शानी : जब हम वापस आएँगे

शानी दिल्ली के साहित्य अकादमी दफ़्तर में

जब हम वापस आएँगे

तो पहचाने न जाएँगे

हो सकता है हम लौटें

तुम्हारे घर के सामने छा गई हरियाली

की तरह वापस आएँ हम

पर तुम जान नहीं पाओगे कि

उस हरियाली में हम छिटके हुए हैं

‘समकालीन भारतीय साहित्य के चवालीसवें यानी स्वसंपादित अंतिम अंक (अप्रैल-जून, 1991) के मार्मिक संपादकीय आलेख का समापन शानी ने अशोक वाजपेयी की इन काव्य-पंक्तियों के साथ किया था। उपर्युक्त काव्य-पंक्तियाँ एक ओर यदि पत्रिका से शानी के भावनात्मक संबंधों और उससे अलग होने की मन:स्थिति का आईना हैं तो दूसरी सतह पर हिंदी के पाठक-लेखक समुदाय के बीच पुनरुपस्थिति को लेकर उनके विश्वास को भी प्रतीकित करती है।…और वापस आने का यह विश्वास बहुत वाजिब है। उनकी मौजूदगी आज इस अर्थ में है कि सामाजिक यथार्थ के एक विशेष पक्ष यानी मुस्लिम संस्कृति को रूपायित करनेवाली कथा-रचनाओं की पाठक तलाश करते हैं तो सबसे पहले उनका ध्यान शानी की ओर जाता है। यह अनुमान भी शायद गलत न होगा कि युवा पीढ़ी के कथाकार जब इस विषय पर कलम उठाते हैं तो शानी और राही मासूम रज़ा जैसे इस सरणि के पुरोधा लेखक उनके अवचेतन में ज़रूर मौजूद रहते हैं।

शानी यानी गुलशेर खान का जन्म 16 मई, 1933 को तत्कालीन मध्यप्रदेश के जगदलपुर (बस्तर)में हुआ। वह अब छत्तीसगढ़ राज्य का हिस्सा है। जगदलपुर के आत्मीय शब्द चित्र उनकी कृतियों में जा बा जा नज़र आते हैं। काला जल से एक उदाहरण देखिए :

‘सचमुच, द्वीपों के जीवन से तब बस्तर का जीवन किस तरह भिन्न और अलग था!

द्वीप के चारों ओर अपार और अथाह जलराशि होती है। उसे शेष जगत से जोडऩेवाली होती है एक नाव और चंद नाविक, जो समय-समय पर गहरे झकोलों के बाद द्वीप की धरती पर पाँव रखते हैं और उतनी देर के लिए वहाँ का जीवन बदल जाता है। कमरों में बंद लोग किवाड़ खोल-खोलकर द्वीप के लहर भीगे तटों तक दौड़ जाते हैं और उनकी उत्सुक आँखें देखती हैं हिलती हुई सफेद पाल, यहाँ से वहाँ तक लहराती हुई नीली धाराओं का अनंत फैलाव और ऊपर-ऊपर उडऩे-मँडराने वाले बगुलों की इकट्ठी, दोहरी या तिहरी कतार…

हम लोगों की स्थिति इससे और अधिक क्या थी? चारों ओर फैले सागौन-शाल के घने जंगलों, दुर्गम पहाडिय़ों, गहरी घाटियों, बाढ़ से बिफरते असंख्य नदी-नालों और लाख-लाख आदिवासियों वाला बस्तर और उसमें तिल के अंबार में चावल के एक दाने की तरह छोटा-सा कस्बा—जगदलपुर।

इसी जगदलपुर में मोती तालाब के किनारे आबाद एक मोहल्ले में शानी का पैतृक आवास था। ‘काला जल’ शीर्षक मोती तालाब से ही आया है। उनके पूर्वज किसी ज़माने में रियासत के अमीर होकर आए थे। दादा मालगुज़ार की हैसियत रखते थे। दादी हिंदू थीं। नियमित पूजा-पाठ करती थीं। आँगन में तुलसी चौरा था। शानी को सांस्कृतिक विरासत के रूप में यह वातावरण मिला था।

उनके पिता गुलमीर खान जि़ला कचहरी में पेशकार थे। अपने सामंती रंग-ढंग के चलते एक अन्य स्त्री को उन्होंने ‘दाश्ता’ बना रखा था। पिता के रौबीले और गुस्सैल चेहरे के आगे शानी बचपन से ही सहमे-सहमे रहते थे। घर की सरगम बिगड़ जाने का यह एक बड़ा कारण था। संभव है अपने लिए शानी (अरबी : दुश्मन) उपनाम स्वीकार करने के पीछे परिवार में व्याप्ïत रागहीनता एक प्रेरक तत्त्व रहा हो। सोलह वर्ष की वय में यह नाम उनकी पहचान बन चुका था।

नौ-दस वर्ष की वय में गुलशेर खान मारकीन की कमीज़, लट्ठे का पाजामा और दुपल्ली टोपी पहनकर, बगल में जुज़दान में बंद कुर्आन शरीफ दबाकर मकतब को पढऩे जाते थे। यह दीनी तालीम उन्हें रास नहीं आई। ‘अभी दिल्ली दूर है (‘हंस’, जनवरी, 1988) में उन्होंने मकतब की स्मृति को इस रूप में ताज़ा किया है :

‘‘मैं राजा होता तो कितना अच्छा होता, तुम सबसे छिपाकर सोचते थे चुपचाप—‘क्या करता?’

सबसे पहले हाफिज़ जी को पिटवाता उसी बेंत से। हरामखोर रोज़ मारता है। पढ़ाना वो चाहता है, जिसका मतलब खुद उसे नहीं मालूम। क्यों पढ़ूँ अरबी? क्या अल्लाह को एक ही ज़बान आती है? और अगर उसे सारी इन्सानी ज़बानें नहीं आतीं तो वह अकबर कैसे हुआ? अल्लाह की किताब न हुई गले की वजिऱ्शगाह हो गई। हर लफ्ज़ हलक से निकालो। क्यों निकालो?…’’

यह शानी ही लिख सकते थे। वैसे भी उनके आचरण में कभी कट्टïर मज़हबियत नहीं देखी गई। उनका घर धर्म नहीं सांस्कृतिक अर्थों में मुस्लिम था। वे खुद को हमेशा ‘अल्लाह मियाँ के पिछवाड़े पड़ा हुआ आदमी मानते रहे। उनकी यह शिकायत बहुत जायज़ थी कि मैं भले ही शानी हूँ, लेकिन गुलशेर खान हूँ—यह बात मुझे हर रोज़ याद दिलाई जाती है।

