शानी की मानी : ज़ाहिद ख़ान

शानी के मानी यूँ तो दुश्मन होता है और गोयाकि ये तख़ल्लुस का रिवाज ज्यादातर शायरों में होता है। लेकिन शानी न तो किसी के दुश्मन हो सकते थे और न ही वे शायर थे। हाँ, अलबत्ता उनके लेखन में शायरों सी भावुकता और काव्यत्मकता ज़रुर देखने को मिलती। शानी अपने लेखन में जो माहौल रचते, उससे ये अहसास होता कि कवि हृदय हुए बिना ऐसे जानदार माहौल की नक्काशी मुमकिन नहीं। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं छठवे-सातवें दशक के प्रमुख कथाकार गुलशेर ख़ान की, जिन्हें हिन्दी कथा साहित्य में सिर्फ उनके उपनाम शानी के नाम से जाना-पहचाना जाता है। अपने बेहतर लेखन में मध्यम, निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम समाज का यर्थाथपरक चित्राण करने वाले शानी पर ये इल्जाम आम था कि उनका कथा संसार हिंदुस्तानी मुसलमानों की जिंदगी और उनके सुख-दुख तक ही सीमित है। और हाँ, शानी को भी इस बात का अच्छी तरह से एहसास था। अपने आत्मकथ्य में शानी इसके मुताल्लिक लिखते हैं-”मैं बहुत गहरे में मुतमईन हूँ कि ईमानदार सृजन के लिए एक लेखक को अपने कथानक अपने आस-पास से और खुद अपने वर्ग से उठाना चाहिए।” जाहिर है कि शानी के कथा-संसार में किरदारों की जो प्रमाणिकता हमें दिखाई देती है, वह उनके सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की वजह से ही है।
 

शानी के कालजयी उपन्यास ‘काला जल’ की सल्लो आपा, संस्मरण ‘शाल वनों का द्वीप की’ रेको, हो या फिर ‘जनाजा’, ‘युद्ध’ कहानी का वसीम रिजवी ये किरदार पाठकों की याद में गर आज भी बसे हुए हैं, तो अपनी विश्वसनीयता की वजह से। शानी ने इन किरदारों को सिर्फ गढ़ा नहीं है, बल्कि किरदारों में जो तपिश दिखाई देती है, वह उनके तजुर्बे से मुमकिन हुई है। ‘काला जल’ की सल्लो आपा को तो कथाकार राजेन्द्र यादव ने हिन्दी उपन्यासों के अविस्मरणीय चरित्रों में से एक माना है। हिन्दी में मुस्लिम बैकग्राउंड पर जो सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ लिखी गई हैं, उनमें ज्यादातर शानी की हैं। युद्ध, जनाज़ा, आईना, जली हुई रस्सी, नंगे, एक कमरे का घर, बीच के लोग, सीढ़ियां, चहल्लुम, छल, जगह दो रहमत के फरिश्ते आएँगे, शर्त का क्या हुआ, एक ठहरा हुआ दिन, एक काली लड़की, एक हमाम में सब नंगे वगैरह कहानियों में शानी ने बंटवारे के बाद के भारतीय मुस्लिम समाज के दुख-तकलीपफों, डर, भीतरी अंतर्विरोधों, यंत्राणाओं और विसंगतियों को बड़ी ही खूबसूरती से दर्शाया है। शानी की कहानियों में प्रमाणिकता और पर्यवेक्षित जीवन की नक्काशी है। लिहाजा, ये कहानियाँ हिन्दी साहित्य में अलग ही मुकाम रखती हैं। उन्होंने वही लिखा, जो देखा और भोगा। पूरी साफगोई, ईमानदारी और सच्चाई के साथ, वह सब लिखा जो, अमूमन लोग कहना नहीं चाहते। भाषा इतनी सरल और सीधी कि लगता है, मानो लेखक खुद पाठकों से सीधा रू-ब-रू हो। कोई भी विषय हो, वे उसमें गहराई तक जाते थे और इस तरह विश्लेषित करते थे, जैसे कोई मनोवैज्ञानिक मन की गुत्थियों को परत-दर-परत उधेड़ रहा हो।

