अधजली बीड़ियों, दियासलाई की तीलियों और खपरैल से गिरे कचरे के साथ बेलमोगरा के कुछ बासी और सूखे फूल भी थे।’ ( पृष्ठ-125) मालती के जूड़े में ‘बेलमोगरा के कुछ बासी और सूखे फूलों’ के बीच ही कथा के महत्वपूर्ण सूत्र, कड़ियां और अर्थ मौजूद हैं। फूफी की पारिवारिक स्थिति ऐसी है कि वह इस बारे में कुछ भी सोचना तक नहीं चाहती।

जब मालती ‘नाली के पास बैठकर कै करने लगी’ तो फूफी ‘फटी-फटी आंखों से खिड़की के बाहर ताकने लगी’, रज्जू मियां ‘उल्टी की आवाज से बुरी तरह चौके और सफेद होते चेहरे से उन्होंने मालती की ओर देखा’ और बी ‘जहां की तहां ऐसे रूक गई जैसे काठ मार गया हो’। ( पृष्ठ-125) मालती ‘असहाय-सी ताकती हुई हांफती रही’। चेहरा घुटनों में धंसाकर छिपा लिया। फूफी ने फंसे गले से सिर्फ इतना कहा ‘यह क्या कर लिया तूने, हरामजादी?’ और उसके पास बैठ गई। दोपहर में बी. दारोगिन मालती को मारते-पीटते हुए चीखती चिल्लाती रही ‘मैं तेरा गला घोंट दूंगी, हरामजादी! रण्डी, बाजारू, किससे पेट भराया है…’ मालती बंद कमरे में घंटों पिटती रही, कराहती रही लेकिन जबान नहीं खोली। बी ने अंततः टूटे स्वर में कहा ‘‘हम तो तेरे भले के लिए कह रहे थे, नहीं समझती तो भाड़ में जा लेकिन रोशन के आने से पहले यहां से अपनी मनहूस सूरत जरूर हटा लेना। वह कहीं देख-सुन ले तो तेरी जान ले लेगा…’’ ( पृष्ठ-126) उसी शाम मालती घर से चली गई। बिलासपुर वाली की तरह मालती भी न जाने कहां गई ? क्या हुआ?? किसे पडी थी पता करने की! ‘रतिनाथ की चाची’ ( नागार्जुन, 1949) में विधवा गौरी अपने विधुर देवर जयनाथ की कामवासना का शिकार होकर गर्भवती हो जाती है और गांव का सारा समाज उसका बहिष्कार करता है। बेटा उमानाथ उसे पीटता है, परन्तु गौरी मरने तक जयनाथ का नाम नहीं बताती।

भले ही घंटों पिटने पर भी मालती ने कोई नाम न लिया- बताया हो मगर बी. दारोगिन भी सच जानती समझती है। बाद में एक दिन बायें हाथ को हंसिया चलाने की तरह चमकाकर कहती हैं (रज्जू मियां से) ‘‘अब तुम मेरी जबान न खुलवाओ, वरना तुम्हारी सारी शराफत यहीं खोलकर रख दूंगी और कोई भी आए-जाए, तुम्हें तांक-झांक करने की क्या जरूरत? यही है शराफत! कहे देती हूं, मुझसे तुम्हारा कुछ भी छिपा नहीं, राई-रत्ती हाल जानती हूं। अरे, शराफत होती तो उसी दिन चुल्लूभर पानी में डूब मरे होते जिस दिन…’’ ( पृष्ठ-133) शानी जी नहीं बताते किस दिन (?) मगर अगले ही क्षण दर्ज करते हैं ‘‘उस रात एक क्षण के लिए भी रशीदा का चेहरा फू फी की आंखों से नहीं हटा. .. मालती का फर्श पर लोटता शरीर… जिसके पास बेलमोगरा के सूखे फू ल पड़े हैं।’’ ( पृष्ठ-133) और साफ है कि अकेले रज्जू मियां कटघरे में खड़े हैं। तमाम गवाह और सबूत उनके खिलाफ हैं। सचमुच शानी एक बेजोड़ कथा शिल्पी हैं और शिल्प एकदम अनूठा। रज्जू मियां का बयान ‘‘माफी मांग सकूं, ऐसा मुंह भी अब मेरे पास नहीं है।’’ ( पृष्ठ-134) संदेह के सारे पर्दे हटा देता है।

जीते-जी कब्र में पड़ी रशीदा

सुनारिन और मालती की ही तरह रशीदा अपने चाचा की यौन कुंठाओं और विकृतियों की संतुष्टि का ‘सुख साधन’ बनने को विवश होती है। मगर एक रात अपने शरीर पर किरासिन तेल छिड़ककर जल मरती है। ‘‘रशीदा बेचारी का बाप नहीं रह गया, चाचा के पास रहती है। लेकिन चाचा खुद दोजख का कीड़ा है। उसकी शादी-ब्याह करता नहीं, बेचारी कुंआरी ही बूढ़ी हो रही है। जो भी पैगाम लेकर पहुंचता है, उसे गाली-गलौच करके निकाल देता है। सारी बिरादरी में मशहूर कर रखा है कि मुनासिब लड़के मिलते नहीं, लेकिन हकीकत कुछ और है – ऐसी कि मुंह पर आते ही जबान कट कर गिर जानी चाहिए… इन्सान होकर ऐसी क्या नियत कि सगी बेटी का रिश्ता भुला दिया जाए? आदमी और जानवर में आखिर फर्क क्या हुआ?’’ ( पृष्ठ-109-110) रशीदा रो-रोकर बताती है ‘‘जीते-जी कब्र में पड़ी हूं’’ और सुनने वाले खीझते हुए सलाह देते हैं ‘‘कब तक ऐसी गुनाह की जिन्दगी को ढोती फिरेगी, नदी-तालाब तो नहीं सूखे, जहर तो दुनिया से उठ नहीं गया?’’… रशीदा देखने में लंबी और दुबली। ‘‘आंखें बड़ी-बड़ी और सुन्दर थी लेकिन उनमें आकर्षण का सिरे से अभाव था। बाल छोटे-छोटे, सीना मर्दों की तरह सपाट और चेहरे की बनावट में बीमारियत… सचमुच उसे कुंआरी कौन कहेगा?… बिल्कुल निर्विकार और भावहीन चेहरा, जैसे झाड़ की छाया में पड़ा, मरा हुआ पत्ता…’’ ( पृष्ठ-108)

जहीरा भाभी का फूफी के सामने बयान है ‘‘उस हादसे से एक हफता पहले मेरे पास आई थी… उस दिन भी बड़ी देर तक रोती रही कि उसे मौत नहीं आती। घंटों बैठकर मुझे रोज-ब-रोज का हाल सुनाती रही और अपना सारा जिस्म खोलकर दिखाया। …घुटनों से लेकर गले तक, जगह-जगह उसने अपने शरीर को आग से भून डाला था। ( इस तरह जल-भुनकर शायद वह समझ रही थी कि खुदा उसके गुनाहों को माफ कर देगा) कहने लगी- मैं चाहती हूं कि मेरा जिस्म बदसूरत हो जाए – इतना बदसूरत कि उसमें हाथ तक न लगाया जा सके। मैंने रोकर कहा कि रशीदा, यह तूने क्या कर लिया? बोली – जीते जी दोजख भोग रही हूं।’’ ( पृष्ठ-130) जब से रशीदा मरी है जहीरा भाभी को बिल्कुल चैन नहीं। ‘‘रात को ठीक से नींद नहीं आती। अंधेरा होते ही अजीब बेचैनी और घबराहट शुरू हो जाती है। कहीं थोड़ी देर के लिए आंख लगती है, तो रशीदा को ही सपने में देखती है।’’ ( पृष्ठ-131) फूफी के बयान में लिखा है ‘‘भाभी ने रशीदा के जीवन-काल में उसे आत्महत्या करके गुनाही की जिन्दगी खत्म करने की सैकड़ों बार सलाह दी थी। वह चाहे भावावेश में हो अथवा क्रोध में आकर संवेदना के कारण और (मगर) आज जब रशीदा सचमुच वह सब कर गई, तो भाभी भीतर से भीरू और अपराधी बन गई हैं।’’ ( पृष्ठ-131) ऐसे में जहीरा भाभी का अपराधबोध स्वाभाविक ही लगता है।