घर के दायित्व ने शानी को आयु से पहले वयस्क कर दिया था। वे जो देखते और महसूस करते थे, उसे कहानी की समझ के बगैर कागज़ पर उतारने लगे थे। आठवीं कक्षा में पढ़ते हुए उन्होंने कहानी लिखना शुरू कर दिया था। धनंजय वर्मा शानी के उन्हीं दिनों के मित्र हैं। शानी के विद्यार्थी जीवन को याद करते हुए वे लिखते हैं— ‘‘हाई स्कूल में पढऩेवाला एक दुबला-पतला साँवला लडक़ा। निहायत समाज-भीरु और संकोची। अपने दो-चार दोस्तों में ही मगन…स्कूल में खेल-कूद से जिसे न केवल अरुचि थी, बल्कि उसका मज़ाक भी बनाता था। जिसकी धुन थी-पढऩा। वह भी उपन्यास और कहानियाँ। पाठ्य पुस्तकों में मन नहीं रमता था, चुनाँचे फिसड्डी तो नहीं था, हर क्लास में पास ज़रूर होता था। स्कूल में पढ़ाई-लिखाई में औसत होता हुआ भी आम लडक़ों से अलग था। और उसकी विशेषता थी—उसकी साहित्यिक अभिरुचि। अपने स्कूली दिनों में ही बिना किसी प्रेरणा और सहयोग के एक हस्तलिखित पत्रिका निकालकर तो जैसे उसने अपनी इस अभिरुचि का रजिस्ट्रेशन करवा लिया था।  (‘साक्षात्कार, मई-जून, 1996)।

हालात के वशीभूत शानी ने हाई स्कूल के तुरंत बाद म्यूनिसपिलिटी में क्लर्की की नौकरी कर ली। अब तक निजी ज़द्दोजहद के परिणामस्वरूप उनके भीतर एक कहानीकार जन्म ले चुका था। एक ऐसा कहानीकार, जिसकी परवरिश किसी मंच या संगठन ने नहीं की। उस समय जगदलपुर में साहित्यकार के रूप में केवल एक नाम था—लाला जगदलपुरी। उन्होंने अपने अंगारा पाक्षिक के 16 नवंबर, 1950 अंक में शानी की पहली कहानी प्रकाशित की। यह गुलशेर खान से शानी होने की यात्रा का पहला कदम था। 1950 तक कुछ अल्पचर्चित पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ छपती रहीं। साहित्यिक हल्कों में एक कथाकार के रूप में वे तब पहचाने गए, जब कहानी पत्रिका के एक विशेषांक (जनवरी, 1957) में उनकी ‘रहीम चाचा’ शीर्षक कहानी प्रकाशित हुई। कहानी पत्रिका में छपने के साथ ही शानी एक तरह की गुमनामी की जि़ंदगी से बाहर आ गए।

कहानी में बस्तर से उठती हुई इस नई आवाज़ को साहित्य प्रेमियों ने संजीदगी से लिया।

म्यूनिसपिलिटी में क्लर्की के दौरान संयोग से मध्यप्रदेश सरकार के सूचना विभाग क एक दफ्तर जगदलपुर में खुला। 1958-59 के दौरान वे सूचना विभाग में सह-संपादक रहे। उन्हीं दिनों अमेरिका से मानव विज्ञान के शोधकर्ता एडवर्ड जे.जे. फोर्ड फाउंडेशन के तहत काम करने के लिए बस्तर आए। उन्हें अंग्रेज़ी में अच्छी गति रखनेवाले एक स्थानीय व्यक्ति का सहयोग चाहिए था। लिहाज़ा नवंबर, 1958 से मई, 1960 के बीच शानी ने एडवर्ड के साथ शोध इंटरप्रीटर के रूप में काम किया। यह आदिवासियों के बीच रहकर दरिद्रता को देखने का पहला मौ$का था। इन दिनों की स्मृतियाँ शालवनों का द्वीप (1966) के रूप में सुरक्षित हैं जोकि इस विषय पर हिंदी में अपने ढंग की अकेली किताब है।

इसके गद्य की प्रशंसा कविवर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ शानी को लिखे अपने 30 अगस्त, 1970 के पत्र में कर चुके हैं। यहीं रहते हुए 1958 में पहला संग्रह बबूल की छाँव और 1959 में दूसरा संग्रह डाली नहीं फूलती प्रकाश में आग फिर 1960 में उनका पहला उपन्यास कस्तूरी प्रकाशित हुआ। जगदलपुर में ही उनके शाहकार काला जल का मसौदा तैयार हो चुका था।

जगदलपुर में शानी को शेष दुनिया से कई हुए द्वीप पर रहने जैसी अनुभूति होती थी। डॉ. श्यामाचरण दुबे को 23 सितंबर, 1958 के एक पत्र में लिखते हैं : ‘‘बस्तर का वातावरण साहित्यिकता से अलग हटकर पड़ता है। और यहाँ रहनेवालों को हमेशा बैक-वाटर्स में होने का एहसास होता रहता है।’अतएव शानी जगदलपुर से ग्वालियर तबादले पर आए। ग्वालियर प्रवास के चार वर्ष शानी ने जिस तरह बिताए, वह एक fकस्म का ‘छोटे घेरे का विद्रोह था। 1964 में इसी शीर्षक से उनका तीसरा कहानी-संग्रह भी प्रकाशित हुआ। 1965 में उनका अगला पड़ाव भोपाल था। यहाँ वे सरकारी मासिक ‘मध्यप्रदेश संदेश’ के सह संपादक के रूप में आए थे। राजधानी की उठा-पटक में टिक नहीं सके। परायेपन के माहौल से ऊबकर नौकरी छोड़ दी। अनुभव प्रकाशन नाम से संस्था खोली गई, नहीं चली। गर्दिश के इन्हीं दिनों में उन्होंने फिर अपनी शैक्षिक योग्यता की ओर ध्यान दिया। जब उनकी कहानियाँ विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाने लगीं, तब शानी ने 1969 में विक्रम विश्वविद्यालय से प्राइवेट बी.ए. किया। स्नातक होने का लाभ यह हुआ कि भाषा विभाग में संपादक के पद पर उनकी नियुक्ति हो गई। कुछ ही समय बाद वे मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के सचिव बना दिए गए।करीब चालीस वर्ष की उम्र में पहली बार उन्हें रुचि का काम मिला। उनके प्रयासों से परिषद ने ‘साक्षात्कार’ मासिक का प्रकाशन शुरू किया। शानी ने इस पत्रिका को युवा प्रतिभाओं का एक मंच बनाया। सरकारी संस्थाएँ चलाने के लिए सभी किस्म के लोगों को साधकर चलना होता है। यह शानी फितरत में नहीं था। फिर बकौल शानी ‘दुबले पर दो आषाढ़’की तरह मध्यप्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य बदला। देखते न देखते एक दिन शानी 1978 में साहित्य परिषद से बाहर कर दिए गए। भोपाल में रहते हुए शानी का नदी और सीपियाँ  उपन्यास (1970) तथा युद्ध (1973), शर्त का क्या हुआ (1975) और एक से मकानों का नगर (1976) कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए।

