जैसी ज़िन्दगी देखी वैसा लिखना

1976-77 में जब में युवा ही था, लिखना शुरू ही किया था, शानी जी से भेंट हुई। वे मध्य प्रदेश शासन साहित्य परिषद के सचिव थे और वे तब तक इतना अधिक नाम कमा चुके थे कि काला जल का पर्याय उन्हें माना जाता था,  बस्तर का उन्हें पर्याय माना जाता था। उनसे मिलने पर यह महसूस होता था कि वे लेखकों से बहुत आत्मीयता से मिलते थे। उनके व्यक्तित्व में तेजी थीए तुर्शी थी, गर्मी थी और वे अपनी बात को तुरन्त प्रतिक्रिया में बदल देते थे। किसी बात परए साहित्यिक बात पर. जाहिर है कि साहित्यिक बातें ही उन लोगों से होती थीं. वे बहुत ही लपक कर अपने हाथ आगे बढ़ाते थे और आपसे हाथ मिलाते थे। उनके छोटे छोटे नर्म हाथ- गर्म हाथ मुझे आज भी महसूस होते हैं । उनके हाथ को गर्मी और उनके चेहरे की हँसी आज भी मेरे अन्दर झलकती है।

सारी कहानियाँ ले आओ. उन्होंने मुझसे कहा। मैं पच्चीस-छब्बीस साल का रहा होऊँगा। मेरी रचनाएँ सारिका वगैरहए सारी महत्त्वपूर्ण लघु पत्रिकाओं में छप रही थीं। उन्होंने रचनाएँ बुलायीं। उन्नीस साल का लड़का नाम से यह किताब साहित्य अकादमी ने छापी। उसके दो संस्करण उस समय हुए। वे जहाँ भी रहे साक्षात्कार में इसके बाद समकालीन भारतीय साहित्य में और फिर कहानी श्रीपत राय जी ने उनको सौंपी और नवभारत टाइम्स में भी इसके पहले थे। उन्होंने बहुत अधिकार से मुझसे रचनाएँ बुलाकर उसमें छापीं।

यह बताने का मेरा मकसद सिर्फ़ इतना है कि शानी जी बहुत ज़्यादा प्रायोगिक कहानीकार नहीं थे मगर अपने समय के बिल्कुल आधुनिक प्रयोगों को वे बहुत पसन्द करते थे। उनमें साहित्य की दृष्टि इतनी फैली, विस्तृत और गहरी थी कि उनसे आप जो भी नाम उस ज़माने के लेंगे वे सब भोपाल में आ चुके थे और हमें उन सबको सुनने का साथ में रहने का मौका मिलता था।

जब प्रतिष्ठानों की पत्रिकाएँ निकलती हैं उनकी एक सीमा होती है, एक शिखर होता है, उनके पैसे के आंकड़े होते हैं और फिर वे पत्रिकाएँ बन्द हो जाती हैं जैसे धर्मयुग बंद हो गया, सारिका बंद हो गयी मगर साहित्यिक पत्रिकाएँ जो संस्थान निकालते हैं उन सारे संस्थानों में पत्रिका का रूप, रंग, गंध. तेवर उस लेखक जो कि उसका सम्पादक है उससे चलता है और उसकी देखरेख में जो नयी चीज़ आती है वो बिल्कुल अलग होती है । साक्षात्कार को जब शानी जी ने शुरू किया बाद में सोमदत्तए प्रभाकर त्रोत्रियए सुदीप बनर्जी, आग्नेय ने नये शिखर दिये। नयी रचनाशीलता और साहित्य हिन्दी को मिला। यह बार-बार लगता है कि सरकारी संस्थान जिनमें पत्रिकाएँ हैं उनमें साहित्य से जुड़े हुए लेखकों को यदि भागीदारी होती है तो उसमें आपको ज़्यादा साहित्य और सही साहित्य देखने को मिलता है।

