स्मृति में

शानी अपने दोस्त डॉ. एडवर्ड जे के साथ अबूझमाड़ में

जी.के.शानी 16 मई, 1933- 10 फरवरी, 1995

ये कुछ शब्द एक ऐसे व्यक्ति के बारे में लिखे गए हैं जो भारत में मेरा सबसे अज़ीज़ दोस्त था और पूरी दुनिया में मेरे दो या तीन सबसे क़रीबी दोस्तों में से एक था। जगदलपुर में जन्मे गुलशेर ख़ान ने, जो उस समय मध्य भारत की एक छोटी रियासत बस्तर की राजधानी थी, बाद में अपना उपनाम शानी रख लिया। दरअसल उनकी मां ग़ुस्से में उन्हें इसी नाम से बुलाती थीं जिसका मतलब अरबी भाषा में दुश्मन होता है। अपने दोस्तों के बीच वह इसी नाम से जाने जाते थे। केवल वे ही लोग जो उन्हें अच्छी तरह से नहीं जानते थे, उन्हें “मेरे शानी” के रूप में संबोधित करते थे और उन्हें कभी भी “गुलशेर” के नाम से नहीं जाना जाता था। शानी एक पूर्व मालगुज़ार के पुत्र थे जिन्हें उन दिनों छत्तीसगढ़ और बस्तर के छोटे-मोटे सामंती ज़मींदारों के रुप में जाना जाता था। शानी का परिवार किसी भी तरह से समृद्ध नहीं था  और जब मैं सन 1958 में शानी से मिला था तो वे जगदलपुर में एक छोटे से घर में रहते थे और उनके पास कोई ज़मीन ज़ायदाद नहीं थी। शानी के पिता बस्तर के महाराजा के महल में हेड क्लर्क के रूप में काम करते थे  और शानी मध्य प्रदेश के स्थानीय प्रचार विभाग में नौकरी करते थे। शानी को लिखने का जुनून था। बस्तर के आदिवासियों में हम दोनों की दिलचस्पी ही थी जिसकी वजह से शुरुआत में हम एक दूसरे के क़रीब आ गए। शानी की आदिवासी जीवन पर कई लघु कहानियां प्रकाशित हो चुकी थीं और वह इन लोगों के बारे में और अधिक जानने के लिए उत्सुक थे। बस्तर में आदिवासियों की सबसे अधिक आबादी थी। तब तक बस्तर प्रशासनिक रूप से रियासत से मध्य प्रदेश के एक ज़िले में तब्दील हो चुका था। मुझ से उनका परिचय मानवविज्ञानी एस.के. कालिया ने करवाया था। जब मैं पहली बार अक्टूबर, सन 1958 में भारत आया था तब इत्तेफ़ाक़ से कालिया जी से मेरी मुलाक़ात जगदलपुर विश्राम गृह में हुई थी। उस समय मुझे किसी भी भारतीय भाषा का ज्ञान नहीं था  और जब शानी ने मेरे और मेरी पत्नी के साथ ज़िले के विभिन्न आदिवासी क्षेत्रों के दौरे पर जाने की पेशकश की, तो मुझे ख़ुशी हुई।

दो सप्ताह के लिए हम तीनों ने मेरे शोध के लिए सबसे मुनासिब जगह तलाशने के लिए अपनी नयी जीप में ज़िले का दौरा किया और विभिन्न क़स्बों तथा गांवों में लोगों से मिले । शानी उस समय 25 साल के थे और मैं शिकागो विश्वविद्यालय में 27 साल का स्नातक छात्र था  जो शोध करना चाहता था। शुरू से ही हमारी पटने लगी। वह बहुत आसानी से मेरे लक्ष्यों और रुचियों को समझ लेते थे। उन्होंने बहुत सहजता के साथ मुझे विभिन्न जनजातीय समुदायों के लोगों के साथ तालमेल और संवाद स्थापित करने में मेरी मदद की।

आख़िरकार मैंने अबूझमाड़ पहाड़ियों के मारिया गोंड पर अध्ययन करने का फ़ैसला किया। शानी ने मुझे ओरछा गांव में रहने और बाद में अध्ययन करने में मदद की। हमारे सानिध्य की इस अवधि का उल्लेख उनकी पुस्तक “शाल वनों का द्वीप” में अच्छी तरह से किया गया है। शानी को एक लेखक और साहित्यकार के रूप में जाना जाता है, लेकिन मैं उनके काम का मूल्यांकन दूसरों पर छोड़ता हूं क्योंकि मैं साहित्यि का जानकार नहीं बल्कि एक सामाजिक मानवविज्ञानी हूं। मुझे शानी के बारे में जो सबसे अच्छी बात याद है  वह है उनकी गर्मजोशी और ऊर्जावान व्यक्तित्व, उनकी ईमानदारी और साफ़गोई, मज़ाक करने और समझने की सलाहियत, अक़्लमंदी और वफ़ादारी। वह किसी भी सिद्धांत या पारंपरिक अर्थ में नहीं  बल्कि शुद्ध और लगभग भोले अर्थ में नैतिक दृढ़ विश्वास के व्यक्ति थे।