सुनारिन, मालती और रशीदा के यौन-शोषण की व्यथा कथा का कोई अन्त नहीं। चालीस-पचास साल बाद के तथाकथित आजाद देश और सभ्य समाज में भी यौन हिंसा के आंकड़े लगातार बढ़ते ही गये हैं। अधिकांश मामलों में युवतियों से बलात्कार उनके अपने ही पिता, भाई, चाचा, ताउफ, मामा, जीजा या निकट संबंधी और पड़ोसी द्वारा किये जाते (रहे) हैं। तब अपराधों को घर के आंगन में ही गड्ढा खोद कर दबा दिया जाता था, अब कुछ मामले ( 20-25 प्रतिशत) पुलिस स्टेशन से कोर्ट-कचहरी तक भी पहुंच जाते हैं और लगभग 96 प्रतिशत बलात्कारी और हत्यारे बाइज्जत बरी हो जाते हैं या ‘संदेह का लाभ’ पाकर छूट जाते हैं। स्त्रियां न घर में सुरक्षित हैं और न बाहर। सबसे अधिक हिंसक और असुरक्षित है – देश की राजधानी दिल्ली – नई दिल्ली।

इसके बावजूद एक सिद्ध-प्रसिद्ध-वयोवृद्ध ( कथाकार- सम्पादक-विचारक) का कहना-मानना है ‘‘दुनिया की हर खूबसूरत लड़की चाहती है कि उसके साथ ‘रेप’ हो… ‘रेप’ का आधा मजा तो वह लोगों की भूखी निगाहों और तारीफ के फिकरों में लेती ही है। डरती वह उस घटना से नहीं है बल्कि उसके तो सपने देखती है। वह डरती है उस घटना को दूर खड़े होकर देखने वालों की आंखों से, तमाशबीनों से।’’ रशीदा के चाचा-ताउफ अभी भी ‘जिन्दा’ हैं। तसलीमा नसरीन ने ‘मेरे बचपन के दिन’ में लिखा है कि बचपन में उसका यौन शोषण उसके शराफ मामा और अमान चाचा ने ही किया था।

सल्लो: कब्र में कितना अंधेरा है!

राजेन्द्र यादव के शब्दों में ‘सल्लो आपा हिन्दी उपन्यास के कुछ अविस्मरणीय चरित्रों में से एक है? या ‘मैं’ के किशोर-सेक्स की अभिव्यक्तियां… मगर ‘मैं’ यानी कथावाचक यानी बब्बन कमजोर चरित्र है, पहले वह मोहसिन के प्रभाव से आतंकित, आच्छन्न रहते हैं, फिर सल्लो आपा के मुग्ध प्यार में…’’ ( पृष्ठ-घ) इस प्रश्न का कोई जवाब दिए बिना ही यादव जी आगे की यात्रा पर किसी दूसरी टेªन में सवार हो जाते हैं। कुछ दूर जाने के बाद उन्हें ‘अविस्मरणीय चरित्र’ यानी सल्लो आपा के बारे में लगता है. .. ‘‘सल्लो घर की चारदीवारियों से बाहर आना चाहती है – निषिद्ध को अपना कर, यानी अश्लील पुस्तकें देखकर, लड़कों के कपड़े पहनकर, उनकी आदतें और अदाएं अपनाकर… और उसकी इस मासूम, स्वाभाविक छटपटाहट को जिसका अगला रूप रशीदा में है, ( संभवतः) गर्भपात के प्रयास में समाप्त कर दिया जाता है…’’ ( पृष्ठ-घ) न जाने क्यों, उन्हें सल्लो का अगला रूप रशीदा में नजर आता है और किस रूप में नजर आता है? खैर… ‘‘घर भर में सल्लो आपा का व्यक्तित्व सबसे अलग और अनूठा था। लंबा-छरहरा शरीर, सांवला रंग और हंसने से उस पर खिलते हुए कतार से जमे और छोटे-छोटे दांत तथा खूब तीखी नाक।’’ ( पृष्ठ-156) उसके ‘‘शरीर से एक महक उठकर धीरे-धीरे घेरने लगती, जिसका भरपूर एहसास तब होता जबकि वह उठती या हवा को काटती हुई एक झटके के साथ अचानक पास आ बैठती।’’ ( पृष्ठ-166) जिस्म… ‘‘मांसल और भरा हुआ।’’ ( पृष्ठ-25) और ‘सुपुष्ट कंधे, उभरे मांस वाली जवान पीठ।’’ (पृष्ठ-257) उसके कमरे की दीवारों पर ‘‘दो-तीन फिल्मी तस्वीरें एकाध भड़कीले कैलेंडर’’ टंगे रहते। ( पृष्ठ-257-58) ‘खराब ( गंदी) किताब’ की ‘वाहियात तस्वीरें’ देखते समय सल्लो का ‘सारा चेहरा लाल-गुलाल हो गया है, सीना जोर-जोर से उठ-बैठ रहा है, लेकिन ‘तोबा’ कहने के बावजूद, नजर है कि जैसे किताब के पन्नों में चस्पां होकर रह गयी है।’’ ( पृष्ठ-173) मगर कहती है, ‘‘जब तुम देख सकते हो तो मैं क्यों नहीं देख सकती?’’ (पृष्ठ-171) मरदानी पोशाक पहनने पर जब बब्बन प्रश्न करता है, तो सल्लो का जवाब है ‘‘तुम लोग रोज पहनते हो, मैंने सोचा कि लाओ, आज हम भी पहनकर देखते हैं।’’ ( पृष्ठ-250) सल्लो द्वारा सिगरेट पीने पर बब्बन स्वीकारता है ‘‘सच कहूं, मुझे भीतर धक्का लगा। अंग्रेज या विदेशी औरतों के विषय में सुन रखा था कि मरदों की तरह सिगरेट पीती हैं, लेकिन हिन्दुस्तानी और वह भी अपने की लड़की को इस तरह सिगरेट पीते देखूं, यह सपने से भी दूर की बात थी।’’ ( पृष्ठ-251) क्योंकि वह सपनों में ‘विवस्त्रा’ सल्लो का ‘जल भीगा शरीर’ तो देख सकता है, देख सकता है चोरी-छिपे गुसलखाने में नहाती सल्लो को, मगर उसे ‘सिगरेट पीते’ नहीं देख सकता। इन रूपों में देखते-सोचते-स्वीकारने पर ‘भीतर धक्का’ लगता है और सारे सवालों का एक ही जवाब मिलता है ‘‘ आपा के इस साहस (दुस्साहस) के पीछे क्या सस्ती फिल्मों का प्रभाव नहीं है?’’ ( पृष्ठ-253)