शानी जी के काला जल सांप और सीढ़ी, फूल तोड़ना मना है, एक  लड़की की डायरी उपन्यास हैं और कहानी संग्रह बबूल की छाँव,  छोटे घेरे का विद्रोह, एक से मकानों का नगर, एक नाव के यात्री, शर्त का क्या हुआ, बिरादरी, सड़क पार करते हुए, जहांपनाब जंगल आये। बस्तर के बारे में उन्होंने एक यात्रा वृत्तान्त भी लिखा है शाल वनों का ट्वीप। इससे उनकी रचनाशीलता का अन्दाज़ होता है।

सत्ताइंस साल की उम्र में उन्होंने काला जल बस्तर में रहकर लिखा। आकाशवाणी यूपीएससी से मेरा चयन हुआ और 1980 में जब मैं वहाँ गया उस वक्त पर मेरे लिए जो नक्शा था वह नक्शा उनका उपन्यास काला जल था। उसके माध्यम से मैं सल्लो आपा का घर ढूँढ़ने की कोशिश करता था। मैंने दलपत सागर के पास यह देखने की कोशिश की कि एक लेखक अपने समय और अपने समाज क-. जाहिर है कि निम्न मध्यमवर्गीय, मध्यमवर्गीय परिवार उसमें सबसे ज़्यादा हैं, उस पर जे कितनी खूबसूरती से उन चीजों को साथ लेकर आये हैं। मैं हिन्दी के दस उपन्यासों में काला जल को मानता हूँ और वह हमारी अमूल्य निधि है। उसे केवल यह कहकर कि ये बस्तर पर लिखा गया उपन्यास है या मुस्लिम चरित्रों पर लिखा गया उपन्यास है- उस उपन्यास की रचनाशीलता को सीमित करना होगा। यह एक ऐसा घुला-मिला समाजए  जो एक छूटा सा ठहरा हुआ समाज है उनके यात्रा वृत्तान्त शाल वनों के द्वीप से ही यह पता चल जाता है कि क्या, कैसा ठहरा हुआ समाज है। मैं अपनी ज्वाइनिंग के लिए गया था तो इंद्रावती नदी पर लकड़ी का पुल था और पानी भर जाने से ज्वाइन करने में मुझे दो दिन की देरी हुई थी। मैंने जो समाज वहाँ देखा वह थोड़ा सा विकसित समाज था जो शानी जी ने काला जल में आपको दिखाया है।

2000 में फिर मैं डायरेक्टरए दूरदर्शन होकर जगदलपुर गया। वहाँ बदलाव दिखा। पर बस्तर के आदिवासियों की जिन्दगी के अन्दर के बदलाव आज भी लगभग वैसे ही हैं। तमाम तरह की चीज़ें हैं, योजनाएँ हैं, उनको सुविधाएँ हैं मगर हमारे और उनके बीच में विकास से जीवन-शैली में क्या बदलाव होने चाहिए, उसके द्वंद आज भी देखने को मिलते हैं। ये बन्दूकों के रूप में भी मिलते हैंए वे योजनाओं के रूप में भी मिलते हैं और कैसे हम धीरे-धीरे आज भी आदिवासी जनजीवन को भूलते जाते हैं या उसको हम जान नहीं पाते। वह दिखाई पड़ता है।

शानी जी की चिन्ता का विषय बार.बार आदिवासी जनजीवन भी रहा हैए इसलिए इस इस बात को देखने की आवश्यकता हैं कि विकास की अवधारणा पर आपकी चर्चा क्या हैं और विकास की अवधारणा पर आदिवासी क्या सोचते हैं- इस पर लगातार पुनर्विचार किये जाने की आवश्यकता है। जैसे कि कहाँ पर आदिवासी स्त्रियाँ अपने सिर पर टोकना और उसमें छोटी.सी लकड़ी की चौपायी लेकर अपनी मढ़ई में आती हैं, मेले में आती हैं और उसके लिए वो पच्चोस किलोमीटर चलकर आती हैं, नमक खरीदती हैं और चली जाती हैं। इसको दिल्ली और बम्बई से आये हुए पर्यटकनुमा लेखक समझने में कठिनाई महसूस करते हैं।