उनमें जानने की तीव्र इच्छा भी थी, ख़ासकर उन लोगों के बारे में जिनसे वे रोज़मर्रा की ज़िंदगी में दो चार होते थे। वह उनकी कहानियां सुनने के लिए हमेशा उत्सुक रहते थे  और उनका मानना था कि हर किसी का जीवन अनोखा और दिलचस्प होता है।

मेरा मानना ​​​​है कि उनकी ये ख़ूबियां, अनैतिकता और अन्याय को उजागर करने की उनकी इच्छा, जो दूसरों की पीड़ा का कारण बनती है, और लोगों की मूलभूत प्रकृति में उनकी रुचि ने उन्हें इतना उत्कृष्ट लेखक बना दिया।

सालों तक हम एक दूसरे के संपर्क में रहे। दिसंबर,सन 1965 में अपनी पहली पत्नी से तलाक़ के बाद मैं कैलिफ़ोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी कॉलेज के अपने कुछ प्रोफ़ेसरों के साथ भारत आया था। मैं ग्वालियर में शानी और उनकी पत्नी से मिलने गया जहां वे थोड़े समय के लिए रहे थे। हम ग्वालियर का क़िला देखने गए और खजुराहो के मंदिरों का संक्षिप्त दौरा किया। 1967-68 में मुझे अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडियन स्टडीज़ से एक छत्तीसगढ़ी किसान गांव में शोध करने के लिए फेलोशिप मिली। मैंने शानी को एक साल के लिए अपना दुभाषिया और शोध सहायक बनने के लिए कहा। वह राज़ी हो गए और सन 1967 के अंत में हमने मध्य प्रदेश के रायपुर में एक घर को अपना ठिकाना बना लिया जहां उनका परिवार रहता था। हमने महानदी के तट पर दक्षिण-पूर्व में 25 मील दूर पारागांव का अध्ययन किया। हम सप्ताह के दिनों में गांव में रुकते थे और और अगर शादी या त्योहार जैसा कोई कार्यक्रम नहीं हो रहा होता था तो सप्ताहांत में एक पुरानी फ़िएट कार में, जिसे मैंने ख़रीदा था, रायपुर लौट जाते थे। इसी साल के दौरान हमारी दोस्ती इतनी मज़बूत हो गई, मानों हम भाई हों। तारों भरी कई गर्म रातों में हमने ग्राम बैठक के बाहर चबूतरे पर बैठकर घंटों बातें कीं। साल ख़त्म होने पर हम भोपाल गए। मैंने उनके और उसके परिवार के लिए फ़िएट कार और कुछ रुपये बैंक में छोड़ दिए। मुझे इस बात की फ़िक्र थी कि आगे शानी का क्या होगा क्योंकि उस समय उनके पास कोई नौकरी नहीं थी।

मेरी अगली लंबी भारत-यात्रा 1977-78 में थी जब मैंने पारागांव के पास  राजिम के छोटे उप-क्षेत्रीय मंदिर शहरों का अध्ययन किया। ये वही पारागांव था जहां मैंने 1967-68 में अध्ययन किया था। इस यात्रा की वजह से हमें भोपाल में शानी के परिवार से मिलने का एक और मौक़ा मिला और एक बार फिर शानी हमारे साथ राजिम चलने के लिए ख़ुशी ख़ुशी राज़ी हो गए। उन्होंने एक बार फिर हमें स्थापित करने में मदद की। इसके अलावा, मध्य प्रदेश सरकारी  अधिकारियों से हमारा परिचय करवाया। उन अधिकारियों की सहायता के बिना शोध करना मुश्किल था क्योंकि छत्तीसगढ़ को अब विदेशी विद्वानों के अनुसंधान के लिए “संवेदनशील” क्षेत्र मान लिया गया था। नवंबर,सन 1978 में शानी ने दिल्ली के एक प्रमुख हिंदी अख़बार  नव भारत टाइम्स की साप्ताहिक पत्रिका “रविवार्ता” के संपादक का पद स्वीकार कर लिया। हम उस साल दिसंबर में, भोपाल के बजाय दिल्ली में शानी परिवारल को अलविदा कहकर स्वदेश रवाना हो गए। मार्च,सन 1980 में शानी को नई दिल्ली में साहित्य अकादमी का हिंदी संपादक नियुक्त किया गया। मेरा मानना ​​है कि उनके जीवन के कुछ सबसे सुखद वर्ष इस पद पर व्यतीत हुए। वह  यहां से,सन  1988 में रिटायर हुए हालंकि वह बहुत नाख़ुश थे।

उसके बाद मैं लंबे समय तक भारत नहीं जा सका  लेकिन सन 1981 की गर्मियों में शानी ने मुझे वाराणसी में “प्रेम चंद और भारतीयता की अवधारणा” पर आयोजित एक सेमिनार में मुझे शामिल करने का प्रबंध कर लिया। इस तरह एक बार फिर हमें अपनी दोस्ती को ताज़ा करने का मौक़ा मिला हालंकि यह यात्रा संक्षिप्त थी। अप्रैल 1982 में मैं यह जानकर दुखी और चिंतित था कि उन्हें दिल का दौरा पड़ा है हालंकि वह ठीक हो गए। बाद के वर्षों में  अपने दफ़्तर से कुछ समय निकाला और काला जल (डार्क वाटर्स) पर धारावाहिक के निर्माण में लग गए। ये धारावाहिक राष्ट्रीय टेलीविज़न पर प्रसारित हुआ और लोगों ने पसंद भी किया।

