शानी का नरेटर अब भी उतना ही प्रासंगिक

 

‘शानी की इससे बड़ी प्रासंगिकता और क्या होगी कि शानी का नरेटर जिस भय,शंका और डर से ग्रस्त है,18-19 का भारतीय समाज का नरेटर भी उसी स्तर पर खड़ा है।देशप्रेम का झुनझुना,प्रपंच के बरअक्स शानी ने मुस्लिम समाज की प्रमाणिकता को सही अर्थों में लाने का काम किया है और राजनैतिक संदेश दिया है।कालाजल महाकाव्यात्मक उपन्यास है। एक कथाकार की कविता है। यह कृति जीवन की बड़ी खिड़की है जिससे बस्तर के सामाजिक तानेबाने को बेहतर समझा जा सकता है इसीलिए यह बस्तर का पर्याय है। शानी किसी विचारधारा का हवाला नहीं देते और न ही उनके लेखन से बड़बोलापन उजागर होता है।वे मृत्यु के बीच जीवन के कथाकार थे।’

प्रख्यात कथाशिल्पी शानी के प्रति कृतज्ञा भरे ये विचार बीती 10 फरवरी की शाम भोपाल के साहित्यिक हलके में साझा हुए।शानी फाउंडेशन तथा रज़ा फाउंडेशन की सौंझ में आयोजित-‘हिन्दी साहित्य में हाशिए के लोग और शानी की प्रासंगिकता’ की इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में कवि,लेखक राजेश जोशी,वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी,वरिष्ठ आलोचक जानकी प्रसाद शर्मा, कथाकार शशांक और संस्कृतिविद् कलासमीक्षक रामप्रकाश त्रिपाठी ने वक्ता बतौर शानी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर मंतव्य पेश किए। इस अवसर पर शानी के साहित्य पर एकाग्र जानकीप्रसाद शर्मा द्वारा संपादित-‘शानी की रचनावली’ का लोकार्पण भी हुआ।

अध्यक्षीय उद्वोधन में राजेश जोशी ने कालाजल को एक कवि मन द्वारा सृजित महाकाव्यात्मक उपन्यास बताया और कहा,यह एक कथाकार की कविता है। उन्होंने न सिर्फ शानी के कथा-साहित्य,कविताओं की मीमांसा की बल्कि शानी के आत्मकथ्य के उस अंश को भी पढ़ा,जिसमें शानी के जीवन और किताब के बीच का अंतर्द्वन्द्व स्पष्ट था। राजेश जी ने कहा-‘शानी का कथा नरेटर जिस भय,शंका और डर के जिस स्तर पर खड़ा नज़र आता है,साल 18-19 के भारतीय समाज का नरेटर भी उसी त्रासद स्तर पर खड़ा है। शानी द्वारा अनुदित लोर्का की कविता का पाठ भी किया।

वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी ने कालाजल को एक बड़ा अवदान बताया।कहा,-‘कालाजल बस्तर का पर्याय है।यह एक ऐसी बड़ी खिड़की है,जिससे बस्तर की पगडंडियों, सुगंध को देखा और महसूसा जा सकता है।भौगोलिकता और स्थानीयता जहाँ शख़्सियत की तरह निकलकर आती हैं।थानवी ने शानी की कहानी ‘युद्ध’ का अंश पढ़ा,जहाँ शंकर,रिज़वी और बच्चे के मार्मिक संवाद हमारी संवेदनाओं को झकझोरते हैं।भाषा के बहाने देशप्रेम का झुनझुना बजाए को लेकर वरिष्ठ पत्रकार ने स्पष्ट किया कि बांगलादेश की अवाम ग़ालिब, मीर को नहीं जानती। वहाँ प्रचलन की भाषा बाँगला है,उर्दू नहीं है।वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर को जानते हैं।जब उर्दू को थोपने की बलात् कोशिशें हुईं तो बांगलादेश पाकिस्तान से अलग होकर नया देश बन गया।मुस्लिम की प्रामाणिकता को लाने में शानी ने सही मायनों में काम किया है।

आलोचक जानकीप्रसाद शर्मा ने शानी के साथ के गुज़ारे पलों को शिद्दत से याद किया। उनके रचनाकर्म की आत्मीय पड़ताल करते हुए उन्हें मृत्यु के बीच जीवन का आला कथाकार बताया।शानी ने तीसरी दुनिया के सबसे बड़े शब्द गरीबी को न सिर्फ ठीक-ठीक पहचाना, बल्कि कथा-साहित्य में इसकी व्यथा-पीड़ा को बड़े मनोयोग से रेखांकित भी किया।उन्होंने ‘एक कमरे का घर’अंगारा’,’भावुक’ समेत कुछ अन्य कहानियों का जिक्र करते कथा-चरित्रों के जीवन की जद्दोजहद की पड़ताल भी की। रचनावली से जुड़े कुछ अनुभव भी पेश किए।

संस्कृतिकर्मी,कला समीक्षक रामप्रकाश त्रिपाठी ने ग्वालियर में शानी के सानिध्य को याद करते हुए कहा-‘ये बरसात के वो दिन थे जब कालाजल पूर्णता के अंतिम दिनों में था।चाय-पकौडों के साथ शानीजी से इस पर चर्चा होती रहती थी। शानी यूँ ठाठबाट से रहते थे लेकिन घर में भव्यता के सख्त खिलाफ़ थे।भाषा में भी भव्यता के कायल नहीं थे।यही वजह है कि उनके कहन का लहजा सरल और प्राँजल हिन्दुस्तानी है।

कथाकार शशांक ने कालाजल को अमूल्य निधि बताया।कहा-आदिवासी जनजीवन उनकी लेखकीय चिंता का विषय रहा है।शानी प्रयोगात्मक कहानी के हिमायती थे।वे अक्सर कहा करते थे,’मैं मुसलमान होकर नहीं एक भारतीय होकर मरुँगा।

कार्यक्रम के सूत्रधार व संचालक वरिष्ठ पत्रकार,कवि सुधीर सक्सेना ने शानी के दौर की महत्वपूर्ण स्मृतियाँ साझा कीं। परवेज़ अहमद ने धन्यवाद दिया।

प्रस्तुति-वसंत सकरगाए

 

 

 

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