शानी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बहुत कुछ कहा जा चुका है, बहुत कुछ प्रकाशित हो चुका है, अतः उन्हीं बातों का दोहराव न करते हुए मैं मात्र उनके जीवन के दो अनजाने प्रसंगों का उल्लेख करने की इजाज़त चाहता हूँ, जो केवल यह दर्शाते हैं कि दुनिया में, इस मतलबी दुनिया में सीधे-सादे इंसानों का किस तरह शोषण होता है बल्कि यह भी इन प्रसंगों से जाहिर होता है कि स्वर्गीय शानी जी कितने भले, ईमानदार, उदार हृदय और पवित्र आत्मा के स्वामी थे, जिसकी कोई सीमा नहीं।
यहाँ सर्वप्रथम मैं आप सबको यह बात देना आवश्यक समझता हूँ कि ‘बस्तर बन्धु’ तथा अन्रू अनके अखबारों से संबंधित होने के कारण मैंने जगदलपुर और बस्तर अंचल को बहुत देखा है। अबूझमाड़ से भी परिचित हूँ जहाँ शानी जी ने लंबे अरसे तक रहकर आदिम संस्कृति का अध्ययन किया था, जो ‘शाल वनों के द्वीप के नाम से पुस्तक रूप में, एक ज्ञानवर्धक पुस्तक के रूप में उललब्ध है। मैं काँकेर से हूँ, जहाँ शानी जी की छोटी बहन श्रीमती जेहरा अशरफ अली भी रहती हैं। उनके स्वर्गीय पति अशरफ अली गुरुजी (प्राथमिक शिक्षा के दौरान शास. प्रेक्टीसिंग शाला काँकेर में वे मेरे भी गुरु रहे हैं) भी साहित्यकार, संगीतकार और कलाकार, संक्षेप में कहें तो आल राउंडर थे। उनकी ‘बादल’ शीर्षक कविता की प्रशंसा स्व. बच्चन जी ने की थी।
जगदलपुर का मोती तालाब पारा में यानी दलपत सागर के किनारे ही शानी जी का छोटा सा कच्चा-पक्का मकान था। ऐसा ही छोटा सा एक कार्यालय इतवार बाजार के पास था, जहाँ अभी अनुपमा सिनेमाघर है। वह था-सूचना प्रकाशन कार्यालय, जहाँ से शानी ने क्लर्क टाइपिस्ट के तौर पर सरकारी नौकरी की शुरुआत की, जो कि ग्वालियर, भोपाल, दिल्ली तक भी किसी न किसी रूप में चलती रही। उस समय उनकी मित्र मंडली में गिनती के लोग ही थे। इन थोड़े से ही मित्रों में दो ऐसे मित्रघाती निकल गए जिनकी वजह से शानी जी को अत्यधिक तनाव और अपमान झेलना पड़ा था कि वे बीमार रहने लगे थे और कचहरी का चक्कर देखने के बाद तो वे सदमे में आ गये थे जिसकी याद उन्हें जीवन पर्यन्त बनी रही लेकिन शुद्ध हृदय वाले शानी जी ने कभी बदले की कार्यवाही करने की बात भी नहीं सोची न मित्रता ही तोड़ी बल्कि खामोशी से इन मित्रघातियों को झेलते रहे।
किस्सा यह था कि उन दिनों शानी जी का स्थानांतरण ग्वालियर हो चुका था। उन पर जगदलपुर में माता-पिता तथा ग्वालियर में स्वयं के परिवार की दोहरी जिम्मेदारी आ गई थी, जिसके कारण उनके आगे अर्थ संकट उत्पन्न हो गया था। इससे उबरने के लिए शानी जी ने अपने परममित्र जैन से जो कि मेडिकल स्टोर के मालिक और धनवान व्यक्ति थे उनसे एक हज़ार रुपए का कर्ज लिया था। वे बनिया महोदय परममित्र तो थे