रथ देवताओं-योद्धाओं के होते हैं:शानी

क्या उन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए कोई रथयात्रा की थी? वे तो नेहरूजी की तरह आस्तिक नहीं थे, रामपूजक थे, रामराज्य उनका आदर्श था। यही नहीं एकता, सद्भाव और साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए आखिर उन्होंने अपने को राम के नाम के साथ शहीद कर दिया था।

रथ देवताओं और योद्धाओं के होते हैं। क्या आपने गाँधी जी का रथ देखा या सुना है क्या उनके किसी भी देशव्यापी अभियान में उन्हें खून से तौला गया था क्या देश के लिए मरने-मारने पर उतारू उनके साथी त्रिशूल, तलवार, बल्लम, भाले लेकर चलते थे? क्या तुलसी, कबीर या नानक के अपने कोई रथ थे? क्या तुलसी और राम भक्त सन्त जिनमें इतना साहस था कि वे बादशाह के निमन्त्रण को ठुकरा कर कहें.सन्तन को कहं सीकरी सो काम। कभी अपने आराध्यदेव राम के जन्मस्थान पर उनके मन्दिर के नष्ट किए जाने के बारे में चुप रह सकते थे उन्होंने हनुमान जी का तो मन्दिर बनवाया था, राम का क्यों नहीं यह भी विचारणीय है कि देश की जातीय संस्कृति में शैव और वैष्णव मन्दिरों की अपेक्षा राम मन्दिर की परम्परा क्यों नहीं है और अगर है, तो कितनी पुरानी है। क्या स्वयं तुलसी के अपने आराध्यदेव राम जब रावण के विरुद्ध युद्ध के लिए जाते हैं, तो किसी राजरथ का सहारा लेते हैं? अगर ऐसा होता तो वे रामचरित मानस में यह न कहते.

रावण रथी विरथ रघुवीरा।

देख विभीषण भये अधीरा ॥

सच तो यह है कि आडवाणी जी का रथ ‘राम’ के लिए नहीं, ‘राज’ के लिए है, अन्यथा वे याद रखते कि जिनके नाम से वे लाखों लोगों का खून खतरे में डाल रहे हैं, वे भगवान राम.रावण जैसे अन्यायी शत्रु से युद्ध के लिए रथ में नहीं.पैदल गए थे। रथ में तो रावण था।

दिल्ली राजधानी ही नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक नगरी है, बल्कि यह इतिहास रचने वाला शहर है। यहाँ जो कुछ घटता है उसका प्रभाव पूरे देश पर पड़ता है, आप कोई भी उदाहरण ले लीजिए, आरक्षण को ही ले लीजिए। यहाँ उसकी शुरुआत हुई और फिर पूरे देश में आग लग गई। मन्दिर-मस्जिद के झगड़े कस्बों, शहरों में वर्षों से होते आए हैं। बावजूद इसके आडवाणी जी यह सही बात कहते हैं कि यह मन्दिर-मस्जिद का विवाद नहीं है। जहाँ मन्दिर है ही नहीं तो वहाँ राम नहीं और जहाँ इबादत नहीं होती, वहाँ अल्लाह नहीं। यह तो महज इज्जत और खुद्दारी की लड़ाई है।

लेकिन जो भी लड़ाई है, वह देखते-देखते पिछले तीन-चार सालों में जो पहले हाशिये पर पड़ा हुआ था, जिसके बारे में लोगों को पता भी नहीं था, अचानक उसने केन्द्रीय शक्ल ले ली और आज पूरा देश सकते में पड़ा हुआ है। इससे पूरे देश की एकता, उसका भावनात्मक सौहार्द, सद्भाव, देश का संविधान और धर्मनिरपेक्षता खतरे में है।

दिल्ली में यह होना मुझे इसलिए भी विडम्बनापूर्ण लगता है कि दिल्ली ऐसा शहर है, जहाँ एक तरफ सुलतान सोए हुए हैं, और दूसरी तरफ सन्त सोए हुए हैं। मैं समझता हूँ कि समन्वयवादी संस्कृति का यह प्रतीक शहर है। दूसरी जगहों में चाहे यह किस्से-कहानियों में नजर आए या एक-दूसरे को लोग याद कराते रहें कि हम एक हैं, लेकिन यहाँ अगर

