कभी-कभार : शानी रचनावली

कभी-कभार : शानी रचनावली

अशोक बाजपेयी

कथाकार-गद्यकार-संपादक शानी के देहावसान को बीस बरस से अधिक हो चुके। वे बस्तर के जगदलपुर से ग्वालियर और भोपाल, भोपाल से दिल्ली आए थे। उनका अधिकांश लेखन इन्हीं जगहों पर हुआ। उन्हें उचित ही यह क्लेश बराबर बना रहा कि वे बराबर विस्थापित होते रहे: उनका यह विस्थापन इसलिए और मार्मिक हो जाता है कि वे एक आदिवासी अंचल में पले-बढ़े थे और बहुत कठिन संघर्ष उनका लगभग स्थायी भाव रहा। यह संघर्ष सिर्फ जीविका या भौतिक स्तर पर नहीं था: वह अपनी शर्तों पर अपने सच पर जिद कर अड़े-बने रहने वाले लेखक का भी संघर्ष था। अगर उनका स्वभाव जिद्दी और स्वाभिमानी होने के साथ-साथ जब-तब उग्र हो जाता था तो उसका पर्याप्त औचित्य था।

शानी के विपुल साहित्य को यतन और समझ से, जिम्मेदारी और लगन से एकत्र और संपादित कर हिंदी के बिरले उर्दूविद् जानकीप्रसाद शर्मा ने छह खंडों में ‘शानी रचनावली’ शिल्पायन से प्रकाशित की है। इस प्रशंसनीय प्रकाशन से शानी की साहित्यिक प्रतिभा, उनकी शिल्प-क्षमता और नवाचार, उनकी बेचैनियों और सरोकारों, उनकी दृष्टि और अचूक सामाजिकता के समूचे रेंज को देखा-परखा जा सकेगा। यह भी देखा जा सकता है कि साठ से कुछ अधिक बरस की ही उम्र पाए इस लेखक ने कितने स्तरों पर, भयंकर कठिनाइयों में, अपनी भाषा, अपने रूपाकार और अपनी दृष्टि आदि अर्जित किए। उनके उपन्यास, कहानियां, लेख, संपादकीय, पत्र आदि के साथ-साथ कई पहले न देखे गए छायाचित्र इस रचनावली को बहुत पठनीय और संग्रहणीय बनाते हैं।
शानी को कहानी कहना, चरित्र गढ़ना, घटना का सटीक ब्योरों में बयान करना, अपने रुख को रचना पर लादने के बजाय उसे खुद अपना रुख जाहिर करने की छूट आदि देने का हुनर आता था। उन्होंने ऐसा कुछ भी शायद कभी नहीं लिखा, शुरुआती दौर से आखिरी परिपक्व चरण तक, जो मुंहमिल हो या जिसमें पठनीयता का गुण न हो। शानी को एक अच्छे लेखक की तरह पता था कि कितना और क्या कहना चाहिए, और कितने और क्या को पाठक की कल्पना और समझ के लिए छोड़ देना चाहिए।

लेखक होने के साथ-साथ शानी एक बहुत संवेदनशील-सजग संपादक भी थे। एक ऐसे दौर में जब अनेक कथाकारों को अनेक कारणों से कविता से चिढ़ होती थी, शानी कविताप्रेमी कथाकार और संपादक बने रहे। मध्यप्रदेश साहित्य परिषद की पत्रिका ‘साक्षात्कार’ और साहित्य अकादेमी की पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ के वे संस्थापक-संपादक थे और उस नाते उन्होंने बहुत सारे नए-युवा लेखकों को खोजा और जगह दी। ऐसे लेखक कम नहीं होंगे, जो इस प्रोत्साहन के लिए शानी को आज कृतज्ञतापूर्वक याद करते होंगे। वे ऐसे लेखक-संपादक थे जो अनेक युवतर लेखकों के लिए महत्त्व रखते थे। सांस्कृतिक विस्मृति के विराट नियोजन के समय यह रचनावली हमें कुछ उजला-सच्चा याद करने का एक मुकाम देती है।

यह लेख दैनिक हिंदी जनसत्ता में 17 मई 2016 को प्रकासित हुआ था।

Leave a Comment

Please note: Comment moderation is enabled and may delay your comment. There is no need to resubmit your comment.