अब शानी ने सपरिवार दिल्ली की राह ली। दिल्ली में वात्स्यायन जी ने दरबदर होते हुए शानी को सहारा दिया। उनकी अनुशंसा पर प्रबंधतंत्र ने उन्हें ‘नवभारत टाइम्स’ के ‘रविवार्ता’  का संपादक बना दिया। 1980 के आरंभ में अचानक अखबार का निज़ाम बदल गया। उनके शुभेच्छु वात्स्यायन जी अखबार से अलग हो गए। स्वभावत: शानी को भी बाहर  का दरवाज़ा देखना पड़ा। अखबार के अनुभवों पर उन्होंने ‘चौथी सत्ता’ शीर्षक कहानी लिखी। अखबार से सेवा-मुक्ति के करीब एक माह के अंतराल के बाद वे केंद्रीय साहित्य अकादमी में संपादक होकर आ गए। वे ‘समकालीन भारतीय साहित्य’के संस्थापक संपादक बने। वे इस पत्रिका को ‘भाषाओं के ज़रिए एक  इमारत का सपना’ मानते थे। अकादेमी में रहते हुए उन्हें मध्यप्रदेश के शिखर सम्मान से नवाज़ा गया। काला जल  उपन्यास पर सीरियल बना और उनका अंतिम कहानी-संग्रह जहाँपनाह जंगल (1984) प्रकाशित हुआ। 31 मई, 1991 को वे साहित्य अकादेमी से सेवा निवृत्त हुए।

1992 में उन्होंने आठ-नौ महीने तक नवभारत टाइम्स के साप्ïताहिक स्तंभ ‘किसी बहाने’ के तहत नियमित रूप से लिखा। ये लेख नैना कभी न दीठ किताब के रूप में सामने आए। इधर श्रीपत राय जी बंद पड़ी कहानी पत्रिका के पुनप्र्रकाशन की योजना बना रहे थे। शानी को सक्षम व्यक्ति जानकर कहानी का संपादक नियुक्त कर दिया गया। यह 1993 की बात है। कहानी के पुनप्र्रकाशन के दौरान ही उनकी गुर्दे की बीमारी ने उग्ररूप ले लिया। प्रवेशांक (मार्च, 1994) के साथ ही सरस्वती प्रेस से रिश्ता टूट गया। पैरों पर सूजन आने लगी। मर्ज़ शानी को मृत्यु की ओर ले जा रहा था, लेकिन उनकी सोच की दिशा जीवन की ओर रही। अपनी विगत ‘रंगारंग बज़्म आराइयों’की यादें ताज़ा करते रहते थे। लंबे समय तक फरीदाबाद के एस्कोर्ट अस्पताल में डायलेसिस से गुज़रते रहे। जीवन के अंतिम क्षणों में भी उनके अंदर जिजीविषा कायम रही। अंतत: जो समय स्थगित होता रहा था, वह आ पहुँचा और 10 $फरवरी, 1995 को उनका देहावसान हो गया। फीरोज़शाह कोटला कब्रिस्तान में उनके पार्थिव शरीर को दफन किया गया।

शानी दिल्ली आने के बाद गालिब का एक शेर अकसर दोहराते रहते थे। वही  शेर  उनकी कब्र के कुत्बे पर उर्दू लिपि में अंकित है :

मुझको दयार-ए-गैर में मारा वतन से दूर

रख ली मिरे खुदा ने मिरी बेकसी की शर्म

“मेरे सामने न तो कोई सामाजिक उद्देश्य था और न किसी प्रकार की प्रतिबद्धता। मैं तत्कालीन किसी सामाजिक या राजनीतिक आंदोलन से भी परिचित नहीं था। और न किसी अन्याय ने मुझे लेखन की एक ओर प्रेरित किया था। लिखना मेरे लिए नितांत व्यक्तिगत, निजी और गोपन यंत्रणाओं से मुक्ति और तंग करनेवाले प्रश्नों से जूझने का माध्यम था और आज भी है।” (गर्दिश के दिन)।

शानी की यह स्वीकारोक्ति उनकी रचनाशीलता से संवाद स्थापित करने में विशेष मदद करती है। अपने लेखन की प्रेरणा के विषय में उन्होंने जो कहा है, उसके पूर्व पक्ष की ओर भी हमारा ध्यान जाता है। बीसवीं सदी के छठे दशक के दौरान अपनी शुरुआत के दिनों में जैसा कि शानी ने महसूस किया होगा, कुछ रचनाकार किसी विशेष सामाजिक या राजनीतिक आंदोलन के ज़रिए अपनी पहचान बनाने को आतुर रहते थे। शहरी मध्यवर्ग के उन लेखकों में यह प्रवृत्ति आम थी, जिनके पास सूचना और आवागमन की सुविधाएँ अपेक्षाकृत ज़्यादा थीं। शानी शालवनों के द्वीप बस्तर में रहते हुए इन सुविधाओं से वंचित थे। जिस ‘नई कहानी’ के संभावनाशील कथाकार के रूप में उन्हें शुमार किया जाने लगा था, उस समय तक उन्हें इल्म भी नहीं था कि नई कहानी-जैसा कोई साहित्यिक आंदोलन भी है। या कि अभी यानी छठे दशक में पूर्ववर्ती प्रगतिशील आंदोलन के प्रभाव में भी कहानियाँ लिखी जा रही थीं। वस्तुत: उनके भीतर एक स्वत:स्फूर्त सिसृक्षा थी, प्रकृति के औदात्य का परिवेश था और उस परिवेश में साँस लेता हुआ अभावग्रस्त जीवन। इसे समझने के लिए उन्हें किसी आंदोलन की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जिन्हें शानी नितांत व्यक्तिगत, निजी और गोपन यंत्रणाएँ कह रहे हैं, उनके कारण बाह्यï सामाजिक परिस्थिति में हैं। इनसे मुक्ति की आकांक्षा उनके रचना-कर्म को स्वभावत: एक सामाजिक प्रयोजन से जोड़ देती है। प्रयोजनीयता उनके यहाँ बौद्धिक आयास द्वारा रचना पर आरोपित नहीं है, बल्कि अनुभवजन्य है। मिसान के लिए उनका पचहत्तर के करीब कहानियों का सरमाया हमारे सामने है। इस सिलसिले में तीसरी और अंतिम बात यह है कि शानी के लिए लेखन कुछ तंग करनेवाले प्रश्नों से जूझने का माध्यम रहा है। यहाँ यह याद दिलाना ज़रूरी है कि उपरि-उल्लिखित आत्मकथ्य सारिका के ‘गर्दिश के दिन’स्तंभ के अंतर्गत 1974 में प्रकाशित हुआ था। वे विचलित करनेवाले प्रश्न अब तक बहुत मुखर और उग्र रूप से सामने आते जा रहे थे। कम अज़ कम शानी का आकलन तो यही था। ये हमारे सांस्कृतिक बहुलवाद से संबद्ध प्रश्न थे। और इन्हीं प्रश्नों से सृजनात्मक स्तर पर अनवरत जूझते रहने के कारण शानी आज भी प्रासंगिक हैं।