मैं जब वहाँ था तो मेरा मनोरंजन दिल्ली और बम्बई के पत्रकारों से भी बहुत होता था। क्योंकि वो जो सोच लेकर आते थे और वहाँ जो हम उनके साथ घूमते थे, उससे एक अलग ही तरह की फ़िल्म तैयार हो सकती है। उसमें वे बार.बार भूल जाते हैं कि वह महिला पच्चोस किलोमीटर आकर अपना नमक खरीदकर और दिनभर बैठकर रात को मंद-एक तरह की शराब- पीकर उन्मुक्त वार्तालाप करते हुए वापस पैदल जाती है। दरअसल यह उनकी सामाजिकता की इन्टरनेट वर्किंग है जो आज हमारे हाथों में है और उससे वो आसपास के सारे जनजीवन को चीज़ों को महसूस कर सकते हैं। उससे अपना रास्ता भी खोज सकते हैं।

शानी जी के उपन्यासों पर राजेन्द्र यादव की इस बात को बताना चाहूँगा जो आज से पचास साल पहले उन्होंने लिखा, जब शानी उपन्यास लिख चुके थे और कहानियाँ लिख रहे थे- आज के प्राय: साहित्यकार एक ही सामाजिक प्रतिक्रिया के परिणाम और एक ही साहित्य संस्कार में पढ़े और पले है, अतः उनके प्रेरणा.स्त्रोत भी इतने समान हैं कि उनकी शब्दावली और सोचने का ढंग कहीं-कहीं एक-सा दिखाई देता है। एक ही रचनाकार में अनेक प्रवृत्तियाँ मुखर होती हैं- बेहद निराशावादीए पराजित और मार्मिक या फिर कहीं बहुत स्वस्थ और आशावादी। दूसरे प्रकार में सामाजिक यथार्थ के अनेक बिखरे सम्बन्धों में व्यक्ति के असामाजिक यथार्थ का अतिरंजित माखौल को उड़ाने को भी। अमरकांत, मोहन राकेश, रेणु के साथ शानी ऐसे आशावाद का स्वर देते हैंए जो एक कहानी का नया लक्ष्य बनता है। यह बिन्दु है जहाँ पर पचास वर्षों पहले शानी के बारें में कहा जाता है कि उनमें आशावाद है। उसमें मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग में आशा दिखाई देती है। यह बहुत अजीब बात है कि शानी जी की कहानियाँ पढ़ें, उसमें बहुत ज्वलन्त विषय हैं, बहुत गर्म विषय हैं मगर उसका वाचक है, उसका नैरेटर है- उसमें कभी बहुत लीडरशिप की गर्मी नहीं है। वह बहुत संयत हैए कहीं-कहीं बहुत निराश है, कहीं-कहीं उसका दब्बूपन भी सामने आता है। इस दब्बूपन के पीछे आखिरकार बात क्या है।

विश्वनाथ त्रिपाठी का एक लेख था जिसका नाम था- आज़ादी के याद भारत में भय के रूप!। तब शानी जी ने यह कहा कि. नहीं, इस शीर्षक को बदलिये और इसको लिखिये-तुम मुसलमान नहीं मरोगे। इसके पीछे लगता है कि जैसे शानी जी को पूरी सोच सामने आ जाती है- जब आप मरोगे तो तुम मुसलमान नहीं मरोगे।