‘सस्ती फिल्मों’ और ‘गन्दी किताबों’ का प्रभाव सिर्फ सल्लो पर ही नहीं पड़ा है – बब्बन के अब्बा से अब तक पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस प्रभाव में रही है। पर्दे पर स्त्री को लगातार ‘बेपर्दा’ किया जाता रहा है क्योंकि पुरुषों के यौन मनोरंजन के लिए नग्न स्त्री की उत्तेजक देह छवियां सबसे अधिक मुनाफे का व्यापार है। अरबों-खरबों रुपये-डालर-पौंड का बाजार, जो मुख्यतया मर्दों के हाथ में है। सौंदर्य व्यवसाय की सबसे अधिक उपभोक्ता स्त्रियां है और यौन व्यवसाय के उपभोक्ता पुरुष। इस षड्यंत्र के दुष्चक्र में अधिकांश स्त्रियां शोषित हैं या जाने-अनजाने हुई शिकार। सल्लो इस षड्यंत्र की ही एक और शिकार है। चारों तरफ से बंद खंडहर में कैद सल्लो सांस लेने के लिए एक खिड़की खोलना चाहती है, परन्तु किले की दीवार तोड़ने की कोशिश में ही मारी जाती है। खंडहर भी तो ऐसा है जहां ‘न नयी इमारत बनती है और न पुरानी टूटती है।’’ ( पृष्ठ-10) सल्लो सचमुच बब्बन से बेहद प्यार करती है और इस दिशा में पहल भी, लेकिन बब्बन सल्लो के प्यार में मुग्ध होने के बावजूद ‘कमजोर, भीरू, संकोची और साहसहीन’ ही नहीं, बल्कि संस्कारों की सीलन और गहरे अपराध बोध से भी ग्रस्त रहता है। हीनभावना से उभर ही नहीं पाता। उम्र के सवाल पर मन ही मन विश्वासपूर्वक कहता है ‘‘मैं किस मानी में छोटा हूं और पुरुष नहीं हूं?’’ ( पृष्ठ-258) सल्लो के हर एक स्पर्श में ‘झनझनाती हुई सिरहन’- नशे सी लगती है। एक दिन…’’ अचानक अपनी ठोड़ी पर नरम हथेली की पकड़ महसूस हुई और कान पर दो गर्म-गर्म होठ एक क्षण के लिए आ टिके। ऐसा करने से उनके (सल्लो के होठों तथा गालों के स्पर्श ने मेरे कानों को भी लमहे-भर के लिए तपा दिया था। सारे शरीर की रगों में एक झनझनाती हुई सिरहन उतर गई और जैसे नशे के बोझ से दोनों आंखें अपने-आप मूंद गयीं।’’ ( पृष्ठ-169) पुरुष ‘थोड़ी देर के लिए सब भूल गया’ मग फिर कुछ रोज बाद बब्बन ने देखा कि सल्लो के ‘‘चेहरे का रंग फूल-जासनी हो गया है, आंखें नहीं खुलती और मेरी पकड़ का विरोध करता हुआ हाथ निश्चल पड़ गया है। उसके क्षण-भर बाद उन्होंने दोनों हाथों से अपना चेहरा मूंद लिया और सामने झुक गयीं। कुछ क्षण वैसे भी निकल गए, फिर धीरे-धीरे झुकता हुआ उनका धनुषाकार शरीर मेरे घुटनों के इतने निकट आया कि पहले मैंने हरारत महसूस की और फिर एक अपरिचित, नरम-नरम तथा मांसल स्पर्श ने रोशनी की-सी तेजी से एकबारगी झकझोरकर, मुझे बिल्कुल अवश कर दिया।’’ ( पृष्ठ-272)

सल्लो के आत्मीय स्नेह, सम्मान और कुछ ‘स्पर्शों’ या ‘मांसल स्पर्शों’ के परिणामस्वरूप ही बब्बन ‘बेचैनी के मारे करवट बदलता’ रहता है और ‘चैबीसों घंटे, सल्लो आपा की तस्वीर आंखों के आगे’ तैरती रहती है – ‘कोई घड़ी खाली नहीं जाती जब उनकी निकटता की चाह न होती हो।’ ( पृष्ठ-273) बब्बन को गहरे लगता है ‘‘जैसे उनके बिना मेरी कोई सार्थकता ही न हो’’ …मन करता है ‘‘सब छोड़-छाड़ कर उनके निकट जा बैठूं, वह बोलती जाएं, मैं सुनता रहूं, वह हंसी के मारे दोहरी हो-हो जाएं और मैं बिना बाधा दिए चुपचाप देखता रहूं।’’ ( पृष्ठ-273-274) बब्बन सोचता-समझता और महसूस करता है, परन्तु अपने को बाहर अभिव्यक्त नहीं कर पाता है। पारिवारिक तनाव, क्लेश और स्वभाव भी तो उसकी सीमाएं हैं। सब कुछ होने-जानने के बाद भी, बब्बन के दिल में सल्लो की अमिट स्नेह स्मृतियां बनी रहती है। इसकी अचानक और अप्रत्याशित मौत का विश्वास ही नहीं कर पाता। उसे लगातार यही लगता है कि ‘‘जरूर कोई साजिश करके लोगों ने उन्हें कहीं छिपा या भेज दिया है।’’ ( पृष्ठ-293) दूसरी तरफ सालों बाद भी वही अपराधबोध और प्रश्न ‘‘आपा को सोचते हुए मन लज्जा से क्यों भर जाता है? क्या मैं कहीं अपराधी हूं? यह क्या है कि उनकी स्मृति तक से मुंह छिपाया जाए या झटक-झटककर अपने को दूर-दूर रखने की कोशिश की जाए? और उसके मूल में क्या है? ईर्ष्या संजीदगी की कमी, हल्कापन या किसी ऐसे गुनाह का एहसास जो मेरे मस्तिष्क की परतों में पैबस्त है और मुझे बरसों से हाट करता रहा है?’’ ( पृष्ठ-269) …‘‘क्या मेरे भीतर कहीं कोई अपराधी बैठा है जो आपा के बारे में फू पफी से रूबरू कुछ भी पूछने नहीं देता।’’ ( पृष्ठ-294) बब्बन की तकलीफ का कुछ अनुमान इन शब्दों से लगाया जा सकता है। ‘‘या अल्लाह, यह पीड़ा भी मुझे ही झेलनी थी कि उनके (सल्लो के) नाम से शबेबरात की फातिहा एक दिन मैं ही दूं और वह भी उसी घर में आकर जहां की दीवारों में उनकी पाजेब की आवाज मुंहबंद सोयी है।’’ ( पृष्ठ-268) बब्बन की पीड़ा में सल्लो की रूह बसी है और स्मृतियों में सारे कथासूत्र। बब्बन और सल्लो आपा के बीच सन्नाटे में संवाद की संभावनाएं और घरेलू सूनेपन में स्नेह और सहानुभूति के अंकुर पनपते हैं। दोनों एक-दूसरे के स्पर्श सुख के सपने भी देखते हैं और मनोकामना भी करते हैं। सल्लो के स्पर्शों के पीछे छिपी सांकेतिक भाषा को बब्बन, संपूर्णता में सही-सही नहीं समझ पाता। नहीं पहचान पाता देह और कामना के ‘रहस्यमय’ अर्थ। उसके लिए सब कुछ ‘रहस्यमय’ और ‘अस्पष्ट’ है – ‘पुरुष’ होने-समझने के बावजूद।