शानी को हम मुस्लिम हिंदी लेखक के बजाए मुस्लिम पृष्ठभूमि से आए हिंदी लेखक के रूप में याद करना चाहेंगे। सब जानते हैं कि कृश्न चंदर, जोगेंद्र पाल और रामलाल को हिंदू उर्दू अफसानानिगार नहीं कहा जाता। इसी तरह चकबस्त, पं. दयाशंकर नसीम, फिराक गोरखपुरी और शीनकाफ निज़ाम को हिंदू उर्दू शायर के रूप में नहीं पहचाना जाता। शानी के साथ मुस्लिम की जो पहचान जुड़ी हुई है, इसका संबंध मज़हब से नहीं, कथा-रचनाओं में व्यक्त जीवन से है। शानी ने अपने लेखन की शुरुआत में पूर्ववर्ती कहानियों का जायज़ा लिया और महसूस किया कि  ‘‘इनमें अमीना खाला क्यों नहीं? रहीम चच्चा, अज़ीम मामू, छोटी फूफी और बदरू कसाई क्यों नहीं? कब्रिस्तान के सूने में मढिय़ा डालकर अकेले रहनेवाला तकियादार क्यों नहीं?’’ (‘हंस: जनवरी, 1988) प्रेमचंद्र की, ‘मंदिर-मस्जिद’  ‘हिंसा परमोधर्म:’ और ‘ईदगाह’ तथा यशपाल की कुछ कहानियों (विशेषत:‘पर्दा) को छोड़ दें तो ये पात्र प्राय: हाशिए पर रहे। इन उपेक्षित पात्रों के सुख-दु:ख और सपनों को कहानी की शक्ल में ढालने के क्रम में सबसे पहले उनका ध्यान कस्बे के बाज़ार में माँस बेचते हुए करीम $कसाई की ओर जाता है और ‘अपनी-अपनी राह’कहानी लिखी जाती है। कसाई कहने के साथ ही एक कितनी निर्मम और निर्दयी आकृति नज़रों के सामने आ जाती है। करीम अपने पेशे से अलग अपने मनुष्य की पहचान के प्रति सचेत है। शानी की खूबी यह है कि वे इस पात्र की मनुष्यता को उभारकर सामने लाते हैं। मानवीय गरिमा से वंचित और आर्थिक अभावों से पीडि़त लोगों की इस मनोभूमि से वे अपनी रचना-यात्रा आरंभ करते हैं। यही मनोभूमि उनके अंतिम दौर की कहानियों में कमोबेश विद्यमान रहती है। उनके रचना-विषयों और अभिव्यक्ति रूपों में बदलाव आए हैं, लेकिन उनके सामाजिक सरोकारों की ज़मीन नहीं बदलती। बगैर दावों और घोषणाओं के भी प्रगतिशील अंतर्वस्तु से संपन्न रचनाएँ संभव हो सकती हैं, शानी का लेखन इसकी दुर्लभ मिसाल है।

शानी की बुनियादी पक्षधरता में कोई दुराव-छुपाव नहीं है। वे ‘रहीम चाचा’के रहीम, ‘अपनी-अपनी राह’के करीम, ‘आँच’ के मौलाना, ‘नंगे’के अभावग्रस्त युवक, ‘जली हुई रस्सी’ के वाहिद, ‘भीतर-बाहर’के बशीर और ‘मरे हुए चेहरे’  का जुम्मन तकियादार के साथ खड़े हैं। ‘रहीम चाचा’ कहानी में उम्र भर रोज़ी-रोटी का वसीला तलाश करते रहीम का भावपूर्ण $खाका खींचा गया है। वह वहीं रहीम चाचा है जो किसी के घर में मैयत की खबर पाकर तुरंत वहाँ पहुँचता था और सूई-धागा लेकर कफन सिलने बैठ जाता था और अब वक्त की मार कि लोग उसके कफन के लिए चंदा इकट्ठा करते हैं। इस वर्णन में कुछ भावुकता ज़रूर झलकती है, पर अनुभव का खोट नहीं। यह कहानी इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि शानी हमारे समाज के सबसे बड़े सच गरीबी को अपने लेखन की शुरुआत में ही पहचान लेते हैं।

‘आँच’ कहानी में मज़हब और आजीविका के द्वंद्व को तरजीह दी गई है। केंद्रीय पात्र मौलाना फारूकी कौम और मज़हब की खिदमत करते हुए पंद्रह-सतरह बरस से जगदलपुर में पड़े हैं और उनके बाल-बच्चे लखनऊ में रहने के लिए अभिशप्ïत हैं। वे मस्जिद के इमाम है। रात (इशा) की नमाज़ के बाद इतनी बड़ी मस्जिद के वीरान और सूने अहाते में मौलाना और मुअज़्ज़न असगर के अलावा कोई नहीं रहता। ‘मस्जिद की इमामत करना कितनी जि़म्मेदारी का काम है। इबादत के लिए आपका जी न चाहे, लेकिन साधारण लोगों जैसी छूट उनके नसीब में नहीं कि एक वक्त की नमाज़ टाल जाएँ।‘ इबादत के दौरान जब कभी उन्हें दो कुँवारी बेटियों की याद आ जाती है तो सब कुछ भूल जाते हैं और अपने पुराने अभ्यास के चलते नमाज़ पढ़वा देते हैं। फिर इबादत की इस बेदिली के लिए खुदा से हज़ारों-हज़ार क्षमायाचना करते हैं। दोहरे संकट में पड़े मौलाना की इस मन:स्थिति को शानी ने संवेदना की गहराइयों के साथ मूर्त कर दिया है…और यह कहानी सिर्फ मौलाना की नहीं रह जाती।

शानी ने ‘फिराक’की एक पंक्ति को कई जगह उद्धृत किया है—न मुफलिसी हो तो कितनी हसीन है दुनिया! इस सच्चाई को ‘नंगे’ कहानी में देखिए। ‘नंगे’कहानी का युवक अपनी फूफी के यहाँ ईद पर इसलिए नहीं जाना चाहता कि उसके पास बच्चों को ईदी देने के लिए पैसे नहीं हैं। औपचारिकता निभाने के लिए उसे जाना पड़ता है। फूफी जब बच्चे को उसकी गोद में देना चाहती है तो वह कोई बहाना बनाकर बच जाता है। ऐसे मर्मांतक क्षणों में उस युवक पर क्या गुज़रती है, शानी ने इस कैफीयत को बड़े कलात्मक ढंग से व्यक्त किया है : ‘‘फूफी और मसूद की दुल्हन के सामने अपने को जैसे-तैसे ढँकने के लिए कमीज़ के पल्ले खींचता हूँ, पर पेट ढँकता हूँ तो पीठ खुल जाती है…’’ क्या पूरे निम्ïन मध्यवर्ग का सच यहीं नहीं है?

‘जली हुई रस्सी’में शानी गल्ले के व्यापारी मुनीर साहब और एक मामूली बर्खास्त मुलाजि़म के चरित्रों के ज़रिए दो वर्गों की मूल्य पद्धतियों का विश्लेषण करते हैं। वाहिद बेमन से मीलाद शरीफ के अवसर पर आयोजित मुनीर साहब की दावत में जाता है और अवमानना झेलता है। मुनीर साहब अपनी श्रेणी के लोगों के आतिथ्य में व्यस्त हैं। उसके घर लौटने पर वाहिद की पत्नी सहज भाव से पूछती है : ‘‘कितने लोग थे दावत में? हमीदा की माँ तो नहीं आई?’’ यह सवाल जैसे कि वाहिद के जले पर किसी ने नमक छिडक़ दिया हो। वह तिलमिलाकर जवाब देता है : ‘‘हमीदा की माँ की ऐसी की तैसी! मैं ऐसी दावतों में नहीं जाता, यह जानकर भी तुम ऐसे सवाल करती हो? हमने क्या पुलाव नहीं खाया? जिसने न देखा हो, वह सालों के यहाँ जाए!’’