16 मई 1933 को बस्तर जैसे धुर आदिवासी अंचल के जगदलपुर में जन्मे शानी को बचपन से ही पढ़ने का बेहद शौक था। पाठ्यपुस्तकों की बजाय उनका मन साहित्य में ज्यादा रमता था। कहानी और उपन्यास पढ़ने का चस्का शानी को अपनी विरासत में मिला। उनके बाबा पढ़ने के शौकीन थे। बचपन में बाबा के लिए लाईब्रेरी से किताबें लाना और जमा करना शानी के जिम्मे था। किताबें लाने-ले जाने के सफर में, वे कब उनकी साथी हो गईं, शानी को मालूम ही नहीं चला। किताबों का ही नशा था, कि वे अपने स्कूली दिनों में बिना किसी प्रेरणा और सहयोग के एक हस्तलिखित पत्रिाका निकालने लगे थे। बहरहाल, बचपन का यह जुनून शानी की जिंदगी की किस्मत बन गया। शानी ने खुद इस बारे में एक जगह लिखा है-”जो व्यक्ति सांस्कृतिक, साहित्यिक या किसी प्रकार की कला संबधी परंपरा से शून्य बंजर सी धरती बस्तर में जन्मे, घोर असाहित्यिक घर और वातावरण में पले-बड़े, बाहर का माहौल जिसे एक अरसे तक न छू पाए, एक दिन वह देखे कि साहित्य उसकी नियति बन गया है।”

जवान होते ही शानी का साबका जिंदगी की कठोर सच्चाईयों से हुआ। निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म और पढ़ाई पूरी नहीं करने के चलते उनकी शुरुआती जिंदगी बेहद संद्घर्षमय गुजरी। जीवन के अस्तित्व के लिए उन्होंने कई नौकरियाँ बदलीं। मगर जिंदगी की कश्मकश के इस दौर में भी अदब से उनका नाता बरकरार रहा। शानी की अच्छी कहानियां और उपन्यास का जन्म प्रतिकूल हालात में हुआ। शानी का पहला कहानी संग्रह बबूल की छाँव 1958 में आया था।  कहानी संग्रह ‘डाली नहीं फूलती-1960, छोटे घेरे का विद्रोह-1964, और उपन्यास कस्तूरी-1960, पत्थरों में बंद आवाज-1964, काला जल-1965 में आ कर धूम मचा चुके थे। यही नहीं उनका दिल को छू लेने वाला संस्मरण शाल वनों का द्वीप भी इन्हीं गर्दिश के दिनों में लिखा गया। शानी की जिंदगी में जब स्थाईत्व आया तो, कलम उनसे रूठ गई। बाद में आईं उनकी कहानी और उपन्यास वह असर, वह ताप नहीं छोड़ सके जो शुरुआती रचनाओं में था। इसकी बड़ी वजह, शानी का अपनी पुरानी रचनाओं को दोबारा पाठकों के सामने पेश करना था। उपन्यास ‘एक लड़की की डायरी’ उनके पहले उपन्यास ‘पत्थरों में बंद आवाज़’ का पुनर्विन्यास है तो ‘सांप और सीढ़ी’, ‘कस्तूरी’ का पुनर्विन्यास। यही नहीं कहानी संग्रह ‘एक से मकानों का नगर’, ‘एक नाव के यात्री’ तथा ‘युद्ध में भी उन्होंने कई पुरानी कहानियों को दोबारा शामिल किया।

शानी के लेखन का जो शुरुआती दौर था, वह हिन्दी साहित्य का काफी हंगामेदार दौर था। लघु पत्रिाकाओं से शुरू हुआ, नई कहानी आंदोलन उस वक्त अपने उरुज पर था। गोयाकि शानी का शुमार भी नई कहानी के रचनाकारों की जमात में होने लगा था। उनकी कहानियाँ कल्पना, कहानी, कृति, सुप्रभात, ज्ञानोदय, वसुधा और साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग जैसी प्रतिष्ठित पत्रिाकाओं में छपकर मशहूर हो रहीं थीं। अनुभूति की गहराई और शैली की सरलता, बोधगम्यता और प्रवाह के लिए उनकी साहित्यिक हल्के में चर्चा होने लगी थी। शानी ने कहानी में काव्यमयी भाषा के साथ तीखे व्यंग्य को अपना मुख्य हथियार बनाया। अपने आस-पास के परिवेश और व्यक्तिगत अनुभव से वे जो ग्रहण कर रहे थे, उन्होंने उसे ही कहानी का विषय चुना। शानी की कहानियों में अनुभव की जो प्रमाणिकता, प्रवाह और समर्पण के साथ एक रचनात्मक आवेग दिखाई देता है, दरअसल, वह इसी वजह से है। सुप्रसिद्ध कथाकार उपेन्द्रनाथ अश्क ने शानी की कहानियों का मूल्यांकन करते हुए लिखा है-”शानी अपनी कहानियों के आधारभूत विचार, जीवन में गहरे डूब कर लाता है और उन्हें ऐसे सरल ढंग से अपनी कहानियों में रखता है कि  मालूम ही नहीं होता और बात हृदय में गहरे बैठ जाती है।”