अम्बेडकर ने कहा कि मैं हिन्दू था मगर जब मैं महूँगा तो मैं हिन्दू नहीं मरूँगा और वह अन्तत: बुद्धिस्ट होकर ही मरे। शानी क्या कहना चाहते हैं कि मैं मुसलमान नहीं महँगाए मैं एक भारतोय होकर ही मरूँगा। उनकी बात सामने आती है मगर इसके बाद उनका नैरेटर डर, भय, दहशत, मौन में, झेंप में घबराया हुआ-सा है। वह दरअसल उनके समय का एक ऐसा व्यक्ति है जो नैरेटर के रूप में आता है। ज़्यादा सघन और सान्द्र होकर आज की समस्याओं में, आज जिस तरह का हमारा समाज बन रहा है उसमें शानी इतने प्रासंगिक होकर सामने आते हैं। वाचक में ख़लनायकता या दयनीयता का हल्का.सा रूप उभरता है, उससे वे आत्ममुग्ध नहीं होते। शानी अपने विषय को लेकर आत्ममुग्ध कभी नहीं रहे हैं और यह वाचक की खूबी बनतो है। ऐसा प्रभाव छोड़ते हैं जो कि जीवन कालखण्ड का है।

शानी जी से मिलने के लिए न्यूमार्केट के पास टी.टी नगर में उनका सरकारी घर था,मैं जाया करता था। उनकी अनेक कहानियों में वे ही पात्र हैं, वही जगह का लोकेल है, उसका ही भौगोलिक वर्णन उनमें हैं। कहानीकार- इसकी एनालेसिस होनी चाहिए, इसकी समाजशास्त्रीयता का विश्लेषण होना चाहिए कि उनकी कहानियों में जब चरम सीमा पर आती है, वहाँ जहाँ कहानो की दो घटनाएँ हैं, वहाँ पर जो स्पेस है, उस स्पेस को अहंकार, गहन अंधकार और प्रकाश के बीच को शानी जी हमेशा चुप्पी से जोड़ते हैं। उसमें अतिरिक्त कथन नहीं होते। उन्होंने एक लेख लिखा- काश मैं हिन्दू होता! और उसमें उन्होंने बात कही, उनके स्वभाव को देखें तो ऐसा लगेगा कि यह अहंकार है। मगर वे कहते हैं कि-एक मैं ही हूँ जो हिन्दी में मुस्लिम जीवन का सच्चा कथाकार हूँ और कोई नहीं है। उस समय राही जी भी थे। बहुत सारी कहानियों शानी जी ने लिखी हैं। मगर यह उनकी गर्वोक्ति नहीं है, आजादी के बाद मुसलमान की पीड़ा को कहीं किसी ने नहीं दिखायाए शानी जी टेबल ठोककर कहते हैं कि ये मैंने ही कर दिखाया है।

वे केवल निम्न मध्यमयर्गीय मध्यमवर्गीय मुसलमानों की चर्चा नहीं करते हैं, उसमें आर्थिक रूप से सक्षम मुसलमान हैं और आर्थिक रूप से गिरे हुए अक्षम और पैसे वाले नहीं हैं- ग़रीब मुसलमान हैं, उनके बीच की फ़ांक को वह दिखाते हैं और इसलिए वे सबसे बड़े लेखकों में एक प्रतिनिधि स्वर में हमारे सामने आते हैं। आज के पॉलिटिशियन, आज के लेखक, आज के समाजशास्त्रीय केवल मुस्लिम होने को ही लेकर रह जाते हैं। मगर इसके पीछे आर्थिक रूप से सक्षम मुस्लिम हैं, वे आर्थिक रूप से सक्षम हिन्दू के साथ अपना सफल जीवन बना रहे हैं, मगर उनके साथ वह जीवन जो गरीब का है, जैसे बिरादरी कहानी है, पिछड़ रहा है।