वाहिद अपनी अवमानना को स्वाभिमान के आवरण में छुपाना चाहता है। शानी जैसे उसके अंतर्मन में झाँक लेते हैं।

‘भीतर-बाहर’कहानी में शानी ने आज वैश्विक स्तर पर चल रहे धर्म और पूँजी के गठजोड़ को सीधे-सीधे रचना-विषय नहीं बनाया है, बल्कि कस्बाई मुस्लिम परिवारों के  अंतर्विरोधों को उजागर करते हुए इस वैश्विक परिघटना को संकेतित कर दिया है। इस कहानी में आइरनी का कमाल है। मौलाना साहब धर्मोपदेश (वाज़) दे रहे हैं। यह मज़हब इन्सान को इन्सानियत की सीख देता है। छोटे-बड़े और अमीर-गरीब में फर्क करना नहीं सिखाता…जो छोटे-बड़े, अमीर-गरीब और इन्सान-इन्सान में फर्क करता है, वह और कुछ भले करे, खुदा की इबादत कतई नहीं कर सकता।’ मौलाना की ऊँची-ऊँची बातें सुनकर गरीब बशीर मियाँ के मन में इच्छा जाग्रत होती है कि मौलाना उसके गरीब खाने पर भी वाज़ करें। पेट काट कर उसने कुछ पैसे जोड़ रखे थे। उसे मौलाना की स्वीकृति भी मिल जाती है। अब स्थिति की विडंबना देखिए। अचानक शहर मजिस्ट्रेट और सेठ बरकतुल्ला का प्रस्ताव आता है कि इसके बाद मौलाना इन दो प्रतिष्ठत लोगों के यहाँ वाज़ करेंगे। प्रस्ताव मंज़ूर होना ही था। गरीब बशीर मियाँ ‘मरी बकरी की तरह बट-बट देखता रह जाता है।’बशीर मौलाना की अमीर-गरीब और इन्सान-इन्सान में फर्क न करनेवाली बात को मन-ही-मन तौलता, है, आवेश में कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता। उसका मौन बहुत मुखर है, पाठक को बेचैन कर देनेवाला।

यह बात निर्विवाद है कि शानी ने कहानी को कुछ एकदम अछूते कथ्य दिए। वे वाकई हमें अनुभव के ऐसे इलाकों में ले जाते हैं, जो हमारे बोध से परे लगते हैं। ‘मरे हुए चेहरे में एक बिल्कुल नई दुनिया हमारे सामने खुलती हैं जहाँ कब्रिस्तान के तकियादार जुम्मन से हमारा सामना होता है। जुम्मन को तकियादारी के बदले कुल पाँच रुपये महीने मिलते हैं। मृतक के परिवारजनों को छोडक़र प्राय: हर आदमी उसे अपने घर का नौकर समझता है। जिस व्यक्ति की सामाजिक हैसियत यह हो, उसे कहानी के केंद्र में रखकर शानी मानवीय प्रतिष्ïठा से मालामाल कर देते हैं, दफ्न के बाद हाथ-मुँह धोने के लिए सबको स्वच्छ पानी चाहिए। वह कहाँ से लाए! जिस परिस्थिति में वह जी रहा है, उसकी निरीहता की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। फलत: दफ्नाने की रस्म को लेकर उसके भीतर एक किस्म का विच्छिन्नता बोध पैदा हो जाता है। इस कहानी में कुछ ऐसे संकेत हैं जो शानी के कलात्मक सामथ्र्य से परिचित कराते हैं। जैसा कि हम जानते हैं, वे अपनी बेहतरीन कहानियों में इतिवृत्त को बरतरफ करके प्रकृति बिंब रचने लगते हैं। यह अपने अभीष्ïट को और अधिक प्रभावशाली बनाकर व्यक्त करने की युक्ति है। जुम्मन आँगन में आम के पेड़ और मकान की मिली-जुली छाँव में चटाई पर लेटा है। अब देखिए :

‘चित्त लेटकर महकते-गमकते और झरटते हुए बौर की कच्ची सुगंध की बौछार से थोड़ी देर के लिए उसने आँखें बंद कर लीं। फिर एकाएक वह चौंककर उठा और पास के दड़बे को खोलकर देखने लगा—चितकबरी मुर्गी ने अंडा दिया क्या?’’ मरे हुए चेहरों के बीच मुर्गी के अंडा देने का खयाल कब्रिस्तान के पूरे वातावरण को बदल देता है। यह मृत्यु के बीच जीवन की अनुभूति है।

अब तक हमने जिन कहानियों से बहस की है, वे मुस्लिम संस्कृति के विविध रूपों को जानने का अवसर देती हैं। इनकी पृष्ïठभूमि में दरूद, वाज़, ग्यारहवीं शरीफ के मीलाद और फातिहा की संस्कृति झलकती है। आगे हम मुस्लिम अल्पसंख्यकों के भय और संदेहों को उजागर करनेवाली कुछ महत्त्वपूर्ण कहानियों पर संक्षिप्ïत बातचीत करना चाहेंगे। इस प्रसंग में ‘युद्ध’एक अविस्मरणीय कहानी है। पहले भारत-पाकिस्तान युद्ध पर आधारित इस कहानी को पढक़र हम अपने भीतर एक भयावह युद्ध महसूस करने लगते हैं। औपचारिक शिष्ïटाचार के कारण जिन प्रश्नों को हम टालते रहते हैं, शानी बड़ी सहजता से एक बच्चे के ज़रिए उन प्रश्नों से सामना करा देते हैं। वसीम रिज़्वी इस सच्चाई को जानता है कि युद्ध के दौरान दफ्तर में उससे गोपनीय समझे जानेवाले कार्य का चार्ज क्यों ले लिया जाता है। एक दिन जब रिज़्वी के मित्र शंकर दत्त की मौजूदगी में अबोध बच्चा अप्पू अपने पिता रिज़्वी से पूछ बैठता है : ‘‘पापा, हम हिंदू हैं कि मुसलमान?’’ यह प्रश्न रिज़्वी को भीतर से हिला देता है। कहानी का समापन इस बिंब के साथ होता है :

‘दालान में टँगे आईने पर बैठी एक गौरेया हमेशा की तरह अपनी परछाईं पर चोच मार रही थी।’ पूरी कहानी एक तरह से इस बिंब का संवेदनात्मक विस्तार है। यह बिंब वसीम रिज़्वी की अस्मिता के संकट को और गहरा कर देता है।