जिंदगी के जानिब शानी का नजरिया किताबी नहीं बल्कि अनुभव से था। यही वजह है कि वे युद्ध जनाजा, बिरादरी, जगह दो रहमत के फरिश्ते आएँगे, हमाम में सब नंगे, जली हुई रस्सी जैंसी दिलो-दिमाग को झंझोड़ देने वाली कहानियाँ और ‘काला जल’ जैसा कालजयी उपन्यास हिन्दी साहित्य को दे सके। शानी के कथा संसार में मुस्लिम समाज का प्रमाणिक चित्राण तो मिलता ही है, बल्कि हिन्दु-मुस्लिम संबधों पर भी कई मर्मस्पर्शी कहानियां हैं जो कि भुलाए नहीं भूलतीं। उनकी कहानी ‘युद्ध को तो आलोचकों ने हिन्दु-मुस्लिम संबधों के सर्वाधिक प्रमाणित और मार्मिक साहित्यिक दस्तावेज़ो में से एक माना है। समाज में बढ़ता विभाजन हमेशा उनकी अहम चिंताओं में एक रहा। शानी खुद, अपनी वास्तविक जिंदगानी में भी इन सवालों से जूझे थे। लिहाज़ा उन्होंने कई कहानियों में अंतर साम्प्रदायिक संबधों के नाजुक सवालों को बढ़ी ईमानदारी और संजीदगी से उठाया। कथानक और तटस्थ ट्रीटमेंट इन कहानियों को खास बनाता है। मसलन, कहानी युद्ध भय और विषाद के मिश्रित माहौल से शुरू होती है और आखिर में पाठकों के सामने कई सवाल छोड़ जाती है। फिर कहानी का विलक्षण अंत भला कौन भूल सकता है। शानी कहानी के अंत में किरदारों के मार्फत कुछ नहीं कहलाते और न ही अपनी ओर से कुछ कहते हैं। बस! एक लाईन में कहानी बहुत कुछ बयान कर जाती है। इस लाईन पर गौर फरमाएँ-”दालान में टंगे आईने पर बैठी एक गौरैया हमेशा की तरह अपनी परछांई पर चोंच मार रही थी।”

शानी की कहानियों के किरदार में जिस तरह की आग दिखाई देती है, वैसी आग हमें उर्दू में केवल सआदत हसन मंटो के अफसानों में ही देखने को मिलती है। शानी जज्बाती अफसानानिगार थे और उनके ये ज़ाती जज़्बात कहानी में जमकर नुमांया हुए हैं। विसंगतियों के प्रति उनका आक्रोश निजी जिंदगी में और लेखन में बराबर झलकता रहा। अपनी आत्मा के खिलाफ उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। उनकी एक और बेहद चर्चित कहानी जली हुई रस्सी में यही केन्द्रीय विचार है, जिसके इर्द-गिर्द कहानी बुनी गई है। इंसानियत और भाई-चारे को उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से आगे बढ़ाया। बिरादरी कहानी में वे बड़ा मौजू सवाल उठाते हैं-”बिरादरी केवल जात वालो की होती है? इंसानियत की बिरादरी क्यों नहीं बन सकती? और क्यों नहीं बननी चाहिए? शानी आदिवासी अंचल में पैदा हुए और उनका शुरुआती जीवन जगदलपुर में बीता लेकिन उन्होंने आंचलिक कहानियाँ सिपर्फ ५ लिखीं। ‘चील’, ‘पफांस’, ‘बोलने वाले जानवर’, ‘वर्षा की प्रतीक्षा’ और ‘मछलियाँ’ कहानियों में वे आदिवासी जीवन के अर्थाभाव, विषमताओं, पीढ़ाओं को पूरी संवेदनशीलता से उकेरते हैं। आदिवासी लोक जीवन को देखने-महसूसने की दृष्टि उनकी खुद की अपनी है।