सल्लो न जीने से डरती है और न मरने से, जबकि बब्बन दोनों से डरता है। सल्लो को बब्बन से अपेक्षित ‘रिस्पोंस’ नहीं मिलता है तो शायद वह दूसरी दिशा में मुड़ (भटक) जाती है। धीरे-धीरे बब्बन को ( जगदल पुर छोड़ने से पहले) महसूस होता है ‘सभी मुझसे निर्लिप्त हैं, अपने-आपमें मस्त और व्यस्त, किसी का दुःख किसी को नहीं… मुझे पता नहीं था कि इसी घर में एक ऐसी वितृष्णा…’’ ( पृष्ठ-280) क्योंकि शहर छोड़ने के समाचार को सल्लो ने ‘तटस्थ भाव से परायों की तरह’ सुना और बिना किसी अफसोस या दुख के अनसुना कर दिया। दूसरी घटना यह हुई कि सल्लो के कमरे में बैठे हुए बब्बन को तकिये के गिलाफ में से (गिरा) एक पुर्जा मिल जाता है। उस समय बब्बन को लगता है ‘‘यह बहुत ही अच्छा हुआ कि मेरी आंखों के सामने से पट्टी हट गई और उस एक जरा-से पुर्जे में आपा को मैंने बिल्कुल साफ-साफ और सही-सही देख लिया, वरना शायद जगदलपुर इतनी आसानी से नहीं छूटता।’’ ( पृष्ठ-280-281)

सल्लो की मृत्यु का समाचार मिलता है तो स्मृतियां सामने आ खड़ी होती हैं. .. मरदाना लिबास, ‘‘सिगरेट, चाकलेटी पतलून और तकिये के गिलाफ से गिरी हुई चिट्ठी जो इतनी गिरी हुई थी कि शायद किसी दूसरे के सामने कभी पढ़ी नहीं जाती। आपा की अनायास मृत्यु क्या उसी की चरम परिणति थी?’’ ( पृष्ठ-284) सल्लो की मृत्यु के पीछे क्या कारण रहे-कोई नहीं जानता। अनुमान लगाया जा सकता है कि गर्भ गिराने के प्रयास में ही मौत हुई होगी। गर्भ किससे ठहरा? इस सवाल का भी स्पष्ट कोई जवाब नहीं मिलता। सिर्फ दो सूत्र या संकेत हैं। पहला सूत्र है चिट्ठी और दूसरा चाकलेटी पतलून। सल्लो के कमरे में टंगी चाकलेटी पतलून को देखते ही बब्बन का सिर घूमने लगता है। ‘‘एकाएक चिनगारी फूटने-जैसी एक पिछली स्मृति सहसा आ छिटकी और वैसी ही जलन के मारे मैं तिलमिला गया.. गत मुहर्रम की पांच और दस तारीखों को जिस युवक को सिगरेट पीते हुए बारहा आपा के इर्द-गिर्द देखा था, उसके शरीर पर भी ऐसी ही पतलून थी। यही चाकलेटी रंग और संभवतः यही कपड़ा… गए दिनों जिस मरदाना लिबास में सल्लो आपा मेरे घर आयी थी, वह कैसा था?’’( पृष्ठ-278) जाहिर है उस दिन सल्लो ने यही चाकलेटी पतलून पहनी हुई थी।

‘चाकलेटी रंग की पतलून वाले युवक’ के बारे में विस्तार से ( पृष्ठ-207 पर) पहले ही बताया जा चुका है। यहां भी शानी जी पतलून और चिट्ठी के आधार पर वैसे ही जांच-पड़ताल करते हैं जैसे पेटीकोट और बेलमोगरा के आधार पर मालती कांड की करते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि यहां ये सूत्र (सबूत) बब्बन को बाइज्जत बरी करने के लिए हैं- वरना ‘संदेह की सूई’ उसी के आस-पास घूमती रहती। बब्बन यानी कथावाचक यानी स्वयं लेखक। सल्लो का झूठ फूफी उसी दिन पकड़ लेती है, जिस दिन वह मरदाने लिबास में बब्बन के यहां से लौटती है और इसीलिए गुस्से में चिल्लाती हैं ‘‘हरामखोर, बदजात, कमीनी… कहां मरने गई थी? किसके साथ गई थी? कहां?’’ ( पृष्ठ-260) बब्बन के यहां इतनी देर नहीं रह सकती-फूफी जानती है। फूफी फिर कहती है ‘‘देख सल्लो, तू मुझको सच-सच बता, नहीं तो फिर आने दे तेरे अब्बा को, उनसे कहकर मैं तेरी खाल खिंचवाती हूं।’’ बब्बन की अम्मा का कहना है ‘‘मुझे पहले ही शक था कि सल्लो यही दिन दिखाएगी। एक-दो बार मैंने छोटी को इशारा भी
किया था कि वह उसे संभाले, पर उसने ध्यान नहीं दिया। मैं अब साफ-साफ क्या कहती?… ऐसी-वैसी खबरें तो मैंने जगदलपुर रहने के दौरान ही सुनी थी। जानती थी कि उस लड़की के रंग-ढंग ठीक नहीं, इसलिए मैंने कभी पसंद नहीं किया कि बब्बन वहां ज्यादा आए-जाए, लेकिन वह था कि रात-दिन वहीं घुसा रहता था। मैंने अपनी आंखों से देखा कि…’’ ( पृष्ठ-283) कथा का सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि ‘‘अफशां तो ब्याहता लड़कियां लगाती हैं’’ मगर गवाही के दौरान फूफी ने स्वीकार किया है ‘‘हां, जानती हूं, सल्लो कुंआरी ही मरी है, लेकिन… मेरे लाख मना करने, गालियां बकने और कई बार मारने-पीटने पर भी उसने मांग में अफशां भरना कभी नहीं छोड़ा था।’’ ( पृष्ठ-269) इसका साफ-साफ मतलब यह है कि सल्लो कुंआरी नहीं ब्याहता थी। किसकी ब्याहता थी – यह शायद सिर्फ सल्लो ही जानती थी। कुंआरी होती तो (मना करने, गालियां सुनने या मार-पीट के बावजूद) मांग में अफशां क्यों भरती? हो सकता है उसने चोरी छिपे ब्याह कर लिया हो और शायद उसी से गर्भवती (?) भी हुई हो। अगर नहीं, तो क्या सल्लो अपनी मांग में बब्बन के नाम का अफशां भरती थी? नहीं,… हां,… ऐसा भी तो हो सकता है वरना बब्बन बार-बार क्यों कहता है ‘‘क्या मेरे भीतर कहीं कोई अपराधी बैठा है…?’’ या ‘क्या मैं कहीं अपराधी हूं?’ या फिर वो कौन से ‘गुनाह का एहसास’ है जो बब्बन को ‘बरसों से हाण्ट करता रहा है?’ मांसल स्पर्शों के संदर्भ में हुई ‘ग्लानि तो दो-एक दिन में कपूर की तरह गायब’ हो गई थी। ‘फिर वैसी कोई ( अपराध) भावना आती भी तो कच्चे मटके पर पड़ी बूंद की तरह फिसल कर निकल जाती’ थी। ( पृष्ठ-273)