1965 के शुरू में शानी ग्वालियर में थे। इस दौरान उनकी जो मन:स्थिति थी, खुद उनकी ज़बानी सुनिए : ‘‘मेरी ट्रेजेडी यह थी कि युद्ध ने मुझे खामोश और उदास कर रखा था। न तो मेरे मन में तमाशबीनों जैसा जोश और उत्साह था और न युद्ध में रस लेनेवाली मुखरता। अगर यह सब न होता और जेब में उफनती हुई राष्ïट्रीयता और देश प्रेम का झुनझुना होता तो भी काफी होता, लेकिन बदिकस्मती से वह भी नहीं था। अगर आप भारतीय मुसलमान हैं और चाहते हैं कि आपकी बुनियादी ईमानदारी पर शक न किया जाए तो यह झुनझुना बहुत ज़रूरी है।’’

‘बिरादरी’कहानी धर्म की बिरादरी और वर्गों की बिरादरी के अंतर्विरोध से परिचित कराती है। झुग्गी मेंरहनेवाली विधवा स्त्री जो अपनी मज़दूरी के अलावा बिरादरी के मसले पर कभी सोचती नहीं थी, वह अपने बेटे साबिर को चोरी के झूठे आरोप से बरी कराने के लिए अंतत: बिरादरी का आश्रय लेती है। कहानी मेंसंवेदना के तीन मोड़ लक्षित होते हैं। वाचक (मैं) साबिर को पिटने से बचाता है, पर इसलिए नहीं कि वह उसके मज़हब का है। उसकी सहानुभूति का आधार मानवीय है। दूसरे, जब उसके पड़ोसी त्रिपाठी और भट्टï झुग्गी हटाने की लिखित शिकायत करते हैं तो शिकायत-पत्र को वाचक के समक्ष प्रस्तुत इसलिए नहीं करते कि वह मुसलमान है। हस्ताक्षर करने से इनकार कर सकता है। तीसरे, वाचक साबिर की माँ की मदद इसलिए नहीं कर पाता कि लोग उसकी मदद को मानवीय न समझकर बिरादरी से जोडक़र देखेंगे। अतएव बिरादरी की ग्रंथि उसे मदद करने से रोकती है। उसके मुँह से अनायास एक वाक्य निकलता है : ‘‘क्या मैं चोरों की बिरादरी का हूँ?’’ इस एक वाक्य में वाचक के मन का अंतद्र्वंद्व समाहित हो गया है। यह कहानी मनुष्यता के लिए दिन-ब-दिन घटती स्पेस को लक्षित करती है।

शानी ने दिल्ली आने के बाद ज़ेरे-बहस मुद्दों पर तीन कहानियाँ लिखीं—‘देश-निकाला’, ‘चौथी सत्ता’, और ‘दोज़$खी’। इनमें से बाद की दो कहानियों में उन्होंने बहुत ओवरटोन में बातें कही हैं। ये कुल घटनाओं की बाबत आवेशपूर्ण प्रतिक्रियाएँ हैं। इनमें वह अर्थगर्भत्व और व्यंजकता नहीं है जो कि शानी की कहानी-कला की पहचान है। ‘देश-निकाला’ कहानी इस लिहाज़ से संतुलित है। वाचक (मैं) और साजिद दो पिछड़े हुए राज्यों से दिल्ली आ बसते हैं। उनकी दोस्ती का पचास $फीसदी आधार यह है कि वे एक ही मज़हब में पैदा हुए हैं। वाचक के ही शब्दों में, ‘‘हम कहते नहीं थे, लेकिन हमारा सारा व्यवहार ऐसे हुआ करता था मानो कहीं के रहनेवाले कहीं से देश निकाले पर आए हों और व$क्त की मार से दुबके हुए हों…’’ दरअसल यह ‘व$क्त की मार से दुबके रहना’शानी का स्थायी भाव है। कहानी में पेच यहाँ पैदा होता कि साजिद के अलावा वाचक का एक और मित्र है रंजन। वह वाचक की आवास की समस्या में मदद भी करता है। फिर कुछ ऐसा अप्रत्याशित घटित होता है कि अचानक वाचक की आँखों के सामने एक सांप्रदायिक चेहरा तैर जाता है जो कि रंजन का नहीं है, और इस आवेश में वह अपने बचपन के दोस्त रंजन को का$िफर कह देता है। यह सांप्रदायिक चेहरे की कल्पना से उत्पन्न तनाव का विस्फोट है। रंजन के प्रति वाचक के असहज व्यवहार की जड़ें कहाँ हैं? उसे एक हिंदू दोस्त से मिलनेवाली मदद को लेकर शंकालु किसने बनाया है? कहानी इस तरह के कई प्रश्न पाठक के ज़ेहन में छोड़ जाती है। अब तक चर्चा में आई कहानियों के अनुभव हमें इसलिए संवेदित करते हैं कि मुस्लिम जीवन से वाबस्ता होने से पहले अपने सास्तत्त्व में ये अनुभव मानवीय हैं।

शानी व्यापक मानवीय सरोकारों के कथाकार हैं। अनुभवों का एक व्यापक रेंज उनके यहाँ नज़र आता है। सामाजिक संबंधों की पृष्ïठभूमि पर भी उन्होंने कुछ यादगार कहानियाँ लिखी हैं। यहाँ बानगी के बतौर ‘एक नाव के यात्री और ‘इमारतें गिरानेवाले’विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उनकी सर्वाधिक चर्चित ‘एक नाव के यात्री’ कहानी रज्जन के रूप में एक संवेदनाशून्य चरित्र को बड़ी गहराई के साथ मूर्त कर देती है।

कहानी की एक-एक डीटेल गहरी व्यंजना लिए हुए है। रज्जन सात साल बाद विदेश से वापस आता है। उसके नेत्रहीन पिता की इच्छाएँ जाग्रत होने लगती हैं कि इस बार रज्जन उन्हें अपने साथ ले जाए बिना मानेगा नहीं। भावातिरेक की एक स्थिति यह है। उधर रज्जन अपने दोस्तों से फारिग होकर जब घर आता है तो माँ को एक कार्डिगन और पिता को एक कोट भेंट करते हुए शिष्ïटाचारवश पैर छूकर अपने दायित्व को संपन्न मान लेता है। परस्पर विरोधी मानवीय व्यवहारों का द्वंद्व कहानी में शुरू से आखिर तक बना रहता है। वह मोहग्रस्त पिता की तमाम प्रत्याशाओं पर पानी फेरते हुए और विछोह की पीड़ा का ज़रा भी एहसास किए बगैर अपनी पत्नी के साथ विदेश लौट जाता है। कहानी के अंत में पिता की भाव विह्वïलता हमारे मर्म को बेध देती है। पिता ने वही कोट पहन रखा है जिसे रज्जन के रहते हुए उन्होंने छुआ तक नहीं था। सामने कार्डिगन पहने रज्जन की माँ खड़ी थीं और उन्हें कंधे से पकड़े, कार्डिगन के एक-एक हिस्से को उँगलियों से टटोलते हुए पिता पूछते हैं : ‘‘इसका रंग कैसा है, नीला?’’ इस प्रश्न में कितनी वेदना है और कितना राग अंतर्निहित है! यह कहानी का समापन वाक्य भी है। यह अकेले रज्जन की कहानी नहीं रह जाती, बल्कि यह पूँजी के वर्चस्व के दौर में पारिवारिक ताने-बाने के बिखरने और संबंधों की दीवार ढहने की हृदयविदारक कहानी बन जाती है। ‘एक नाव के यात्री’ साठ के दशक में लिखी गई थी, लेकिन यह कहानी हमारे घरों में आज भी लिखी जा रही है।