संस्मरण ‘शाल वनों के द्वीप’ शानी की बेमिसाल कृति है। हिन्दी में यह अपने ढंग की बिल्कुल अल्हदा और अकेली रचना है। इस रचना को पढ़ने में उपन्यास और रिपोर्ताज दोनों का मजा आता है। किताब की प्रस्तावना में शानी इसे न तो यात्रा वर्णन मानते हैं और न ही उपन्यास। बल्कि बड़ी विनम्रता से वे इसे कथात्मक विवरण मानते हैं। समाज विज्ञान और नृतत्वशास्त्रा से अपरिचित होने के बावजूद उन्होंने जिस तरह मनुष्यता की पीढ़ा और उल्लास का शानदार चित्राण किया है, वह पाठकों को चमत्कृत करता है। हिन्दी साहित्य में आदिवासी जीवन को समग्रता से शायद ही किसी ने इस तरह देखा हो।

शानी के कथा साहित्य में प्रकृति का अनुपम चित्रण मिलता है। प्रकृति के माध्यम से वे मन के कई भावों को प्रकट करते हैं। कहानी ‘युद्ध’ में इसकी बानगी देखिए-”पाकिस्तान से युद्ध के दिन थे, हवा भारी थी। लोग डरे हुए और सचमुच नीमसंजीदा। क्षणों की लंबाई कई गुना बढ़ गई थी। आतंक, असुरक्षा और बैचेनी से लंबा दिन वक्त से पहले निकलता और शाम के बहुत पहले यक-ब-यक डूब जाता था। फिर शाम होते ही रात गहरी हो जाती थी और लोग अपने घरों में पास-पास बैठकर भी घंटो चुप लगाए रहते थे।” जहाँ तक शानी की भाषा का सवाल है, उनकी भाषा सरल एवं सहज है। हिन्दी में वे उर्दू-फारसी के अल्फाजों के इस्तेमाल से परहेज़ नहीं करते। स्वभाविक रूप से जो शब्द आते हैं, उन्हें वे वैसा का वैसा रख देते हैं। हिन्दी और उर्दू में वे कोई फर्क नहीं करते। इस मायने में देखें तो उनकी भाषा हिन्दी-उर्दू से इतर हिंदुस्तानी है। हिन्दी, उर्दू के झगड़े, विवादों को वे गलत मानते थे। हिन्दी-उर्दू भाषा के सवालों पर शानी का कहना था-”हिन्दी-उर्दू में मुझे कोई ज्यादा फर्क नजर नहीं आता। अलबत्ता, इसके कि यह दो विशिष्टताओं वाली भाषा हैं। मैं यहाँ जाति की बात नहीं बल्कि दो विशिष्ट संस्कृति की बात करना चाहूँगा। इनकी पैदाईश निःसंदेह हिंदुस्तान है। एक स्याह हो सकती है और दूसरी सफ़ेद, इन्हें भिन्न-भिन्न रंग दिए जा सकते हैं। आँखों में फर्क हो सकता है, कहने में फर्क को सकता है, लेकिन वे बहने हैं। वे इसी मिट्टी में उपजी हैं। यह बात जुदा है कि उनकी लिपि में फर्क है, उनके व्यवहार में भिन्न शेड्स हैं। प्रत्येक भाषा, प्रत्येक जनसमुदाय और प्रत्येक मानसिकता का एक अपना विन्यास होता है। इन दोंनो भाषाओं में यह विन्यास मौजूद है, यह मेरी अपनी समझ है। लेकिन ये एक दूसरे के बहुत समीप है।”

शानी ने कुल मिलाकर 4 उपन्यास लिखे-‘कस्तूरी’, ‘पत्थरों में बंद आवाज’, ‘काला जल’, और ‘नदी और सीपियां’। कस्तूरी बाद में  ‘सांप और सीढ़ी’ और  ‘पत्थरों में बंद आवाज़’ ‘एक लड़की की डायरी के नाम से आए।’ इनमें ‘काला जल’ उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति है। भारतीय मुस्लिम समाज और संस्कृति को बेहतर समझने के लिए जिन ३ उपन्यासों का ज़िक्र हिन्दी साहित्य में अक्सर किया जाता है, ‘काला जल’ उनमें से एक है। इस उपन्यास को पाठकों और आलोचकों ने एक सुर में सराहा। शानी के जिगरी दोस्त आलोचक धनंजय वर्मा ने काला जल का मूल्यांकन करते हुए लिखा है-”काला जल हिन्दी कथा परंपरा की व्यापक सामाजिक जागरूकता और यथार्थवादी चेतना की अगली और नई कढ़ी के रुप में उल्लेखनीय है। वह अतीत-वर्तमान-भविष्य संबंधों का एक महा नाटक है। जिसका रंगमंच है-एक मध्यवर्गीय भारतीय मुस्लिम परिवार। एक विशाल पफलक पर यह सामाजिक यथार्थ का गहरी सूझ-बूझ और पारदर्शी अनुभूति के साथ मार्मिक अंकन है। पूरा उपन्यास आधुनिक भारतीय जीवन के विविध स्तरीय संद्घर्षों का चित्रा है, जो अपनी द्घनीभूत और केन्द्रीय संवेदना में भारतीय जनता के आर्थिक और भौतिक संद्घर्ष का दस्तावेज़ है, जिसका कथा सूत्रा समाज की तीन-तीन पीढ़ियों का दर्द समेटे है।” काला जल की व्यापक अपील और लोकप्रियता के चलते ही इस पर बाद में टी.वी. धारावाहिक बना, जो उपन्यास की तरह ही कापफी मकबूल हुआ। उपन्यास का भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी और रुसी भाषा में भी अनुवाद हुआ।