शायद यही वजह है कि उनके प्रिय लेखक.आलोचक धनंजय वर्मा जो खुद भी जगदलपुर में रहे हैं, उन्होंने उनकी बहुत अच्छी बात निकालकर सामने आती है। धनंजय वर्मा उनकी एक कहानी भूले हुए में चर्चा करते हुए लिखते हैं कि जीने का नाटक छल या ढोंग और जीवन को ढोते हुए जो लोग हैं, उसको शानी यथार्थ संवेदना से अधिक भोग के यथार्थ की तरफ ले जाते हैं और सबसे बड़ी बात है कि उसकी जो भूमि है वो आर्थिक है। जैसा मैंने पहले कहा कि वे गरीब और अमीर की चीज़ को नहीं भूलते और इस नाते वे बहुत ही प्रगतिशील दृष्टि को अपनाते हैं। जीने की समस्या उनके लिए प्रथम समस्या है।कला का यथार्थ ही नहीं, जिन्दगी का भी यथार्थ है जहाँ सूखे चेहरे हैं, घुटनों में मुँह छिपाये हुए लड़कियाँ हैं। बिना किसी वर्गभेद के यह हिन्दुस्तान की औसत जनता की तस्वीर है। संघर्ष का नितान्त आत्मीय और यथार्थ का चित्र है।धनंजय वर्मा ने उनकी भूले हुए कहानी पर ये बात लिखी थी।

’बिरादरी उनकी एक बहुत बेहतरीन कहानी है जिसमें एक बच्चा है, बच्चे को पकड़ लिया जाता है कि वह कुछ चोरी कर रहा है जबकि वो नहाने चला गया है किसी के घर में और उस बच्चे से पूछा जाता है। मुस्लिम बच्चा है, बहुत निम्न मध्यमवर्ग का है और सारे लोग उसको पीटने की कोशिश करते हैं मगर वह बच्चा हुनरमन्द भी हैं जो सिलाई-कढ़ाईए ज़री का काम करके अपने गुज़ारा कर सकता था। नौ-दस साल का साबिर नाम का बच्चा है।

उस कहानी में जो ‘मैं’ नाम है,  उसकी कोई मदद नहीं कर पाता जबकि उस बच्चे को ऐसा लगता है उसको माँ को ऐसा लगता है कि यह उसकी मदद कर सकता है क्योंकि वह उसी बिरादरी का है। यह जब अपने दोस्तों के साथ अपनी शाम गुजार रहा है, शराब पी रहा है, उसकी माँ उसके लिए कुछ व्यवस्था के लिए आती है। उसका वर्णन, साबिर की माँ का कितना खूबसूरत वर्णन उन्होंने किया है। उन्होंने कहा कि-शाबिर की माँ मैले कुर्ते और इन्तज़ार में छुपी हुई लगीं। एल्युमिनियम के पुराने बर्तन की तरह उनका साँवला रंग जला हुआ और ठण्डा था। चूल्हे की बुझी हुई राख ढंकी हुई लकड़ी की तरह और आँखें वे बारिश के छोटे.छोटे और गंदले डबरों की तरह थीं, बाढ़ उतर जाने के बाद जैसे आँखें हो जाती हैं। इतना खूबसूरत! केवल आठ पंक्तियों में ही एक गरीब व्यक्ति का पूरा दृश्य उन्होंने खींच दिया। साबिर की माँ किस तरह की हो सकती हैंए उसका भी वे वर्णन करते हैं। आगे ये वाइफ़ से कहते हैं कि- कह दो कि वो सो रहे हैं।

ये सोना समाज में जागृत व्यक्ति का है, कोई किसी की मदद नहीं करना चाहता, उस पर टिप्पणी है। यहाँ एक बिरादरी में रहकर भी वे उस काम को नहीं कर पा रहे हैं और वे सचमुच सो ही रहे हैं। कोई अतिरिक्त शब्द शानी जी उसके लिए नहीं लगाते। निष्कर्ष की त्तरह नहीं लगाते। वह उसे बता देते हैं सो रहे हैं और आपको महसूस हो जाता है कि ये कहानी बिरादरी में गरीब की मदद करने नहीं आ रहा है, सचमुच सोये हुए ही हैं। इस बात को बीच में भट्ट नाम के कैरेक्टर के साथ कहते हैं, दोनों बातचीत कर रहे हैं कि भट्ट की ही बात क्यों करें जो व्यवस्था में छुट्टे सांड की तरह है और साबिर जैसे लोग यानी जो छोटा बच्चा है, ऐसे लोग भी पैदा होते हैं। पूरी बिरादरी में हम-तुम क्या शामिल नहीं हैं, ये प्रश्न लेखक का ही नहीं, शानी उसको वाचक की तरह रखते हैं। भट्ट सरकार को कोल रहा हैं, अन्दर से खोखला कर रहा है और हम सोचते हैं कि हाय-हाय हम भट्ट की तरह क्यों नहीं हो सके! यह ऐसी कहानी है जो उनकी सोच को दूर तक ले जाती है।