प्रेम के त्रिकोण ने ‘नई कहानी’  के दौरान एक रीति का रूप ले लिया था। शानी की ‘इमारतें गिरानेवाले’ इस रीति से बाहर जाकर लिखी गई कहानी है। यह नवधनाढ्य वर्ग की तथाकथित संस्कृति का एक्सपोज़र है। चंद्रा और मामूली नौकरीपेशा अनिल एक दंपति हैं। इमारतें बनाने और गिराने के पेशे से जुड़ा वाचक पति-पत्नी के बीच ठंडे संबंधों को भाँप कर चंद्रा पर आसक्त हो जाता है। यहीं हम एक अप्रत्याशित अनुभव से गुज़रते हैं। अनिल को सामान्यता हस्तक्षेप करना चाहिए, लेकिन इसके विपरीत वह वाचक को स्वयं ऑफर करता है कि वह चंद्रा के साथ आलिंगनबद्ध हो जाए। इस क्षण अनिल के चेहरे के मनोभावों को बड़ी बारीकी के साथ उभारा गया है। कहानी के अंत में वाचक का अपराधबोध पाठकीय धारणा के विपरीत जा पड़ता है। वाचक का अब तक का चारित्रिक विकास यह दर्शाता है कि कहानी वाचक की जीत के एहसास पर समाप्त होगी, पर हमें वह हारा हुआ मिलता है। उसे लगता है : ‘‘शायद मुझे धक्का लगा था। कुछ उसी तरह, जैसे किसी पुरानी इमारत को गिरवाते हुए एक बार मैं ज़ख्मी हो गया था, कैसे, नहीं मालूम!’’ वाचक को यह अपराधबोध भीतर से तोड़ देता है कि वह अनिल और चंद्रा के दांपत्य जीवन की पुरानी इमारत गिराने के लिए जि़म्मेदार है। यहाँ कहानीकार ने नैतिकता के प्रश्न पर उपदेश देने के बजाय दो भिन्न व्यवहार पद्धतियों के ज़रिए नैतिकता के समाजार्थिक आधारों को रूपायित कर दिया है।

पाठक महसूस करेंगे कि शानी कहानियों पर कविता की तरह काम करते थे। उनकी कहानियाँ इतनी सुगठित और सघन रूप से विन्यस्त हैं कि एक शब्द इधर से उधर नहीं किया जा सकता। वे अक्सर किसी नुक्ते से कहानी का पहला सिरा खोल देते हैं और पात्रों को डिक्टेट करने के बजाय अपनी स्वाभाविक दिशा में आगे बढऩे देते हैं। निष्कर्षात्मकता से उन्हें परहेज़ है। उनकी कहानियों का अंत अक्सर खुला होता है। शानी भाषा के प्रति बहुत सावधान नज़र आते हैं। उनकी कथा-भाषा कहानी में काव्य-दृष्ट के अंतर्वेधन की बेहतरीन मिसाल है।

शानी खुद को डेढ़ उपन्यासों का लेखक मानते रहे। एक काला जल आधे में बाकी तीनों उपन्यास—साँप और सीढ़ी, एक लडक़ी डायरी और नदी और सीपियाँ। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि काला जल मुस्लिम जीवन को उसके सांस्कृतिक सरोकारों की व्यापकता में समग्र रूप से अभिव्यक्ति देनेवाला हिंदी का पहला बड़ा उपन्यास है। काला जल 1965 में आया और राही मासूम रज़ा का बहुचर्चित उपन्यास आधा गाँव 1966 में प्रकाशित हुआ। काला जल के प्रकाशन के पूर्व ‘एक कहानीकार का पुनर्जन्म’ लेख में शानी कहते हैं : ‘‘भारत की अल्पसंख्यक जाति मुस्लिम अपने-आप में मुझे समस्या लगती है। अत: उसके बारे में सचेतन रूप से या वैसे भी लिखना मेरी विवशता है। मेरा बड़ा उपन्यास काला जल (शीघ्र प्रकाश्य) इसी दिशा में एक प्रयास है—एक विशाल कैनवस पर लिखित, दरअसल यह उपन्यास अतीत-वर्तमान-भविष्य संबंध का एक बड़ा नाटक है जिसका रंगमंच मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार है।’’ इस कथन से काला जल के कथ्य और योजना का बखूबी अंदाज़ा हो जाता है।

काला जल मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवारों की अनेक त्रासदियों से भरा हुआ एक महाख्यान है। दो मुस्लिम परिवार हैं—एक छोटी फूफी का दूसरा बब्बन का जो जगदलपुर (बस्तर) के बाहरी दुनिया से असंबद्ध और कटे हुए परिवेश के संकीर्ण दायरे में अपनी नियति के विरुद्ध जूझ रहे हैं। इन परिवारों के छोटे-छोटे संदर्भ हमें बड़ी सामाजिक सच्चाइयों तक ले जाते हैं। कथा-संवेदना की अंतर्वर्ती धारा के रूप में स्वाधीनता आंदोलन की पृष्ïठभूमि है। भारत विभाजन की घटना के बिंदु तक पहुँचने पर यह राजनीतिक पृष्ठभूमि उपन्यास की संवेदना को एक विशिष्ïट अर्थवत्ता प्रदान करती है। रज्जू मियाँ और बब्बन के अब्बा के चारित्रिक अध:पतन से उत्पन्न पारिवारिक विंशृंगतियों का पर्यवसान धार्मिक भावनाओं से जुड़े एक राजनीतिक संदर्भ में होता है।

उपन्यास का कथानक तीन खंडों में विभाजित है—‘अल फातिहा: लौटती हुई लहरें’, ‘भटकाव : दिशाएँ चूमती स्रोतस्विनी’और ‘ठहराव। कथानक की बुनावट में एक नया प्रयोग देखने को मिलता है। शबे बरात के दिन छोटी फूफी के घर पर परिवार की दिवंगत रुहों को फातिहा देने की रस्म बब्बन अदा कर रहा है। फातिहा देते समय एक-एक घटना परत-दर-परत उसके उपचेतन में खुलती चली जाती है। बब्बन फेहरिस्त उठाता है, पहला नाम है मिर्ज़ा करामत बेग। यहीं से कहानी में फ्लेश बैक आ जाता है। इस तरह हमें छोटी फूफी के घर बैठे-बैठे शानी तीन पीढिय़ों के जीवन की यात्रा करा देते हैं।