निजामुद्दीन औलिया की दरगाह है, तो शीशगंज का गुरुद्वारा भी है, जामा मस्जिद भी है और गौरीशंकर मन्दिर भी है। यह सबका ऐसा केन्द्र है कि आँख खोलने वाली चीज है। सुलतानों को याद करने वाला कोई नहीं है। उनकी कब्र में कोई चिराग जलाने वाला नहीं है, लेकिन फकीरों और सन्तों के मकबरों पर आज भी मेले लगते हैं।

मैं समझता हूँ कि अगर आसमान में खुदा और भगवान एक साथ रह सकते हैं, तो राम का मन्दिर और मस्जिद क्यों नहीं रह सकते? यह  बड़ी भावनात्मक बात लगती है, बहुत से ऐसे शहर हैं, जहाँ खाना-बखाना है दोनों में, वह एक अद्भुत मिसाल है। देखा जाए, तो मेरी बौद्धिकता मुझसे यह कहती है कि वह मन्दिर है न मस्जिद, बल्कि वह राष्ट्रीय सम्पत्ति है। इसे संग्रहालय बना देना चाहिए, जिससे राष्ट्र की एकता-सद्भावना, संविधान और धर्मनिरपेक्षता को चोट लगती हो, राष्ट्रहित में जरूरी है कि हम अपने धर्म को उस मुद्दे से हटाएँ। यह सोचने की बात है कि दीवारों में अल्लाह नहीं रहता, वह दिलों में रहता है अगर ऐसा है तो झगड़ा कैसा मस्जिद अल्लाह की इबादत के लिए होती है, वह अल्लाह का घर नहीं है और जहाँ इबादत हुई ही नहीं है, तो उसके लिए मरना-मारना कैसा?

दिल्ली में आडवाणी की रथ यात्रा आई, यह तो आज की बात है। लेकिन इसके आने से पहले ही दिल्ली में ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई कयामत बरपा होने वाली है। इसका तनाव माहौल में बहुत दिनों से रहा ही है, मगर जैसे-जैसे आडवाणी के रथ का दिल्ली में आने का वक्त नजदीक चला आ रहा था वैसे-वैसे चीजें और अधिक तनावपूर्ण और विस्फोटक होती जा रही थीं, तब भी लोगों को लग रहा था कि शायद कोई ऐसी सूरत बनेगी, जिससे चीजें ऐन वक्त पर ठीक हो जाएँ।

मेरा जो आसपास का अनुभव है उसके आधार पर ही मैं कुछ कहूँगा। मैं पूर्वी दिल्ली में रहता हूँ। यहाँ त्रिलोकपुरी, मंगोलपुरी, खुरेजी, कोंडली आदि में कारीगर, मजदूर किस्म के लोग रहते हैं। यहाँ के कुछ मुसलमान मेरे पास आते रहते हैं। कुछ मेरे यहाँ काम भी करते हैं। कल मैं उनसे बात कर रहा था। मैंने पाया कि उनमें तनाव का जो हाल है, वह बहुत बुरा है। लोगों ने 15-20 दिन पहले से राशन वगैरह का इन्तजाम कर लिया था। लोगों में यह भय घर कर गया था कि अल्ला जाने क्या होगा। यह जो दहशत है, यह एक खतरनाक स्थिति का संकेत करती है। इलाकों में जैसा पोस्टरों का बाँटा जाना, इस्लामी लश्कर का बनना, यह हैरतनाक स्थिति को पैदा कर रहा है। यह क्या संकेत करता है?

मैं समझता हूँ कि धर्म का मर्म जो लोग जानते हैं चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान और या अन्य कोई समुदाय है, उनमें धार्मिक उन्माद नहीं होता। इसी तरह आम नागरिक चाहे वह किसी भी समुदाय का हो, आमतौर पर वह शान्तिप्रिय होता है। वह एक-दूसरे के मजहब के प्रति सम्मान भाव तो रखता ही है यह भी जानता है कि सारे रास्ते एक ही मंजिल की तरफ जाते हैं और इसके साथ सूफियों, सन्तों और दानिशमन्दों की सैंकड़ों वर्षों की परम्परा रही है।

जब-जब धर्म को अकीदे और आस्था के दायरे से अपने इस्तेमाल के लिए तस्करी किया जाता है तब वह समाज में कहर बरपा करता है। ये तस्कर दो तरह के लोग होते हैं.सियासतदान और कट्टरपन्थी एवं कठमुल्ले। सियासतदान.अपने फायदे के लिए राष्ट्रीयता के मुखौटे पहन लेते हैं और कट्टरपन्थी तथा कठमुल्ले मजहब और ईमान के और तब मेरठ, मलियाना, भागलपुर, गोंडा, उदयपुर, बड़ौदा और कर्नाटक के हादसे होते हैं। क्या हम रथयात्रा से देश के हर शहर और कस्बे को इन अनुभवों में फिर-फिर ढकेलना चाहते हैं?