सबूतों के अभाव में बब्बन को ‘संदेह का लाभ’ भले ही मिल जाए, मगर पूर्णतया निर्दोष तो नहीं ही ठहराया जा सकता। संभव है कथावाचक उपर्फ बब्बन ने अपने विरुद्ध सारे सबूत नष्ट कर दिये हों या जानबूझ कर सारा दोष (संदेह) चाकलेटी पतलून वाले युवक के मत्थे मढ़ने की कोशिश की हो – ताकि सारा मामला रहस्यमय बना रहे बब्बन की अम्मी की गवाही कि ‘उस लड़की के रंग-ढंग ठीक नहीं’ – विश्वसनीय नहीं कही-मानी जा सकती। फू फी भी इतनी नासमझ तो नहीं कि कुंआरी बेटी द्वारा रोज मांग में अफशां भरने के अर्थ-अनर्थ न जानती हो – ‘लाख मना करने, गालियां बकने और मारने-पीटने’ के बावजूद। फिर यह कौन है और क्यों कहे जा रहा है – हरामखोर, बदजात, कमीनी, कुतिया, रण्डी, बाजारू, हरामजादी, छिनाल, कुलटा और चरित्राहीन। सल्लो ने एक दिन बब्बन से कहा था कि ‘‘मरने से नहीं डरती, डर तो मुझे कब्र से बहुत लगता है।’’ बब्बन ने पूछा ‘कब्र से कैसे?’ तो सल्लो ने बताया ‘‘तुमने खुदी हुई कब्र नहीं देखी? कितनी छोटी और जरा-सी जगह में लोग मुरदे को अकेले डाल जाते हैं। सोचती हूं, तख्ते-मिट्टी के पटाव के बाद भीतर कितना अंधेरा हो जाता होगा, फिर कीड़े, सांप और बिच्छू… हाय अल्लाह, मैं तो कभी दफन होना नहीं चाहती… इससे अच्छा तो यह कि मरने के बाद आदमी के शरीर को जला दिया जाये या दूर, किसी खुले मैदान में रख दिया जाए ताकि गिद्ध चील नोच खायें…’’ ( पृष्ठ-284) स्मृति में सहेज कर रखी सल्लो की वसीयत पढ़ने के बाद, बब्बन ने ‘सारी घृणा, क्रोध या ईर्ष्या भूल कर मन ही मन दुआ की थी कि खुदा सल्लो को बख्शे, उनकी रूह को सुकून दे और फूफी को मां होने के नाते सब्र…’’ ( पृष्ठ-284) कब्र से बंद घर ( परिवारों) में भी स्त्रिायां सचमुच कितनी ‘अकेली’ ( असुरक्षित और आतंकित) होती हैं – चारों तरफ सुरक्षा प्रहरी। ‘भीतर कितना अंधेरा’ और बाहर संबंधों के ‘सांप, कीड़े और बिच्छू’ हैं। रोज जिन्दा औरतें जल (जला दी) जाती हैं – बदनामी के डर या परिवार की प्रतिष्ठा के लिए। सरेआम स्त्री देह को ‘गिद्ध-चील’ नोचते-खसोटते रहते हैं। घरेलू हिंसा हत्या, दहेज हत्या, आत्महत्या, बलात्कार, यौन शोषण, मानसिक-शारीरिक उत्पीड़न और अन्याय या अत्याचार झेलती आधी दुनिया के लिए मौजूदा विवाह संस्था (घर-परिवार-संबंध) किसी कब्र या चिता से कम खौफनाक नहीं। मुझे लगता है कि ‘कालाजल’ में इस संवाद के बाद एक भी और शब्द की गुंजाइश शेष नहीं रह जाती। अंतिम अध्याय (सोलह) की सल्लो आपा संबंधी सामग्री को, इसी अध्याय में शामिल कर लिया जाता तो बेहतर होता। मोहसिन संबंधी सामग्री को किसी अन्य अध्याय में भी रखा जा सकता था। अगर सल्लो आपा की अलिखित वसीयत के साथ ‘कालाजल’ का समापन हो(ता) तो वास्तव में यह उपन्यास ‘युगों से चली आ रही आस्था और विश्वास’ की प्रार्थना छोड़ने और ‘पूर्वजों की अस्थियों से मुक्ति’ का घोषणा पत्र बन पाता। अपने समय की स्त्री संवेदना और उसके अस्तित्व तथा अस्मिता के सवालों को अतीत से भविष्य तक में देखते-समझते-परखते हुए शानी जिस विलक्षणता और सूक्ष्मता से स्पर्श करते हैं, वो अपने-आप में अभिव्यक्ति का अनोखा अनुभव है। ‘कालाजल’ पढ़ते हुए मुझे एक भी ऐसा कथाशिल्पी याद नहीं आ रहा, जिसने स्त्री को इस अन्तर बोध से जानने-समझने का प्रयास भी किया हो। इतने स्नेह, सम्मान और समानभाव से। अपने समय की तमाम सीमाओं का अतिक्रमण है – ‘कालाजल’।

‘डरता कौन है शानी से?’

छह फरवरी 1995 को जब ‘कालाजल’ का अमर कथाशिल्पी नहीं रहा तो मार्च 1995 के ‘हंस’ के संपादकीय (‘डरता कौन है शानी से?’) में राजेन्द्र यादव ने लिखा था- ‘‘शानी की यह यात्रा (बस्तर से दिल्ली वाया भोपाल) गुलशेर खां से शानी और फिर गुलशेर खां शानी बन जाने की यात्रा है यानी पहले वह मुसलमान था, फिर इस सांचे को तोड़कर लेखक बना, मगर धीरे-धीरे मुसलमान हिन्दी लेखक बन कर रह गया… ‘‘तुम अल्पसंख्यक होने की तकलीफ कभी नहीं समझ पाओगे?’’ दर्द से उसने न जानी कितनी बार कहा होगा, ‘उनका डर, उनकी असुरक्षा-भावना, दहशत से उनका एक-दूसरे से चिपका रहना, हमेशा शक और संदेह की तेज रोशनियों के बीच घिरे होने का अहसास…’’ और दूसरे ही पल गुस्से में तड़पकर ‘‘तीन पीढ़ियों से मैं मुसलमान हूं और वही बने रहना चाहता हूं। यह मुल्क, यह जबान, यह राष्ट्र सिर्फ उनके बाप का नहीं, मेरा भी उतना ही है जितना उन हरामजादों का। मैं उनकी शर्तों और कृपा पर यहां का नागरिक नहीं हूं। यों खत्म कर दूं मैं अपनी आइडेंटिटी…? सिर्फ इसलिए कि मैं अल्पसंख्यक हूं… मुझसे क्यों मांग की जाती है कि मैं हर बार अपने को वो साबित करूं जो वे चाहते हैं?’’ फिर अगले ही क्षण भावुक होकर विगलित हो जाता, ‘‘कुछ कहो राजेन्द्र, आदमी साला न हिन्दू होता है, न मुसलमान। वह सिर्फ आदमी होता है।’’ शानी और गुलशेर खां के भयानक अंतर्विरोधों के बीच टक्करें मारते व्यक्ति की भीतरी यातना का नाम था ( है) शानी… एक सुलगता, सुरसुराता बम जो कभी भी साहित्य की दुनिया में विस्पफोट कर सकता था।’’ उन्होंने आगे लिखा है ‘‘…उसमें जगदलपुर के आदिवासी की जिजीविषा और पठान होने की आक्रामकता थी… अद्भुत भाषा का धनी था शानी… इतना जानदार और शानदार गद्य लिखने वाले हिन्दी में दो-चार से अधिक नहीं हैं… बहुत सख्त पसंदों और नापसंदों का व्यक्ति था शानी… गुस्सा और आवेश उसके स्थायी भाव। उद्दाम-संवेग संचारी भाव थे… अगर शानी न होता तो हम, आत्ममुग्धों, संस्कृति-धर्म की स्व-घोषित इकहरी महानताओं के शंखों-घोंघों में कैद जगद्गुरुओं को झकझोर कर कौन दिखाता कि बहुसंख्यकों के बीच अकेले और असुरक्षित होना क्या होता है। क्या हेाता है पाकिस्तान, बांग्लादेश और कुवैत में हिन्दू होकर रहना।’’ . ..अगर शानी न होता तो…!!!???!!!