काला जल के सहभोक्ता रहे धनंजय वर्मा से मालूम होता है कि थीम के रूप में शानी के पास एक जीता-जागता चरित्र था—छोटी फूफी। छोटी फूफी को शानी ने मानवीय आस्था और जिजीविषा के जीवंत प्रतीक की तरह प्रस्तुत किया है। एक चरित्र अपने विस्तार के लिए खुद घटना-स्थितियों को जुटाता गया और उपन्यास की शक्ल अख्तयार कर ली। भारतीय नारी का गृहिणीवाला रूप है जो प्राणांतक हालात के बीच भी उनके भीतर जिजीविषा को कायम रखता है। ससुर की काम विकृति, पति रोशन फूफा की मृत्यु, बेटे मोहसिन का अलगाव और बेटी सालिहा की अकाल मृत्यु—एक स्त्री इतनी वेदनाओं को अपने मन के अतल में डुबोए हुए है।

शानी सामंती ढाँचे के ध्वंसावशेषों और ठहरे हुए परिवार के बीच यथार्थ के दूसरे पहलू पर भी नज़र रखते हैं, जहाँ भूख और गरीबी के करुण दृश्य हैं। रहमत रहमत चाचा हे घर को जिस तरह चित्रित किया गया है, वह गरीबी को देखे बिना संभव नहीं था। रहमत चाचा उपन्यास के छोटे (माइनर) चरित्रों में से एक है। एक बड़े उपन्यास की यह खूबी होती है कि उसके छोटे चरित्र भी बहुत सशक्त होते हैं। इसके माध्यम से उपन्यासकार यह बताना चाहता है कि एक ओर यह समाज रज्जू मियाँ-जैसे चरित्रभ्रष्ïट लोगों को पैदा कर रहा है, वहीं दूसरी ओर रहमत चाचा भी इसी समाज की पैदावार हैं। इधर विलासिता है, उधर महज़ जि़ंदा रहने की ज़द्दोजहद। मोमिनपुरा की एक अंधी गली के एक झुके हुए मकान में रहनेवाले रहमत चाचा की आजीविका का दारोमदार मुख्यत: मुहर्रम के महीनेवाले चढ़ावों पर है। उनकी मनोदशा यह है कि घर के बाहर अगर बकरियों की आहट भी होती है तो उन्हें लगता है, कोई चढ़ावा लेकर आ गया। थोड़ी-थोड़ी देर बाद अपने-आप पुकारते रहते हैं : ‘‘आओ भाई आओ, भीतर आओ…दिल से दुआ करेंगे!’’ वैसे सचमुच में दरवाज़े पर कोई होता नहीं है। रहमत चाचा के बगैर काला जल की तस्वीर पूरी नहीं होती।

उपन्यास के समाहार की ओर बढ़ते हुए शानी ने एक प्रश्न के रूप में भारतीय मुसलमान की सोच को प्रस्तुत कर दिया है। पी.सी. नायडू के स्वराज आंदोलन में पेश-पेश रहनेवाला मोहसिन भारत विभाजन की घटना के बाद बिल्कुल बदल जाता है। स्वराज आंदोलन की परिणति को हिंदू-मुस्लिम दंगों के रूप में देखकर एक असुरक्षा का भाव उसके मन में जाग जाता है। वह अपनी जमात के बहुत-से लोगों की तरह पाकिस्तान जाने का निर्णय लेता है; लेकिन बब्बन के एक ही तर्क के आगे उसे अपना निर्णय बदलना पड़ता है। बब्बन को मोहसिन के चरित्र के प्रतिवाद के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। मोहसिन के प्रश्न, ‘‘बताओ, क्या यह रोने का मु$काम नहीं है’के प्रतिप्रश्न के रूप में बब्बन कहता है, ‘‘पाकिस्तान पहुँचने के बाद भी अगर तुम्हें लगा कि ठगे गए, तो फिर कहाँ जाओगे—अरब या ईरान?’’

काला जल निस्संदेह क्लासिक के दर्जे को पहुँचा हुआ उपन्यास है। इसका प्रकाशन एक बड़ी साहित्यिक घटना थी। वर्ग-समाज में हमारे अवाम के एक विशेष हिस्से अर्थात अल्पसंख्यक समुदाय को देखने की यह गहन अंतर्दृष्टि हिंदी कथा-साहित्य में एक इज़ाफे की तरह थी। साथ ही इसकी उर्दू संस्कारयुक्त भाषा की ताज़गी और शिल्पविधि की प्रयोगशीलता (यानी फातिहा की तकनीक) ने सर्जनात्मकता की नई  राहें खोल दीं। उपन्यास की इन्हीं खूबियों से प्रभावित होकर मूर्धन्य कथाकार यशपाल ने 14 सितंबर, 1966 के एक पत्र में शानी को लिखा था : ‘‘मुझे संपूर्ण रचना इतनी सुगठित, सार्थक, सप्रयोजन और सफल लगी कि आपको बधाई दिए बिना नहीं रह सकता।…बहुत कम रचनाएँ ऐसी मिलती हैं, जिनसे मैं अपने छिद्रान्वेषी स्वभाव के कारण कुछ-न-कुछ त्रुटि अनुभव न कर सकूँ…काला जल में ऐसी त्रुटि नहीं खटकी, इसके लिए आपके सामने सादर सिर झुकाता हूँ।’

एक बात कही जानी चाहिए कि शानी काला जल की ज़मीन को आगे किसी उपन्यास में विस्तार नहीं दे पाए। शायद इसीलिए राजेंद्र यादव को अपने ‘डरता कौन है शानी से!’ लेख में यह कहना पड़ा कि ‘‘ काला जल शानी का कीर्तिस्तंभ भी है और समाधि-लेख भी।’’

शानी के रचना-कर्म पर एक विहंगम दृष्टिï डालते हुए उनका यह यकीन उभरकर सामने आता है कि जिन चरित्रों को आप रचना में जगह दे रहे हैं, वे आपके सिर्फ पहचाने हुए नहीं, बल्कि जाने हुए भी होने चाहिए। और यह जानना सि$र्फ अध्ययन तक सीमित न हो, जीवन में शिरकत इसकी बुनियादी शर्त है। सुधीर सक्सेना और शशांक के साथ अपने जीवन के अंतिम इंटरव्यू में वे खुलकर कहते हैं, ‘‘आप आउट साइडर होकर नहीं लिख सकते; क्योंकि आउट साइडर होकर आप वह तकलीफ, दर्द, जि़ल्लत, अपमान और कॉम्प्लैक्सेज़ को महसूस नहीं कर सकते। लिखने के लिए उनमें आपको बैठना होगा। काले हब्शी की जि़ंदगी को लिखने के लिए जेम्स बाल्डविन होना ज़रूरी है।’ (‘नई दुनिया 21 जनवरी, 1995)

भले ही शानी का यह सृजन-संबंधी इसरार उनके प्रति आलोचना के अनुदार होने का कारण बना हो, लेकिन इसी इसरार ने कथाकार के रूप में उन्हें एक विशिष्ट पहचान दी और इसी के रहते वे हिंदी कथा-साहित्य की एक रिक्ति को भरने में काफी हद तक सफल भी हुए।

जानकीप्रसाद शर्मा द्वारा लिखित यह लेख समकालीन भारतीय साहित्य के 200वें अंक (नवंबर-दिसंबर 2018) में प्रकाशित हुआ है।

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