नामवर सिंह जी से विश्वनाथ त्रिपाठी जी और शानी जी की एक बातचीत हुई है।नामवर जी अक्सर हम सब लोगों से भी कहते थे कि साहब आप लोगों की कहानी में मुस्लिम पात्र क्यों नहीं होता है। उस साक्षात्कार में सबसे अच्छी बात उन्होंने कही, ये बहुत ध्यान देने की बात है। वह नामवर जी से कहते हैं कि. नामवर जी, एक बहुत अजीब बात है कि भाषा से जाति को पहचाना जा सकता है, भाषा से जाति में जाया जा सकता है। लेकिन आप संवेदनहीत हैं तो आप उसकी संस्कृति में पैठ नहीं बता सकते। ये पैठ चूँकि हमने नहीं बनायी है इसलिए हम उर्दू थोड़ी.बहुत समझ भी सकते हैं मगर उस संस्कृति में जाकरए उसके पात्रों को हिन्दी की कहानियों में ला पाना मुश्किल होता है।

ऐसी उनकी कितनी ही कहानियाँ हैं जहाँ वे इस बात को बार-बार कहते हैं, जैसे’जनाज़ा कहानी है। जनाज़ा कहानी में रिज़वी है, उसकी लाश पड़ी हुई है और वहाँ मोहल्ले के सारे हिन्दू लोग इकट्ठा कर रहे हैं उसके जो दोस्त हैं और लोगों को पकड़ना चाहते हैं कि वो कौन लोग हैं जिसके बाद हम इसको कब्रिस्तान ले जायेंगे। बातचीत में किसी ने पूछा कि आबकारी विभाग के कुरतुल्ला साहब को बुलाएँ? वो अफसर हैं। तो दूसरा बोलता है-वो न हिन्दू हैं न मुसलमान हैं, वो केवल अधिकारों हैं। फिर अली साहब को बुला लें? अरे अली साहब एक नम्बरी नाग हैं। इस कदर कमजर्फ़। शंकरदत्त ने पूछा- मरना पराये शहर में कितना अजीब है? शंकरदत ने रिजवी से कहा- जो कुछ नहीं कह सकता वह केवल गुस्सा करता है, जो कुछ नहीं कर सकता वह केवल गुस्सा करता है। रिजवी तुम अकेले पड़ते जा रहे हो। यह पाकिस्तान के युद्ध के दिन थे या किसी भयंकर दिन का कोई मौका था।

ये कहानी उस वक्त लिखी गयी है! जब आज लिखी जा रही होती तो लोग बहुत हायतौबा मचाते मगर इस कहानी में बहुत ही ठण्डे ढंग से बहुत अतिरिक्त कुछ न कहते हुए शानी जी ने घटनाओं के माध्यम स- उनकी कहानियों की खूबी भी है- वे घटनाओं को सामने रखते हैं। संवादों को सामने रखते हैं, टिप्पणियों को बहुत कम। ठण्डापन उसमें रहता है और जब ये कहता है, पता है कि मुसलमान तुम्हें उस आदमी के बारे में कह रहे हैं-हाँ पता है, मुसलमान मुझे काफिर समझते हैं और हिन्दू ये समझते हैं। बहुत प्यारी बात लिखी है- क्यीआदमी सिर्फ़ स्याह या सफेद ही होता है। क्या ऐसा नहीं होता कि दोनों के बीच में कोई रंग घुले हुए हों। ओलम्पिक टूर्नामेन्ट की बात करते यदि पाकिस्तान मैच हार जाए तो क्या करना चाहिए? कोई मिठाई यदि बाँटना चाहता है तो व्यक्ति यह जानना चाहता है कि ये किसकी तरफ है। यह भारत की तरफ से मैच पराजित होने पर है या पाकिस्तान की खुशी होने पर है। युद्ध जैसी एक कहानी है जिसमें पाकिस्तान के युद्ध के समय की कहानी थी मगर उसमें कहता है कि आम मुलसमान झाड़ियों में दुबके खरगोश की तरह अजीब ही सकते के आलम में डरा हुआ है और चौकस हो गया है।