सितंबर,सन 1985 में वह आख़िरकार कैलिफ़ोर्निया के ऑकलैंड में हमारे घर, हमसे मिलने आए। हम कई सालों से उन्हें हमारे यहां आने को कह रहे थे। उन्होंने मेरे विश्वविद्यालय में भारतीय साहित्य पर एक भाषण दिया। हमने उन्हें उत्तरी कैलिफोर्निया के आसपास के कुछ दर्शनीय स्थल दिखाए।

हमारी अगली भारत यात्रा 1989-90 में हुई। मैं भोपाल में मध्यवर्गीय जीवन का अध्ययन कर रहा था। तब हमने दिल्ली में उनके घर पर एक साथ कुछ समय बिताया और मैंने और मेरी पत्नी ने “हमारे परिवार” के साथ अपने संबंधों को फिर और मज़बूत किया। सन 1991 के अंत में शेरन दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास के स्कूल में पढ़ाने लगीं। वह पिछले चार सालों से मयूर विहार एक्सटेंशन में शानी के घर के पास एक अपार्टमेंट में रह रही हैं। इस दौरान मैं कई बार भारत गया क्योंकि सन 1992 में मैं भी विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त हो चुका था। इस तरह इस दौरान शानी से कई बार मिलने का मौक़ा मिला। दिसंबर-जनवरी 1994-95 में मेरी पिछली यात्रा में साफ़ लगने लगा था कि शानी की सेहत गिरती जा रही थी। दस फ़रवरी, सन 1995 को दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु मेरे लिए एक बहुत बड़ा सदमा था। बहरहाल, कम से कम मैं उनके अंतिम दिनों में उनके साथ रहा हालंकि जब मैं 24 जनवरी को लौटा था तब इस बात का एहसास नहीं था।

आख़िर में, मैं एक ऐसे व्यक्ति के बारे में क्या कह सकता हूं जो भौगोलिक रूप से बहुत दूर रहते हुए अपने जीवन के अधिकांश समय भावनात्मक रूप से मेरे बहुत क़रीब था? अपनी भावनाओं को पर्याप्त रूप से व्यक्त करना कठिन है, मुझे पता है कि मैंने उनके साथ उनकी कामियाबियों, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के प्रमुख साहित्यिक पुरस्कारों, उनके प्रमुख उपन्यास कला जल की सफलता, अंग्रेज़ी और इसके सहित कई विदेशी भाषाओं में इसका अनुवाद, टेलीविज़न धारावाहिक, साहित्य अकादमी में उनकी नियुक्ति, लेखकों, पत्रकारों और उच्च सरकारी अधिकारियों सहित भारतीय समाज के कई प्रमुख हस्तियों के साथ दोस्ती और उनकी सहायता और उनके बच्चों और नाती-पोतो के जन्म में उनकी व्यक्तिगत ख़ुशी को बांटा। मैं उनके साथ मध्य प्रदेश शासन साहित्य परिषद से उनकी निराशा, उनके और उनके परिवार के अल्पसंख्यक होने की वजह से भेदभाव की तकलीफ़, हॉजकिन की बीमारी, मधुमेह, दिल का दौरा और गुर्दे ख़राब होने जैसी कई तकलीफ़ों का गवाह रहा था। लेकिन उनकी जो भी कठिनाइयां रही हों,  उनका सामना उन्होंने शांत और गरिमा के साथ बिना कड़वाहट के आशावाद के साथ किया। जीवन के प्रति उनका प्रेम ज़बरदस्त था। मैंने, जीवन को सभी सुखों और दुखों के साथ जीना उनसे ही सीखा। इसके अलावा उनसे मैंने एक समाज और एक संस्कृति के रूप में भारत के बारे में बहुत कुछ जाना और सीखा। उन्होंने न केवल मेरे लिए हमेशा अपने दरवाज़े खुले रखे और मुझे अपने प्रोजेक्ट पूरा करने में मदद की बल्कि मुझे, एक गुरू की तरह, भारत की विविध और जटिल सच्चाई को समझने में मदद की। हम अपनी सहज दोस्ती के ज़रिए एक बड़े सांस्कृतिक अंतर को मिटाने और ये साबित करने में सफल रहे कि दुनिया के अलग अलग इलाक़े के लोगों के बीच भी, एक गहरा और स्थायी मानवीय बंधन मुमकिन है। उनके निधन से भारत ने एक महान सपूत खो दिया है और मैंने एक प्यारा भाई।

डॉ एडवर्ड जे जय

प्रोफ़ेसर एमेरिटस

कैलिफोर्निया राज्य

विश्वविद्यालय, हेवर्ड, यू.एस.ए.

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