कई बार मिलकर भी शानी जी से नहीं मिल सका

शीर्षक बहुत ही कन्फ्यूज़ करने वाला है। मिलकर भी नहीं मिल सकना। यह भला कैसी बात हुई? इसका उत्तर मैं क्या दूँ? क्योंकि मैं स्वयं शानीजी के संबंध में कन्फ्यूज़्ड रहा हूँ। शायद इसकी वजह मेरी और उनकी उम्र में बहुत बड़ा अंतर होना ही रहा होगा।

सन् 1957 की बात है। जगदलपुर में हमारी स्कूल के पास ही ज़िला ग्रंथालय शुरू हो चुका था, जिसका पहला पाठक पहले दिन से मैं ही था। उस दिन ग्रंथाल में आने वाले सभी लोगों को मिठाइयाँ दी गई थीं। मिठाइयाँ बहुत ज्यादा खरीद ली गई थीं और पाठक कम थे। इसलिए कई दिनों तक लाइब्रेरियन महोदय द्वारा मिठाई-वितरण चलता रहा और मैं अच्छी-अच्छी पुस्तकों और मिठाइयों के कारण ज़िला ग्रंथालय का नियमित वाचक बन गया। शाम 8 बजे तक दो घंटे में वहाँ जमकर पढ़ाई करता था। धर्मयुग पत्रिका से वही मेरा परिचय हुआ जिसे मैं शौक से पढ़ता था। एक दिन जब मैं धर्मयुग का नया अंक पढ़ रहा था तो ग्रंथालय के चपरासी बुधराम ने मुझे सूचित किया कि लाइब्रेरियन साहब बुला रहे हैं। मैं धर्मयुग को पकड़े हुए ही उनके कक्ष में गया ताकि धर्मयुग किसी अन्य पाठक के हाथ न लग जाए अन्दर घुसते ही लाइब्रेरियन साहब ने बड़े प्रेम से कहा-बेटा तुम तो बच्चे हो, धर्मयुग बड़े बूढ़ों की पत्रिका है। हम तुम्हें बच्चों वाली किताबें देते हैं। तुम ऐसा करो, धर्मयुग को ये जो गुलशेर भैया बैठे हैं, उनका दे दो। मैंने जी कड़ा कर जवाब दिया – सर मैं गुलशेर भैया को धर्मयुग दस मिनट बाद दूँगा क्योंकि अभी मैं इसमें जो कहानी पढ़ रहा हूँ, उसमें जगदलपुर और यहाँ के लोगों की सच्ची कहानी दी गई है। मेरा इतना कहना था कि गुलशेेर भैया के नाम से संबोधित व्यक्ति तुरन्त उठ खड़े हुए। घुंघराले बालों वाले चश्माधारी भैया ने मेरे सर पर हाथ रखकर पूछा-बेटा क्या नाम है तुम्हारा? क्या पढ़ते हो? मैंने सरिता, नवनीत और कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं के नाम लिए तो भैया बहुत खुश हुए। कहने लगे-ज़रूर पढ़ो खूब पढ़ो, मैं भी यहाँ रोज़ आता हूँ लेकिन ज्यादा वक्त नहीं दे पाता। तुम मेरे लिए एक काम करोगे। किस पत्रिका का पेपर कौन सी कहानी अच्छी लगी, यह एक कागज़ के टुकड़े पर लिख लेना और मुझे देना। मेरा समय बचेगा भैया की विनम्रता से प्रभावित मैं हाँ कह बैठा और इस तरह से भैया और भाई का रिश्ता कायम हो गया। भले ही वह लाइब्रेरी परिसर तक ही सीमित था।
उस दिन मैं कैसे जान सकता था कि धर्मयुग में जिस जगदलपुर वाली सत्य घटना आधारित कहानी को मैं पढ़ रहा था, उसके कहानीकार भैया ही हैं- गुलशेर भैया, जबकि धर्मयुग में तो लेखक का नाम ‘शानी’ छपा था। मुझे याद है जब एक सप्ताह तक लगातार हर मुलाक़ात में मैंने उनके कहे अनुसार पढ़ने योग्य कहानियों के नाम पत्रिकावार उन्हें सौंपे तो सातवें दिन गुलशेर भैया मेरे लिए कामता हलवाई की दुकान से मिठाई लाये थे। उन दिनों जगदलपुर में कामता प्रसाद यानी कालाहंडिया की मिठाइयाँ ही शुरू हुईं थी और प्रसिद्ध थीं। मिठाई का पहला टुकड़ा गुलशेर भैया ने मुझे अपने हाथों से खिलाया और मैंने भी अपने हाथ से उन्हींं की लाई हुई मिठाई उन्हीं के मुँह में रखी थी। साथ ही उनसे सवाल भी किया-भैया, पत्रिकाओं और अखबारों में ये जो जगदलपुर बस्तर वाली कहानियाँ छपा करती हैं, उनके लेखक हमेशा शानी ही होते हैं। क्या आप उन्हें जानते हैं? यह सुनकर भैया खूब हँसे और जवाब दिया-अरे भाई, कोई जगदलपुर वाले होते तो मैं जानता। तुम्हें इससे क्या करना है? उनकी कहानियाँ अच्छी लगती हैं या नहीं? ये बताओ। मैंने कहा बहुत अच्छी लगती हैं। वे शानी जी कहीं मिल जाये ंतो आप उन्हें ज़रूर बताना कि एक लड़का है, जिसने आपकी लगभग सभी कहानियाँ पढ़ी हैं। जगदलपुर बत्तर वाली कहानियाँ शौक़ से पढ़ता है और अपने स्कूल के साथियों को भी पढ़वाता है। शानी जी के असली नाम पता भी लाइयेगा। भैया यह सुनकर हँसे और सिर हिलाकर वादा किया। यह कहकर कि मैं कभी रायपुर गया तो पता करूँगा। वहां मेरी रिश्तेदारी भी है।