यह हम सबके मुँह पर एक तरह का तमाचा है। इस पूरी कहानी के बाद में एक प्रतीक लेकर आते हैं, वे कहते हैं कि- दालान में टंगे आईने पर गौरैय्या बैठी है जो हमेशा को तरह अपनी परछाईं पर चोंच मार रही है।! यह अजीब बात है। वसीम रिज़वी और शंकरदत्त मैंने देखा कि उनकी कई कहानियों में आते हैं। वे जब भोपाल से चले जाते हैं तो ’जहाँपनाह जंगल, दोज़ख़ी जैसो कहानियाँ लिखते हैं दिल्लो में। वहाँ जहांपनाह जंगल के पात्र होते हैं उनके. कबरबिज्जू, अजगर, नेवला, सरकारी आदमी। इन नामों से ही आप जान जानते हैं कि शानी वहाँ के लोगों को उस कैरेक्टर को कैसे लेकर आते हैं।

मैं और सुधीर सक्सेना जी आखिरी दिनों में दिल्ली गये थे। उनसे इन्टरव्यू भी बैठे बिठाये प्लान किया, गये तो खाना खाने थे उनके घर। जो हमने सवाल किये उसमें उन्होंने कहा कि- महत्त्वपूर्ण यह जानना नहीं है कि क्या लिखना है बल्कि ज़्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि क्या नहीं लिखना है। हम इस खूबी को विकसित करें ये ज़्यादा अच्छी बात होगी।

उनकी पहली कहानी भैरवप्रसाद गुप्त ने 1957 में छापी थी-रहीम चाचा। यह उस बात की सहमति दिलाती है कि क्या लिखें और क्या न लिखें।मुस्लिम अनुभव की कहानियाँ मुझसे पहले हिन्दी में लिखी ही नहीं गयीं। काला जल लिखने के लिए मुझे मुस्लिम ही होना था। काला जल कोई और मुस्लिम लिख ही नहीं सकता। आउटसाइडर होकर आप वह तकलीफए दर्द, ज़िल्लत, अपमान और कॉम्प्लेक्सेस को महसूस कर ही नहीं सकते। ये लिखने के लिए आपको उसमें पैठना होगा- मानो छलछलाता हुआ रक्त आपकी त्वचा से बाहर आ जाता है। जैसी जिन्दगी देखी वैसा लिखना चाहिए। वैसा ही मैंने लिखा। और अन्त में वे बोलते हैं एक प्रश्न के जवाब में- यदि आप दब्बू और कायर हैं तो आपका लेखन भी दब्बू और कायर होगा। आपकी कहानियों में पात्र होंगे लेकिन उनके पाँव व रीड को हड्ढी नहीं होगी। लेखन के लिए साहसिकता चाहिए, जोखिम चाहिए। जैसे मुझे ये चिन्ता नहीं होती कि कौन मुझे क्या कहेगा, यह भय नहीं होता कि लोग मुझे कम्युनल कहेंगे। शानी जी यह कहते हुए थोड़ा आगे आए। परिचित हथेली आगे बढ़ी। उनकी आँखों में पानी था अपार। यह भारतीय होने की अलग कहानी है।

श्री शशांक द्वारा लिखित यह लेख नवंबर 2020 में कथादेश में प्रकाशित हुआ है

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