देश के लिए वे परिस्थितियाँ मेरी समझ से बहुत दुर्भाग्यपूर्ण थीं, जिन्होंने रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को जन्म दिया और उससे भी ज्यादा वे परिस्थितियाँ, जिन्होंने भारतीय जनता पार्टी को रथयात्रा के लिए उकसाया और अब सारा देश बेहद आतंकित और आशंकित है। नेता कुछ भी कहते रहें, लेकिन सच कौन नहीं जानता कि यह रथयात्रा राम के लिए नहीं, बल्कि राज्य के लिए निकली हुई है।

मैं समझता हूँ कि इस तरह की तमाम हरकतें दंगों और तनाव को जन्म देती हैं। मेरे पड़ोस में ही त्रिलोकपुरी पड़ता है। जहाँ दो-तीन महीने पहले ही खतरनाक किस्म का एक फसाद हुआ था, जिसे दबा दिया गया। वह दब तो गया, मगर अन्दर-अन्दर सुलगता रहा। आज वे लोग जो दुबके हुए हैं। मौका पाकर उभर सकते हैं। एक दफे दिल्ली के किसी भी कोने में इस तरह की चीजें होती हैं, तो क्या वे यहाँ के सारे जन-जीवन को अस्त-व्यस्त नहीं करतीं

यह मान लेना बहुत भोलापन होगा कि हिन्दू-मुस्लिम सैंकड़ों वर्षों से भाई-भाई की तरह रहते हैं। यह बहुत ज्यादा सही नहीं है। असल में यह केवल सतही सच्चाई है। एक जाति, जिसको कुचलती हुई दूसरी जाति आई क्या उससे भाई-भाई का रिश्ता रखेंगे आप उससे नफरत करेंगे, घृणा करेंगे। तब सम्बन्ध शासक और शासित का था फिर भी कुछ अच्छे मुसलमान शासकों जैसे अकबर, शेरशाह, रजिया सुल्तान ने हिन्दुस्तान को अपना घर बनाया और सौहार्द और सद्भाव का वातावरण बनाने में मदद की। इसके अलावा सन्तों, फकीरों और सूफियों ने भी आपसी दूरियों को कम करने में अहम भूमिका निभाई।

यह बहुत स्वाभाविक होता है कि जब आप किसी से नफरत करते हैं या डरते हैं, तो अपने इर्द-गिर्द आप सुरक्षा की दीवार खड़ी करते हैं। पहले वे दीवारें छोटी थीं। दुर्भाग्य से यह रथयात्रा इन दीवारों को किले की तरह ऊँची करती जा रही है। मेरी समझ में यह किसी कस्बे वगैरह में कोई मामूली हिन्दू-मुस्लिम विवाद नहीं है, बल्कि एक खतरनाक डाइमेंशन लिए जाने वाला विवाद है। यह भी लगता है कि यह राम और रहीम का विवाद न होकर राम और बाबर का विवाद हो गया है। जबकि राम का बाबर से क्या मुकाबला, बाबर एक लुटेरा था। राम भगवान था, मैं समझता हूँ कि रथयात्रा इस विवाद को और मटमैला रंग दे रही है।

एक तरफ आरक्षण के मसले ने लोगों में दहशत पैदा कर ही दी है और दूसरी तरफ रथयात्रा बचे-खुचे साम्प्रदायिक सद्भाव को रौंदता हुआ चला जा रहा है। यह इस तरह हुआ है जैसे एक घर को दोनों तरफ से जलाने की कोशिश की जा रही है। जैसे घर में केवल एक चिंगारी न लगाई जाए, बल्कि उसे चारों तरफ से शोले दिखाए जाएँ।

हालाँकि लोगों के मन में यह भी ख्याल है कि शायद कोई ऐसी सूरत बन जाए कि रथयात्रा आगे न बढ़े। टकराव की स्थिति न बने। मैं समझता हूँ कि जब सभी राजनीतिक दलों के नेताओं, बुद्धिजीवियों ने यह माँग रखी है कि देश-हित में रथयात्रा रोक दी जाए, तो ऐसा हो जाना चाहिए।

 

‘संडे ऑब्जर्वर’, 21 अक्टूबर, 1990

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