‘अगर शानी न होता तो…?’

प्रख्यात आलोचक गोपाल राय के अनुसार ‘‘शानी से पहले प्रेमचन्द, यशपाल, वृन्दावन लाल वर्मा आदि ने अपने उपन्यासों में सीमित अनुभव के आधार पर मुस्लिम जीवन का अंकन किया था, पर यह विषय किसी ऐसे संवेदनशील और प्रतिभाशाली उपन्यासकार की प्रतीक्षा कर रहा था, जो खुद उस जीवन का अभिन्न अंग हो। शानी इस बात को बहुत शिद्दत के साथ महसूस करते थे कि हिन्दी उपन्यास में मुस्लिम जीवन का चित्रण बहुत कम हुआ है। कहा जा सकता है कि शानी ने इस अभाव को दूर करने की गौरवपूर्ण शुरूआत की।’’ ( हिन्दी उपन्यास का इतिहास, 2002, पृष्ठ-290) इसके बाद के उपन्यासकारों ने शानी की परम्परा को ही आगे बढ़ाया है। राही मासूम रजा, बदी उज्जमां, मंजूर एहतेशाम, नासिराशर्मा, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मेहरून्निसा परवेज से लेकर असगर वजाहत तक ने ‘आधा गांव’ से लेकर ‘सात आसमान’ तक की लम्बी यात्रा तय की है। अगर शानी न होता तो ‘यहां तक का सफर कैसे हो पाता? शानी ने पिछड़े मुस्लिम समाज की परंपरा, जीवन दृष्टि और दर्शन तथा समसामयिक कटु यथार्थ और चिंताओं को ही अभिव्यक्ति नही दी, बल्कि उसकी विकृतियों और विसंगतियों को रेखांकित करके, भविष्य का पूर्वाभास और दिशा संकेत भी निर्धारित किये हैं। शानी सिपर्फ मील का पत्थर ही नहीं, बल्कि इस साहित्य यात्रा में ‘लाइट हाउस’ भी है, और रहेगा। मैं गर्व से कह सकता हूं कि मैंने भी शानी को देखा है। हालांकि सिर्फ दो-तीन बार, दूर से ही देखा है।

काला जल की कथाभूमि

‘कालाजल’ प्रख्यात कथाकार गुलशेर खान शानी का अद्वितीय और कालजयी उपन्यास है और एक प्रामाणिक ऐतिहासिक दस्तावेज भी। शानी जी के शब्दों में ‘इस उपन्यास ने मुझे वह सब कुछ दिया जिसकी मुझ जैसे लेखक को कल्पना भी नहीं थी। यश, मान, सम्मान, पैसा, असंख्य पाठकों का स्नेह और टेलीविजन पर प्रसारण के चलते अपार लोकप्रियता भी।’’ राजेन्द्र यादव के अनुसार ‘‘अपनी भाषा, विवरणों और वर्णनों की बारीकियों और सब मिलाकर क्लासिकीय औपन्यासिक तेवर के लिए ‘कालाजल’ हिन्दी के कुछ सर्वश्रेष्ठ स्वातंत्रयोतर उपन्यासों में से एक है।’’ प्रथम संस्करण की भूमिका में शानी ने लिखा था- ‘‘इस रचना की भूमिका के रूप में मुझे कुछ नहीं कहना है, सिवाय इसके कि जिस जीवन की विडम्बना या विभीषिका इसमें चित्रित है वह सायास, साग्रह या केवल वैशिष्ट्य के लिए नहीं- मेरी अपनी विवशता ही इसका कारण है। और किसी की निरूपायता या आंतरिक विवशता के लिए आपके मन में यदि थोड़ी सी भी संवेदना है, तो मैं विश्वास दिला सकता हूं कि इसे पढ़ते हुए यापढ़कर आपको कोफ़्त नहीं होगी। अपनी ओर से मुझे इतना ही कहना चाहिए कि इसे मैंने गंभीरतापूर्वक, पूरी निष्ठा, सच्चाई और ईमानदारी से लिखा है और इसकी सृजन प्रक्रिया के बीच मेरी मनःस्थिति उस प्रार्थनारत व्यक्ति की तरह रही है, जो अत्यन्त निश्छलतापूर्वक सिजदे में पड़ा हो – सभी से कटा हुआ, एकाग्र और तल्लीन!’’

‘नये संस्करण पर एक संवाद’ में हैरानी और अविश्वास से शानी को ‘‘यह सोचकर ताज्जुब-सा होता है कि आज से लगभग बत्तीस साल पहले जब यह उपन्यास लिखा तो मेरी उम्र सिर्फ अट्ठाईस बरस थी।’’ उन्होंने आगे लिखा है ‘‘शबेबरात की फातिहा की एक रात इस उपन्यास का बीज पड़ा था-बिल्कुल अनजाने में। उस रात फिर मैं सो नहीं पाया था। फिर वही क्या आने वाली कई रातें मेरे लिए हराम हो गई थीं। आज भी अपने पास सुरक्षित काला जल की हस्तलिखित पाण्डुलिपि पर नजर डालता हूं तो विश्वास नहीं होता। 27 अगस्त 1960 शनिवार की रात मैंने इसकी शुरूआत की थी और जब यह खत्म हुआ तो वह 3 नवम्बर 1961 की आधी से गुजरी हुई रात थी।’’ दुर्भाग्य कि ‘‘सन् 1962 से लेकर लगभग 1965 तक यह राजकमल प्रकाशन के पास स्वीकृत पड़ा रहा’’ और ‘‘सन् 1965 में अक्षर प्रकाशन के पहले सेट की धूम के साथ कालाजल बिल आखिर प्रकाशित हुआ।’’ तब तक ‘कथा-भूमि जगदलपुर कभी का छोड़ चुका था।’ रचनात्मक अनुभव के बारे में शानी जी बताते हैं ‘‘छोटी फूफी के पास बैठते ही न सिर्फ उनके आसपास की जिन्दगी बल्कि उनके पहले और बाद की दो पीढ़ियों का समाज अपने आप खिंच आया – मखनातीस की तरह। यह वह समाज था जिसे हिन्दी में इससे पहले अनदेखा किया जाता रहा था और जिसके बाद ही राही मासूम रजा का ‘आधा गांव’ जैसा उपन्यास आया। फिर तो मुस्लिम लेखक भी आए और मुस्लिम-अनुभव भी – उस झूठ को खोलते हुए कि हिन्दी साहित्य सिर्फ हिन्दू साहित्य नहीं है और यह कि केवल हिन्दू अनुभव भारतीय अनुभव की सीमा नहीं है। अगर ऐसा होता तो अमेरिकी साहित्य में हेमिंग्वे के साथ-साथ रिचर्ड राइट, राल्फ एलिसन, या जेम्स बाल्डविन और एलिस वाकर अपने अश्वेत-अनुभव के आक्रोश भरे लेखन के लिए और नोबेल पुरस्कार विजेता इसाक बाशेविस सिंगर अपने कोरम को यहूदी-अनुभव के लिए समाज में समादृत न होते।’’

कालाजल: ‘दुर्भाग्य की काली छाया’