समय बीतता रहा। भैया लगभग नियमित ही लाइब्रेरी में मिलते रहे। कामता हलवाई की मिठाई भी कभी-कभी आती रही। जब रायपुर जाकर आते तो मेरे लिए वहां की पुरानी प्रसिद्ध दुकान भानजी भाई के यहाँ से खारा मीठा एक सुन्दर से पैकेट में लाते थे। फिर एक बार उन्होंने मुझे शुभ सूचना दी कि शानी जी मिले थे और तुम्हारे लिए उन्होंने अपनी कहानियों का संग्रह भेजा है। कहानी संग्रह का नाम था-बबूल की छांव। मैंने कहानियों की फेहरिस्त देखी तो पाया कि लगभग सभी कहानियाँ मैंने पहली ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ ली हैं। मैंने भैया से कहा कि पुस्तक में सिर्फ कहानियाँ ही हैं, लेखक का परिचय, पता वगैरह तो कहीं है ही नहीं। भैया हँसकर बोले-कई लेखक अपने आपको छिपाकर लेखन करते हैं। शायद शानी जी भी ऐसे ही होंगे। मैंने पूछा-दिखते कैसे हैं, कहाँ काम करते हैं? जवाब मिला-सूचना प्रकाशन कार्यालय में काम करते हैं और देखने में यूँ समझ लो कि मेरे ही जैसे दिखते हैं। भैया ने इशारा दे दिया था किन्तु मै। इतना भोला था कि फिर भी नहीं समझ सका कि मेरे गुलशेर भैया ही शानी जी हैं। इससे भी बड़ा भोलापन यह कि मैंने भैया से कभी उनका घर किधर है, कार्यालय कहाँ है, जानने की कोशिश ही नहीं की जबकि भैया मेरे घर द्वार और खानदान की भी जानकारी अपने मित्र लक्ष्मीचंद्र जैन उर्फ लक्खी भैया से प्राप्त कर चुके थे, जो मेरे पड़ोसी थे। कमाल है कि पड़ोसी भैया ने भी मुझे कभी नहीं बताया कि जिन्हें बस्ती वाले गुलशेर खान के नाम से जानते हैं, या गुस्सैल गुलशेर के नाम से जानते हैं, वहीं शानी के नाम से साहित्य जगत में धूम मचा रहे हैं। अगले वर्ष भैया ने मुझे एक और पुस्तक रायपुर की मिठाई सहित प्रदान की। वह कहानी संग्रह था ‘डाली नहीं फूलती’ लेखक परिचय वाला पृष्ठ इसमें से भी गायब था। एक धुंधली सी फोटो अवश्य थी जो कि भैया की शक्ल से मिलती तो थी किन्तु मैं इस प्रभाव में था कि शानी जी तो भैया जैसे ही दिखते हैं, उन्होंने कहा था सन् 1960 आ गया। तब शानी जी का पहला बस्तर आधारित उपन्यास ‘कस्तूरी’ पाॅकेट बुक्स की एक रुपये वाली सीरीज़ में निकला। फिर पुस्तक मिली फिर मिठाई भी। पुस्तक में चित्र के स्थान पर रेखाचित्र था और बिल्कुल भी उनकी शक्ल से नहीं मिलता था। परिचय इस पुस्तक में कवर पृष्ठ पर ही इतने संक्षेप में छपा हुआ था कि उससे मात्र आभास होता था कि लेखक महोदय का बस्तर से कुछ संबंध अवश्य है। इसके बाद भी हम लोगों की मुलाकातें चलती रहीं। न तो भैया मेरे घोर असाहित्यिक वातावरण वाले घर पर आये और न मैं ही उनके खतरनाक पिताजी गुस्सैल गुलमीर के घर कभी गया। यदि जाता तो सब कुछ पता चल जाता।