ही किन्तु उन्होंने दोस्ती से अधिक महत्व धन को दिया और रसीद लेकर तथा खाते में लिखकर ही एक हज़ार रुपये शानी जी को दिये थे। जगदलपुर तथा ग्वालियर दोनों की डबल पारिवारिक जिम्मेदारी शानी जी के ही कंधों पर थी। उनका कोई भाई होता तो कम से कम जगदलपुर की ओर से शानी जी निश्चिन्त रहते और कर्जदार नहीं बनते किन्तु जब कई माह तक वे कर्ज की रकम वापस नहीं कर पाये तो परम मित्र अचानक परम बनिया हो गये और उन्होंने जगदलपुर की अदालत में शानी जी के विरुद्ध पैसे की वसूली हेतु मुकदमा ठोंक दिया जो कि बनिया परम्परा के अनुसार ब्याज सहित, अदालती खर्च सहित ठोंका गया था। नोटिस पाकर शानी जी के होश हवास तो गुम हो ही गये होंगे लेकिन उससे भी बड़ा सदमा उन्हें तब लगा होगा जब उन्होंने देखा होगा कि वादी जैन के वकील तो और भी बड़े परममित्र खान हैं जो तथाकथित शायर भी थे और बस्तर जैसी घोर असाहित्यिक जगह में उनकी तथाकथित शायरी की भी धाक जीम हुई थी। यह जानकर शानी जी की क्या हालत हुई होगी कि दो-दो परममित्र मात्र हज़ार रुपयों के पीछे उनकी नौकरी खाने को भी तुले हुए हैं। सर्विस रूल्स शानी जी को इस बात की इजाज़त नहीं देते थे कि वे कहीं से भी कर्ज उठा सकें। नियम का उल्लंघन उन्हें पहले सस्पेन्ड फिर डिसमिस करा सकता था। शानी जी को मजबूत होकर ग्वालियर में भी किसी से उधार लेकर जगदलपुर आना पड़ा और तानों की बौछार सहते हुए दुखी अपमानित स्थिति मेें बनिये का कर्ज मय ब्याज और अदालती हर्ज-खर्च के चुकाना पड़ा। ग्वालियर आने जाने का खर्च भी सर पर पड़ा और वहाँ भी कर्जदार बने। गनीमत यही हुई कि नौकरी बच गई और दूसरे ऋणदाता ने न कभी ब्याज मांगा, न कभी कचहरी में दावा किया। उस भले आदमी का कर्ज शानी जी ने समय रहते अपने व्यक्तिगत खर्चों में कमी करके अदा कर दिया।
ऋणदाता उनका परममित्र तो नहीं था किन्तु जगदलपुर वाले दोनों मित्रघातियों की तुलना में बहुत बड़ा सज्जन सिद्ध हुआ जिसने शानी जी से मूलध नही स्वीकार किया, ब्याज नहीं। उधर जगदलपुर वाले मित्रघातियों का डबल रोल देखिये कि जब शानी जी भोपाल में ‘साक्षात्कार’ नामक शासकीय साहित्यिक पत्रिका के संस्थापक-संपादक बने और अधिकारी का दर्जा पा गये तो वे स्वार्थी लोग हर किसी से शानीजी को अपना खास दोस्त बताने लगे और उस अप्रिय मुकदमें के जिक्र से भी बचने लगे। ‘कालाजल’ धारावाहिक तथा ‘शौकीन’ फिल्म के निर्माण के पश्चात् जगदलपुर में जब शानीजी का सार्वजनिक अभिनन्दन हुआ, तब मित्रघाती वकील साहब ने शानीजी की तारीफ में इतने अधिक लेख लिखे और बयान दिये कि चापलूसी की हदें पार कर गए।
सुशील शर्मा
संपादक
बस्तर बंधु
काँकेर (बस्तर) छत्तीसगढ़
10.11.2019
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