‘आलोचना’ के संपादक परमानन्द श्रीवास्तव का विचार ( विश्लेषण) यह है कि ‘‘कालाजल आंचलिक उपन्यास के रूप में ऐसे अंचल का उदास वृतान्त है जिसमें जीवन एक निरंतर क्षय की ओर उन्मुख है। चीजें खत्म हो रही हैं और नया जैसा कुछ बनने नहीं जा रहा है। एक सीमित सिकुड़ा हुआ परिवार-वृत्त जो एक पूरे समाज का आख्यान न भी हो, एक खास दौर की पस्ती और हताशा को प्रत्यक्ष करता है। यहां न ‘गणदेवता’ – जैसा कोई देबू है, न ‘मैला आंचल’ – जैसा कमला-प्रशांत संबंध की स्वीकृति से जन्म लेनेवाला कोई भविष्य स्वप्न इस उपन्यास में जीवन का नकार तो नहीं है, पर जीवन के प्रति कोई आशावादी रूख भी नहीं है। यह मानवीय विफलताओं की ही महागाथा है, यदि इसे महागाथा कहने का आग्रह प्रबल हो। कभी-कभी ऐसी विफलताओं का इतिहास भी हमें अवरूद्ध यथास्थिति से मुक्ति के लिए बेचैन करता है।’’ ( उपन्यास का पुनर्जन्म, पृष्ठ-136-37) दरअसल परमानन्द जी ‘कालाजल’ को ‘अभिशप्त पिछड़े अंचल के दो मुस्लिम परिवारों की कहानी’ मानते हैं, जिन पर ‘दुर्भाग्य की काली छाया’ पड़ी है और जिसमें ‘जीवन का निरन्तर क्षय’ हो रहा है। ‘कालाजल’ की समीक्षा करते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘‘जिस दृष्टि से जिस अनुभूति को, जिस जीवनानुभव को, जिस जीवन-तथ्य को, कवि ( लेखक) उपस्थित कर रहा है, उसके समस्त समाजशास्त्राीय, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक संदर्भ और अर्थ आपके ध्यान में रहने चाहिए… लेखक के संवेदनात्मक उद्देश्यों को पहचान कर उसकी कलाकृति का विवेचन किया जाना चाहिए, तथा उसके संवेदनात्मक उद्देश्यों और अन्तरानुभवों को व्यापकतर मानवसत्ता के तथ्यों से जोड़ना चाहिए।’’ ( मुक्तिबोध रचनावली, पांच, पृष्ठ-73) क्या यह पिछड़ा अंचल सचमुच ‘अभिशप्त’ है? क्यों अभिशप्त है? क्या सिर्फ इसलिए कि इस पर, ‘दुर्भाग्य की काली छाया’ पड़ी है? ‘दुर्भाग्य से अभिशप्त’ है या सामाजिक-आर्थिक- राजनीतिक और धार्मिक कारणों से? क्या ‘कालाजल’ सिर्फ ‘दो मुस्लिम परिवारों की कहानी’ है? ‘पूरे समाज का आख्यान’ क्यों नहीं, कहा-माना जा सकता? ‘पूरे समाज का आख्यान’ और क्या हेाता है या होना चाहिए।

कालाजल: ‘विवाहेत्तर संबंधों की भरमार’

डॉ. हरदयाल की नजर में ‘कालाजल’ में केवल ‘बंधा-सड़ा जीवन’ है। उन्होंने लिखा है ‘‘इस उपन्यास में आंचलिक उपन्यासों की एक और प्रवृति हमें देखने को मिलती है-वह है विवाहेत्तर यौन-संबंधों की भरमार। मिर्जा करामतबेग पुलिस दरोगा बनकर बस्तर आये थे और तीस वर्ष की आयु तक अविवाहित थे। उनका विवाहेत्तर यौन-संबंध स्थापित हुआ बिट्टी रौताइन से। बाद में उन्होंने भेद खुल जाने पर नौकरी छोड़ दी, उससे निकाह कर लिया। मिर्जा करामत बेग के देहावसान के बाद बिट्टी उर्फ बीदारोगन का यौन संबंध रज्जू मियां से स्थापित हुआ और बाद में उन्होंने निकाह कर लिया। रज्जू मियां ने अपनी सौतेली पूत्रवधु को भी अपनी वासना का शिकार बनाने की पूरी-पूरी कोशिश की, यद्यपि वे अपनी इस कोशिश में सफल नहीं हुए। रज्जू मियां एक अनाथ बच्ची मालती को ले आये, जब वह युवती हुई तो उन्होंने इसके साथ यौन संबंध स्थापित किया, वह गर्भवती हुई और उसे घर से निकालना पड़ा। रशीदा का चाचा उसके साथ बलात्कार करता रहता है और इससे मुक्त होने के लिए उसे आत्महत्या करनी पड़ती है।

सल्लो का यौन-संबंध भी सामाजिक दृष्टि से वैध नहीं है। सुनार की बीवी अतृप्त यौन-संबंधों के कारण से जल रही है। बब्बन के पिता के किसी स्त्री के साथ विवाहेत्तर यौन-संबंधों के कारण उनका घर बरबाद हो जाता। इसमें कोई संदेह नहीं कि यौन-संबंधों का चित्रण शानी ने शालीनता की सीमा पार किये बिना किया है। उन्होंने इनमें से कुछ संबंधों की भावनात्मक कोमलता और कुछ संबंधों की क्रूरता को बड़ी संवेदनशीलता के साथ अंकित किया है, किन्तु प्रश्न उठता है कि आंचलिक उपन्यासकार विवाहेतर यौन-संबंधों से इतना अभिभूत क्यों है? क्या यह इस जीवन का यथार्थ है जिसका चित्रण आंचलिक उपन्यासों में हुआ है? मुझे लगता है कि हिन्दी के मध्यवर्गीय आंचलिक उपन्यासकार ने तिल जैसे यथार्थ को अपनी कुंठाओं के कारण ताड़ बना दिया है। ‘कालाजल’ के विवाहेतर यौन संबंधों के संबंध में यही सच प्रतीत होता है।’’ ( हिन्दी उपन्यास 1950 के बाद, 1987, नेशनल पब्लिशिंग हाउफस, पृष्ठ-51-52)

डाॅ. हरदयाल स्वीकारते हैं कि शानी ने यौन संबंधों का चित्रण ‘शालीनता’, ‘भावनात्मक कोमलता’ और ‘संवेदनशीलता’ के साथ अंकित किया है मगर ‘तिल जैसे यथार्थ को अपनी कुंठाओं के कारण ताड़ बना दिया है।’ क्या सिर्फ ‘आंचलिक उपन्यासकार ( ही) विवाहेतर यौन संबंधों से इतना अभिभूत हैं? अगर हां तो क्यों हैं? इस बेबुनियादी आरोप को सिद्ध करने के लिए डा. हरदयाल के पास कोई प्रमाण, आधार या आंकड़ा नहीं। हिन्दी उपन्यासों का पूरा इतिहास वो जानबूझ कर भूल जाते हैं या सचमुच अनभिज्ञ हैं? भारतीय सभ्यता-संस्कृति के ऐतिहासिक अतीत से लेकर वर्तमान तक में, विवाहेतर ( प्रेम) संबंधों की ‘महागाथाओं’ की कैसे और
क्यों याद नहीं आ रही? शानी की शालीनता, भावनात्मक कोमलता और संवेदनशीलता को रेखांकित करने के बावजूद वे यौन संबंधों के चित्रण का कारण शानी की ‘अपनी कुंठाओं’ को मानते हैं। क्यों? क्या हैं शानी की ( यौन) कुंठाएं? कुछ तो बताएं डाक्टर साहब! चुप रहने से कैसे काम ( धंधा) चलेगा।’