हमारी मुलाकातें बरसों तक मात्र ज़िला ग्रंथालय जगदलपुर तक सीमित रहीं और हमारी बातचीत का विषय समकालीन हिन्दी साहित्य रहता था जिसमें शानी जी के कृतित्व का उल्लेख बार-बार होता था। आखिर फिर एक दिन वह भी आया जब भैया का जगदलपुर से शायद ग्वालियर ट्रांसफर हो गया। विदाई लेते भैया जी ने उस दिन पहली बार मुझे बेटू कहकर संबोधित किया कि रोना नहीं। जाते-जाते भी कुछ पुस्तकें और मिठाई का दोना जबरन थमा गए और आनंद ट्रांसपोर्ट कम्पनी की बस में अपने किसी परिचित ड्राइवर के पीछे की सीट में जा बैठे। कुछ स्थानीय साहित्यकार भी उन्हें विदाई देने बस स्टेन्ड आये थे। इनमें लाला जगदलपुरी जी को मैं पहचानता था। जब गाड़ी चली गई तो मुझे मातमी सूरत बनाये हाथ मिलाते देख लालाजी ने अचानक पूछ लिया-क्यों बेटे, क्या तुम भी शानी जी के खानदान के सदस्य हो? सवाल सुनकर मुझे कैसा झटका लगा होगा, कल्पना कीजिए। अपनी अज्ञानता प्रकट करने के बजाय मैंने मात्र सिर हिला दिया और लालाजी संतुष्ट हो गए। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इस तरह ठगे जाने पर रोऊँ या हँसू? इसके बाद बरसों बीत गये। शानी जी जगदलपुर साल में एक बार दो बार आते थे। मुलाकात नहीं हो पाती थी लेकिन उनके संबंधों सेें जानकारियाँ मैं प्राप्त करता ही रहता था। दुर्भाग्य देखिये कि जिस व्यक्तित्व को मैं उनके असल नाम से जानता था। उनसे शानी जी के रूप में ज़िन्दगी में कभी मेरी मुलाक़ात नहीं हो पाई। यही कारण है कि मैंने अपने आलेख का शीर्षक यह दिया कि मिलकर भी शानी जी से नहीं मिल सका।

-इस्माईल भाई

10-11-2019

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