शानी के कई कहानी संग्रह आए मसलन, ‘बबूल की छाँव’, ‘एक से मकानों का द्घर’, ‘युद्ध’, ‘शर्त का क्या हुआ’, ‘बिरादरी’, ‘सड़क पार करते हुए’, ‘जहांपनाह जंगल’, मेरी प्रिय कहानियाँ। शानी की संपूर्ण कहानियाँ सब एक जगह संग्रह में २ खंडो में संकलित हैं। एक शहर में सपने बिकते हैं शानी का निबंध संग्रह है। इस बात का बहुत कम लोगों को इल्म होगा कि सदाबहार फिल्म शौकीन के संवाद भी शानी के लिखे हुए हैं। शानी अपनी आत्मकथा भी लिखना चाहते थे, मगर वह अधूरी ही रह गई। अलबत्ता, आत्मकथा का एक हिस्सा सारिका में ‘गर्दिश के दिन’ नाम से प्रकाशित हुआ। शानी ने कथा साहित्य के अलावा साहित्यिक पत्राकारिता भी की और यहाँ भी वे कामयाब रहे। साक्षात्कर, समकालीन भारतीय साहित्य पत्रिकाओं के वे संस्थापक संपादक थे। अपने समय की महत्वपूर्ण पत्रिका कहानी का भी उन्होंने संपादन किया। शानी जब तलक साक्षात्कार में रहे, पत्रिाका का नाम देश में चर्चित रहा। अपने संपादन में उन्होंने नए रचनाकारों को हमेशा तवज्जो दी। नए हों या पुराने सभी रचनाकारों से उनका सामंजस्य बहुत अच्छा था। साहित्य पत्रकारिता से होते हुए वे मध्यप्रदेश साहित्य परिषद् के सचिव पद पर पहुँचे। साल 1972 से लेकर मार्च 1978 तक वे इस पद पर लगातार रहे। इस दौरान परिषद् में उन्होंने कई नवाचार किए, नई योजनाएँ बनाई और उन्हें तत्परता से लागू किया।

बहरहाल, शानी की जिंदगी में साहित्य का मुकाम बहुत ऊंचा था। उन्होंने अपनी सारी जिंदगानी, हिन्दी साहित्य के नाम कर दी तो, साहित्य ने भी उन्हें सब कुछ दिया। शानी की कई कहानियों का आकाशवाणी द्वारा नाट्य रुपांतरण किया गया। दिल्ली दूरदर्शन ने उन पर ४५ मिनिट का एक वृतचित्रा बनाया। मध्यप्रदेश सरकार ने उनके साहित्यिक अवदान का मूल्यांकन करते हुए, अपने सर्वोच्च सम्मान शिखर सम्मान से नवाजा। शानी की कई कहानियाँ विश्वविधालय के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं। 10  फरवरी 1995 को शानी इस जहान से रुख़सत हुए। शानी के मानी भले ही दुश्मन हो, लेकिन वे सही मायने में अवाम दोस्त लेखक थे। उनके संपूर्ण कथा साहित्य का पैगाम इंसानियत और मुहब्बत है। हिन्दी कथा साहित्य में इंसानी ८ाज्बात को पूरी संवेदनशीलता और ईमानदारी से पेश करने के लिए शानी हमेशा याद किए जाएँगे।

 

One Response

  1. Ajay bhagat Says:

    मुझे शालवनों का द्वीप पुस्तक चाहिए और कहाँ से मिलेगा

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