कालाजल: आलोचक का दुराग्रह

आश्चर्यजनक है कि ‘हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास’ में बच्चन सिंह ‘कालाजल’ का उल्लेख तक नहीं करते। मात्र एक पंक्ति में जाने-अनजाने शानी भी शामिल हो जाते हैं। ‘‘यादव, शानी और कमलेश्वर भी श्रेणीबद्ध नहीं हैं।’’ ( पृष्ठ-523) इससे पहले ( पृष्ठ-522) ‘आधा गांव’ और ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ के बारे में एक-एक पैराग्राफ ( 18 पंक्तियां) लिखना नहीं भूलते। इसे हिन्दी साहित्य का ‘दुर्भाग्य’ कहें या विद्वान आलोचक का दुराग्रह? अनभिज्ञ तो नहीं ही कहाµ माना जा सकता, क्योंकि शानी के नाम से इतिहासकार अच्छी तरह परिचित हैं। खैर… जो विद्वान आलोचक-इतिहासकार ‘बेघर’ को ‘संभोगवादी उपन्यास’ और ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ को ‘संभोग का पारदर्शी शीशा’ समझता हो, उनसे और क्या अपेक्षा की जा सकती है।

कालाजल: विभाजन, मुस्लिम और…

इसी क्रम में उल्लेखनीय है कि ‘विभाजन, इस्लामी राष्ट्रवाद और भारतीय मुसलमान’ ( तद्भव 5) नामक लम्बे लेख में वीरेन्द्र यादव के संदर्भ ‘आधा गांव’, ‘उदास नस्लें’, ‘आग का दरिया’ व ‘धाको की वापसी’ तक ही सीमित रहते हैं और वे ( भी) ‘कालाजल’ का जिक्र तक नहीं करते। ‘भारतीय मुसलमान’ की उलझन व ‘भारत विभाजन की गुत्थी’ को समझने-समझाने के महत्वाकांक्षी प्रयास में वीरेन्द्र यादव ‘झूठा सच’ ( यशपाल), ट्रेन टू पाकिस्तान ( खुशवंत सिंह), ‘तमस’ ( भीष्म साहनी), ‘आजादी’ ( चमन नाहल) व ‘दि आइस कैंडी मैन’ ( बप्सी सिधवा) तक की खोज-बीन तो करते हैं, मगर ( कालाजल) शानी कहीं नजर ही नहीं आते। हालांकि मैं खुद भी मानता हूं कि ‘कालाजल’ मूलतः भारत विभाजन को लेकर लिखा उपन्यास नहीं है। भारत विभाजन और भारतीय मुसलमान के अंतर्द्वन्द्व संबंधी अध्याय को मैं ‘कालाजल’ का अनावश्यक अध्याय ही मानता हूं, परन्तु मेरा मानना है कि इस संदर्भ में भी ‘भारतीय मुसलमान की उलझन और भारत की विभाजन की गुत्थी’ का मूल बीज ‘कालाजल’ में ही दबा है, जो बाद के उपन्यासों में विस्तार पाता है। इस विषय पर तमाम चिंताओं और चिंतन या उलझन और अन्तद्र्वंद की आधारभूमि ‘कालाजल’ ही है। ‘कालाजल’ में मोहसिन बब्बन से कहता है ‘‘तुम ताज्जुब न करना, अगर कहूं कि मुझे इस देश प्रेम में बिल्कुल विश्वास नहीं रहा। वह तो अम्मी की वजह से बंधा बैठा हूं। मेरा वश चले तो इसी पल यहां से भाग निकलूं…’’ ( पाकिस्तान, पृष्ठ-290) बब्बन को समझाता है ‘‘बल्कि मेरी मानो तो तुम्हें भी यही सलाह दूंगा। बब्बन तुम तो यहां बेकार पड़े हो। यहां जिन्दगी भर बीच के आदमी
बने रहोगे, न इधर के, न उधर के। तुम्हारे-जैसा आदमी वहां पता नहीं कहां-से-कहां पहुंच जाए…’’ मोहसिन बोलता रहता है ‘‘मैं जानता हूं तुम्हें लगता होगा कि मैं बक रहा हूं या यह कि मेरी बातों से साम्प्रदायिकता की बू आती है… पर अपने को अच्छी तरह टटोलकर देखो तो तुम खुद स्वीकार करोगे। क्या हम सब लोग यहां लादे हुए मुगालते में नहीं जी रहे? और जिसे तुम राष्ट्रीयता और ईमानदारी समझ रहे हो, क्या वह सिर्फ मजबूरी नहीं है?’’ ( पृष्ठ-290) बब्बन हंसते हुए कहता है ‘‘…ऐसे ही ख्याल पूरी कौम को बदनाम करते हैं। छिः छिः, तुम तो यूं कह रहे हो, जैसे वहां कोई जादू का करिश्मा होता है।’’ बब्बन याद करता है ‘‘कुछ हमदर्दों ने दबी जबान में ( अब्बा को) समझाया तो बोले कि मरना-कटना होगा तो यहीं मर-कट जाएंगे, बुढ़ापे में मिट्टी खराब करने कहां जाएं? और उसी के साथ वाला वह दौर, जब हम सब शक की नजर से देखे जाते थे। स्कूल में लड़के हम लोगों को देखकर ताने कसते कि ‘भेजो सालों को पाकिस्तान, बांधों सालों को जिन्ना साहब की दुम से…’ और मुझे तब यह सोचकर रोना आता था कि लोग हमें बेईमान क्यों समझते हैं। हमारा दोष क्या सिर्फ यही है कि हमने मुस्लिम परिवार में जन्म लिया है?’’ ( पृष्ठ-291) काफी बहस के बाद अन्ततः बब्बन ने कहा ‘‘चलो, अच्छा है, जाना ही चाहते हो तो, अभी न सही, फू फी को दफन करके चले जाना। लेकिन पाकिस्तान पहुंचने के बाद भी अगर तुम्हें लगा कि ठग गए, तो फिर कहां जाओगे-अरब या ईरान ( पृष्ठ-291)

स्त्री के सम्मान में पढ़ा गया फातिहा

कालाजल’ निम्नमध्यमवर्गीय मुस्लिम समाज का पहला प्रामाणिक दस्तावेज है जिसमें उनकी त्रासदी, मानसिकता, संस्कृति और संकट अपनी संपूर्णता और गहनता में उद्घाटित होते हैं। यह अपने समय के समाज और संस्कृति में निरंकुशतावादी परिवार संरचना को देखने-समझने-परखने का दुःसाध्य रचनाकर्म है। अपने समाज में स्त्रियों की ( यौनार्थिक) स्थिति को रेखांकित करने की सृजनशीलता का ही परिणाम है- ‘कालाजल’। लिंग पूर्वाग्रहों ( दुराग्रहों) से मुक्त और मानवीय संवेदनाओं से भरा-पूरा हुए बिना, ‘कालाजल’ की कल्पना तक असंभव है। स्त्री पात्रों की आत्मा में गहरे उतरने और उनकी पीड़ा को अपनी ही पीड़ा मानने-स्वीकारने की सहजानुभूति, दुर्लभ ही नहीं बल्कि अकल्पनीय सी लगती है। उपन्यास में चारों तरफ से बंद परिवार-परंपरा और संस्कारों में कैद स्त्री द्वारा सांस लेने की भयावह छटपटाहट है। अदृश्य हत्यारे आसपास ही चक्कर काट रहे हैं और दूर-दूर तक पितृसत्ता के हिंसक प्रेतों का आतंक, भीतर-बाहर उनका पीछा करता ( घूमता) रहता है। ( यौन) हिंसा की शिकार स्त्रियों की आत्मा की शांति ही नहीं, बल्कि गरिमा और सम्मान में पढ़ा गया फातिहा है – ‘कालाजल’।

अरविंद जैन, दिसंबर 28, 2016

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